संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
|
1 पाठकों को प्रिय 444 पाठक हैं |
शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
आठ
जब अपने प्रदेश के मुख्यमन्त्री के कम्पायमान-अस्थिर हिरण्यमय सिंहासन का
नित्य नवीन विवरण पढ़ती हूँ तो बरबस ही कुछ दिनों पूर्व देखे गए दो दृश्यों
की छवि स्वयं ही स्मृति-पटल पर सरसराने लगती है। कम-से-कम हमारे प्यारे भारत
के ही एक अन्य प्रदेश में तो एक ऐसा मुख्यमन्त्री है, जिसके दर्शन मात्र को
अब भी भीड एक-दसरे का कन्धा छीलती पलिस का सबसे बड़ा सिरदर्द बन उठती है।
तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री एम.जी.आर. की लोकप्रियता के विषय में बहुत सुना था किन्तु स्वचक्षुदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जब मद्रास में मेरे ही आवास से दो कदम की दूरी पर उसकी झंडा फहराती दर्शनी कार रुकी। और फिर तो भीड़ के जिस अदम्यवन्या प्रवाह में वहीं पर खड़ी मैं बह गई, उसने क्षण-भर को हतप्रभ कर दिया। जब तटस्थ हुई तो देखा, भीड़ की कृपा से मैं दर्शकों की सबसे अगली पंक्ति में थी। ध्यान से मुख्यमन्त्री को देखा। चेहरे पर अवसन्न प्रौढ़त्व की गरिमा, अनेक प्रसाधनप्रलेपों को पराजित करती झुर्रियाँ, उस जानलेवा दक्षिणी चिपचिपाहटभरी गर्मी में भी सिर पर यत्नपूर्वक बाँकी अदा से टिकाई गई पशमी सफेद टोपी, पारीदार पाड़ की धोती, रेशमी कुर्ता और हरी-लाल गंगाजमनी कन्नी का अंग-वस्त्रम्। जगमगाती हीरे की अंगूठियों की आभा दमकाते वह अपने पर टूटी पड़ रही भीड़ को तमिल में सम्बोधित कर कह रहे थे, “यह ऐसा अवसर नहीं है कि मैं आपको दर्शन दूँ, यहाँ तो मैं स्वयं दर्शन करने आया हूँ। कृपया मेरी जय-जयकार से इस पावन अवसर के गाम्भीर्य को नष्ट न करें।" किन्तु अपने प्रिय हीरो की एक झलक देखने को जुटी भीड़ को इतना अवकाश ही कहाँ था कि वे अवसर के गाम्भीर्य का अवलोकन करें।
एम.जी.आर. किसी मन्त्री-पत्नी की अन्तिम यात्रा में सम्मिलित होने आए थे, जिनका गत रात्रि को अचानक हृदयगति रुक जाने से अल्पावस्था ही में असामयिक निधन हो गया था। जितनी देर वह वहाँ रहे, मद्रास के उस सबसे मुखर राजपथ का यातायात एक प्रकार से ठप्प हो गया था और बड़ी देर बाद मैं किसी प्रकार से उस घेरे से निकल घर पहुंची थी।
मुख्यमन्त्री की लोकप्रियता का दूसरा दृष्टान्त देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था मद्रास की प्रख्यात औद्योगिक प्रदर्शनी के अवसर पर। मुख्यमन्त्री एम.जी.आर. उस प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आनेवाले थे। इस प्रदर्शनी की एक विशेषता यह रहती है कि हथकरघे के चेंगलपेट, मदुरा कांजीवरम्, आन्ध्र के जादूगर बुनकर अपना-अपना माल बिना किसी बिचौलिए के इस प्रदर्शनी में बेचने आते हैं। फलतः एक से एक बढ़िया नमूने और दामों में भी बाजार-भाव से लगभग 25 प्रतिशत की कमी वहाँ ग्राहकों और व्यापारियों को समान रूप से बड़ी दूर-दूर से खींच लाती है। एक बार भीड़ के चक्रव्यूह में फँसे तो निकलना दूभर।
