संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
ग्यारह
अभी इसी सप्ताह एक ऐसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझसे एक प्रश्न पूछा था,
जिसका उत्तर मैं तत्काल उन्हें नहीं दे पाई थी। उस जटिल प्रश्न का तत्काल
समुचित उत्तर देना मेरे लिए क्या, किसी के लिए भी सम्भवतः सहज नहीं होता। वह
प्रश्न आज हमारे अनेक संशय-ग्रस्त माता-पिताओं का है, हमारी पारिवारिक जटिलता
एवं सामाजिक जीवन ही कुछ अंश में इस प्रश्न के लिए उत्तरदायी हैं। जिन्होंने
मुझसे यह प्रश्न पूछा, वह एक ऐसे विभाग के उच्च अधिकारी हैं, जो दिन-रात ऐसी
ही समस्याओं से जूझता है, इसी से स्वाभाविक था कि एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के
नाते वह समाज की किसी भी अपराध-सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान, अपना प्रमुख
कर्तव्य मानते हैं।
उन्होंने मुझसे पूछा, "शिवानीजी, अनेक उच्चपदस्थ ऐसे अधिकारी भी कई बार मेरे पास राय लेने आते हैं जिनके पुत्र उनके यत्न से लालन-पालन, श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के बावजूद हाथ से निकल गए हैं। कोई पिता पर ही हाथ उठा बैठता है, किसी को चरस की कुड़क सताती है और किसी को अत्याधुनिका सहपाठिनियों का संसर्ग। कैसे उनको राह पर लाया जा सकता है? क्या कारण है कि आज की पीढ़ी ऐसे अबाध्य, अनुशासनहीन बनती हमारे हाथ से निकली जा रही है?"
यह कोई नवीन समस्या इसलिए नहीं है कि प्रत्येक पुरानी पीढ़ी, किसी-न. किसी रूप में नवीन पीढ़ी के विद्रोह से त्रस्त अवश्य हुई है। किन्तु उस पीढ़ी की सामाजिक जटिलता हमारे आधुनिक समाज की जटिलता की भाँति इतनी उलझी नहीं थी कि उसे सुलझाना ही असम्भव प्रतीत हो। तब युग इतनी तीव्र गति से नहीं भाग रहा था। समय का इतना अभाव भी नहीं था और सबसे बड़ी बात यह थी कि तब, माता-पिता शिशु की सुकुमार वृत्ति के समुचित विकास के लिए प्रेम के महत्त्व को समझते थे। माता-पिता, परिवार, आत्मीय स्वजन की आत्मिक सहानुभूति का प्रत्येक बालक या बालिका के जीवन में विशेष महत्त्व था।
आज हमारे व्यक्तिगत स्थूल जीवन-बोध ने हमें स्वयं ही हमारे बच्चों से दूर हटा दिया है, हमारी उच्चाकांक्षा-चाहे वह किसी क्षेत्र की हो, नौकरी की, व्यापार की या राजनीति की-हमारा एकमात्र ध्येय बन गई है। हमने अपने पुत्र को किसी प्रख्यात पब्लिक स्कूल में डाल दिया, उसको दामी से दामी कपड़े सिलवा दिए, मनपसन्द कैमरा खरीद दिया, स्टीरियो ले दिया और हमारा कर्तव्य पूरा हो गया इस विलासी लालन-पालन के पीछे भी हमारे प्रदर्शन की भावना ही प्रबल रहती है। लोग देखें, समाज देखे कि हमारा बेटा कैसा राजकुमार-सा पल रहा है। यही अस्वाभाविक परिवेश में पले राजकुमार जब परिवार में जाते हैं और फिर सामाजिक परिवेश में गोता लगाते हैं तो उन्हें सबकुछ अनचीन्हा लगता है-यहीं से शिशु मन टूटता है। पहले माता-पिता के प्रति विद्रोह प्रखर होता है, फिर समाज के प्रति। धीरे-धीरे हिंसा, वह भी विवेकहीन हिंसा, उनका मूल लक्ष्य बन जाती है।
बचपन से ही जिस शिशु को निजस्व व्यक्तित्व की उपलब्धि का सुयोग नहीं जुटता, वही बड़ा होकर विद्रोही बनता है। पूत के पाँव पालने से ही देखे जाते हैं। यदि आरम्भ से ही उसके शिशु-जीवन में ही उसे अनुशासन का महत्त्व न समझाया गया, स्नेह की, वह भी अकृत्रिम स्नेह की, घुट्टी उसे नहीं पिलाई गई तो बढ़ती वयस के साथ, अनुशासनी जंजीर की जकड़ वह बड़ी अबाध्यता से तोड़कर दूर फेंक देगा।
आप एक सामान्य दृष्टान्त पशु का ही लीजिए। किसी कुत्ते को आप पहले कुछ दिन स्वच्छन्द विचरण के लिए बिना जंजीर के छोड़ दें और फिर उसे चेन में बाँध दें तो वह भौंकेगा भी अवश्य और वह बन्धन उसे धीरे-धीरे खूखार भी बना देगा। आज अपनी सन्तान को भी हम अचानक ऐसे ही जंजीरी जकड़ से जकड़ने की चेष्टा करते हैं। स्वाभाविक है कि बँधनेवाला गुर्राएगा, और सम्भव है कि काटने को भी दौड़े। सन्तान को योग्य, आज्ञाकारी एवं शिष्ट बनाने के लिए परमावश्यक है स्वयं माता-पिता का त्याग। अपने स्वार्थ को, अपनी उच्चाकांक्षा को ताक पर धर जब तक हम स्वयं अपना दृष्टान्त सन्तान के सम्मुख नहीं धरेंगे, हम उनके हाथ से चले जाने का दुखड़ा ही किस मुँह से बखान सकते हैं? दूसरी, हमारी दुर्बलता है सन्तान की दुष्कीर्ति को ग्रहण न कर पाना। हम जानते हैं कि हमारा पुत्र चरस का दम खींचता है, ट्रेन यात्रियों को डरा-धमका उनकी घडियाँ उतरवा लेने में विशेष रूप से ख्याति प्राप्त एक दल का भी सदस्य है। कार चुराते भी पकड़ा गया है, पर फिर भी जब कोई हितैषी हमसे आकर कहता है कि "भई, अपने बेटे को सँभालो, हमने आज उसे फलाँ बदनाम लड़के के साथ देखा," तो हम उस हितैषी पर ही झपट पड़ते हैं।
ऐसे ही एक परिवार के पुत्र को मैंने छत पर गाँजे का दम खींचते स्वचक्षुओं से देखा। उसके पितामह से मेरा पुराना परिचय था, इसी से क्षुब्ध अवश्य हुई किन्तु उसके माता-पिता से जानबूझकर ही कुछ नहीं कहा।
जननी पद का सुदीर्घ अनुभव इतना मुझे भी सिखा गया है कि संसार की कोई भी जननी अपने पुत्र की निन्दा नहीं सुन सकती। किन्तु, अपराधी पुत्र मुझे देख चुका था, उसकी नई-नई उगी दाढ़ी का तिनका उसे स्वयं ही स्पर्शकातर बना गया। पता नहीं, उसने माता-पिता से क्या कहा है कि जो परिवार कभी मेरा परम मित्र था, आज वह मुझे देखकर ही मुँह फेर लेता है।
यदि आज हम अपनी सन्तान के हाथ से निकल जाने का दुखड़ा रोते हैं तो अपने आँसुओं के लिए हम ही उत्तरदायी हैं। प्रत्यंचा से छूटा तीर और हाथ से गया बेटा कभी वापस नहीं आता। इसी से हमें तीर छोड़ने से पूर्व ही निशाना साधना होगा, नहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब जापान की भाँति सम्पन्न-समृद्ध परिवारों का सबसे बड़ा सिरदर्द सन्तान की आत्महत्या हमारा भी सिरदर्द बन जाएगी। टोकियो में गत वर्ष, 70 बालक-बालिकाओं ने आत्महत्या की, जिनमें सबकी उम्र थी दस से चौदह वर्ष! कुछ का कारण था परीक्षा में अकृत कार्य होना, कुछ का कारण था पारिवारिक परिवेश और कुछ का यौन-संसर्ग के पश्चात् गहन पापबोध की भावना!
उन्होंने मुझसे पूछा, "शिवानीजी, अनेक उच्चपदस्थ ऐसे अधिकारी भी कई बार मेरे पास राय लेने आते हैं जिनके पुत्र उनके यत्न से लालन-पालन, श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के बावजूद हाथ से निकल गए हैं। कोई पिता पर ही हाथ उठा बैठता है, किसी को चरस की कुड़क सताती है और किसी को अत्याधुनिका सहपाठिनियों का संसर्ग। कैसे उनको राह पर लाया जा सकता है? क्या कारण है कि आज की पीढ़ी ऐसे अबाध्य, अनुशासनहीन बनती हमारे हाथ से निकली जा रही है?"
यह कोई नवीन समस्या इसलिए नहीं है कि प्रत्येक पुरानी पीढ़ी, किसी-न. किसी रूप में नवीन पीढ़ी के विद्रोह से त्रस्त अवश्य हुई है। किन्तु उस पीढ़ी की सामाजिक जटिलता हमारे आधुनिक समाज की जटिलता की भाँति इतनी उलझी नहीं थी कि उसे सुलझाना ही असम्भव प्रतीत हो। तब युग इतनी तीव्र गति से नहीं भाग रहा था। समय का इतना अभाव भी नहीं था और सबसे बड़ी बात यह थी कि तब, माता-पिता शिशु की सुकुमार वृत्ति के समुचित विकास के लिए प्रेम के महत्त्व को समझते थे। माता-पिता, परिवार, आत्मीय स्वजन की आत्मिक सहानुभूति का प्रत्येक बालक या बालिका के जीवन में विशेष महत्त्व था।
आज हमारे व्यक्तिगत स्थूल जीवन-बोध ने हमें स्वयं ही हमारे बच्चों से दूर हटा दिया है, हमारी उच्चाकांक्षा-चाहे वह किसी क्षेत्र की हो, नौकरी की, व्यापार की या राजनीति की-हमारा एकमात्र ध्येय बन गई है। हमने अपने पुत्र को किसी प्रख्यात पब्लिक स्कूल में डाल दिया, उसको दामी से दामी कपड़े सिलवा दिए, मनपसन्द कैमरा खरीद दिया, स्टीरियो ले दिया और हमारा कर्तव्य पूरा हो गया इस विलासी लालन-पालन के पीछे भी हमारे प्रदर्शन की भावना ही प्रबल रहती है। लोग देखें, समाज देखे कि हमारा बेटा कैसा राजकुमार-सा पल रहा है। यही अस्वाभाविक परिवेश में पले राजकुमार जब परिवार में जाते हैं और फिर सामाजिक परिवेश में गोता लगाते हैं तो उन्हें सबकुछ अनचीन्हा लगता है-यहीं से शिशु मन टूटता है। पहले माता-पिता के प्रति विद्रोह प्रखर होता है, फिर समाज के प्रति। धीरे-धीरे हिंसा, वह भी विवेकहीन हिंसा, उनका मूल लक्ष्य बन जाती है।
बचपन से ही जिस शिशु को निजस्व व्यक्तित्व की उपलब्धि का सुयोग नहीं जुटता, वही बड़ा होकर विद्रोही बनता है। पूत के पाँव पालने से ही देखे जाते हैं। यदि आरम्भ से ही उसके शिशु-जीवन में ही उसे अनुशासन का महत्त्व न समझाया गया, स्नेह की, वह भी अकृत्रिम स्नेह की, घुट्टी उसे नहीं पिलाई गई तो बढ़ती वयस के साथ, अनुशासनी जंजीर की जकड़ वह बड़ी अबाध्यता से तोड़कर दूर फेंक देगा।
आप एक सामान्य दृष्टान्त पशु का ही लीजिए। किसी कुत्ते को आप पहले कुछ दिन स्वच्छन्द विचरण के लिए बिना जंजीर के छोड़ दें और फिर उसे चेन में बाँध दें तो वह भौंकेगा भी अवश्य और वह बन्धन उसे धीरे-धीरे खूखार भी बना देगा। आज अपनी सन्तान को भी हम अचानक ऐसे ही जंजीरी जकड़ से जकड़ने की चेष्टा करते हैं। स्वाभाविक है कि बँधनेवाला गुर्राएगा, और सम्भव है कि काटने को भी दौड़े। सन्तान को योग्य, आज्ञाकारी एवं शिष्ट बनाने के लिए परमावश्यक है स्वयं माता-पिता का त्याग। अपने स्वार्थ को, अपनी उच्चाकांक्षा को ताक पर धर जब तक हम स्वयं अपना दृष्टान्त सन्तान के सम्मुख नहीं धरेंगे, हम उनके हाथ से चले जाने का दुखड़ा ही किस मुँह से बखान सकते हैं? दूसरी, हमारी दुर्बलता है सन्तान की दुष्कीर्ति को ग्रहण न कर पाना। हम जानते हैं कि हमारा पुत्र चरस का दम खींचता है, ट्रेन यात्रियों को डरा-धमका उनकी घडियाँ उतरवा लेने में विशेष रूप से ख्याति प्राप्त एक दल का भी सदस्य है। कार चुराते भी पकड़ा गया है, पर फिर भी जब कोई हितैषी हमसे आकर कहता है कि "भई, अपने बेटे को सँभालो, हमने आज उसे फलाँ बदनाम लड़के के साथ देखा," तो हम उस हितैषी पर ही झपट पड़ते हैं।
ऐसे ही एक परिवार के पुत्र को मैंने छत पर गाँजे का दम खींचते स्वचक्षुओं से देखा। उसके पितामह से मेरा पुराना परिचय था, इसी से क्षुब्ध अवश्य हुई किन्तु उसके माता-पिता से जानबूझकर ही कुछ नहीं कहा।
जननी पद का सुदीर्घ अनुभव इतना मुझे भी सिखा गया है कि संसार की कोई भी जननी अपने पुत्र की निन्दा नहीं सुन सकती। किन्तु, अपराधी पुत्र मुझे देख चुका था, उसकी नई-नई उगी दाढ़ी का तिनका उसे स्वयं ही स्पर्शकातर बना गया। पता नहीं, उसने माता-पिता से क्या कहा है कि जो परिवार कभी मेरा परम मित्र था, आज वह मुझे देखकर ही मुँह फेर लेता है।
यदि आज हम अपनी सन्तान के हाथ से निकल जाने का दुखड़ा रोते हैं तो अपने आँसुओं के लिए हम ही उत्तरदायी हैं। प्रत्यंचा से छूटा तीर और हाथ से गया बेटा कभी वापस नहीं आता। इसी से हमें तीर छोड़ने से पूर्व ही निशाना साधना होगा, नहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब जापान की भाँति सम्पन्न-समृद्ध परिवारों का सबसे बड़ा सिरदर्द सन्तान की आत्महत्या हमारा भी सिरदर्द बन जाएगी। टोकियो में गत वर्ष, 70 बालक-बालिकाओं ने आत्महत्या की, जिनमें सबकी उम्र थी दस से चौदह वर्ष! कुछ का कारण था परीक्षा में अकृत कार्य होना, कुछ का कारण था पारिवारिक परिवेश और कुछ का यौन-संसर्ग के पश्चात् गहन पापबोध की भावना!
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