कांजीवरम् की एक दुकान पर वहाँ की दो प्रसिद्ध चित्रतारिकाएँ साड़ियों के आँचल की जरी परखती, सूंघती चली जा रही थीं। मैं उन्हें आश्चर्य से देख रही थी कि हाय राम, हमारे यहाँ तो पुराना बासमती चावल या देसी घी ही करतल पर धरकर सूंघ-परख खरीदा जाता है पर यह कैसा देश है बाबा, जहाँ ग्राहक साड़ी खरीदने से पहले उसका आँचल सूंघे चला जा रहा है। इतने में ही हल्ला मचा, हीरो शिरोमणि, और ऐसी भगदड़ मची जैसे भरी भीड़ में कोई मस्ताना हाथी चला आया हो। जब धूल का गुब्बारा मिटा तो देखा, हर दुकान खाली थी। एक माइक के सम्मुख ‘मक्कल तिलकम' बंगाल टाइगर-सा गरज रहे थे। यही थे तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री, जिसके विषय में कभी अन्ना दुरै ने कहा था कि “एम.जी.आर. अपना चेहरा दिखाकर ही चार हजार वोट बड़ी सुगमता से अपनी जेब में डाल लेता है और उसके भाषण देने पर तो पूरे चार लाख वोटर स्वयं उसकी मुट्ठी में बन्द हो जाते हैं।"
उस सुदीर्घ भाषण का एक शब्द भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा, किन्तु इतना अवश्य समझ में आ गया कि जो वक्ता किसी नुमाइश के उद्घाटन पर ही इतना लम्बा भाषण झाड़ सकता है और वह भी इस बाजीगरी दक्षता से कि कहीं कोई बच्चा भी नहीं रिरियाया-केवल गगनभेदी तालियों की गड़गड़ाहट बीच-बीच में गूंजती रही, वह निश्चय ही एक दुर्लभ वक्ता होगा।
भाषण का समापन हुआ। पूर्वाभ्यास की गई फिल्मी मुस्कान के साथ जब एम.जी.आर. ने कंठ का अजगरी पुष्पहार मन्त्रमुग्ध दर्शकों की ओर उछाल दिया, उन दुर्लभ पुष्प पंखुड़ियों को पकड़ने भीड़ टूट पड़ी। काले चश्मे में छिपी आँखों में विजय के उल्लास को तो मैं नहीं देख पाई, किन्तु गहन आत्मविश्वास में सर्पगन्धा के फन-सी उठी गर्वोन्नत ग्रीवा की वह भंगिमा मैंने अत्यन्त निकट से देखी थी।
यदि आपने, उनकी किसी तमिल चलचित्र में उनका अभिनय देखा हो तो आपको और भी आश्चर्य होगा कि ऐसी ऊलजलूल फ़िल्में, जिनमें यह लोकप्रिय नायक कभी असम्भव सम्भावनाओं का घटना-जाल बुनता आज लोकप्रियता के इस उत्तुंग शिखर पर आरूढ़ है। उदाहरण के लिए कभी किसी पतली लता को पकड़कर राजकन्या के शयनकक्ष में प्रवेश, निहत्थे ही भारी-भरकम जानवरों से मल्लयुद्ध, खलनायक को चुटकियों में मसल प्रेमिका के साथ-साथ लक्ष-लक्ष दर्शकों का हृदय विजित कर, पेड़ों की व्यर्थ परिक्रमा, बेतुके गाने, यानी कि प्रत्येक घटना यथार्थ से कोसों दूर, पर फिर भी देखिए कि मजाल है कि इस मुख्यमन्त्री का सिंहासन कोई डिगाकर तो देख ले।
मेरे वहाँ रहते ही उनके शासनकाल में दो महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं। एक सरकारी दुग्ध परियोजना की; दूसरी, असन्तुष्ट मछुओं की, जिन्होंने अपने बड़े-बड़े जाल और नौकाओं की परिधि से रास्ते रोक पूरे मद्रास की बस-सर्विस निष्क्रिय कर दी थी। अचानक किसी शून्य अन्तरिक्ष से ठेठ फ़िल्मी चमत्कार का परिवेश-संवाद। उनके लोकप्रिय हीरो अवतरित हो मुस्कराते हाथ बाँधे उनके सम्मुख खड़े हो गए। उनके लक्ष-लक्ष प्रशंसक भूल गए कि उनके सम्मुख प्रदेश का वह मख्यमन्त्री खडा है जिसके शासन के विरुद्ध उन्हें शिकायत है। यह तो है उनका प्रिय फ़िल्मी हीरो, जिसकी फ़िल्मों के गाने गा-गाकर वहाँ की जननियाँ अपने बच्चों को सुलाती हैं। जिसके चित्र उनके देवी-देवताओं के पूजागृह में टंगे रहते हैं, जिसका-सा सजीला वर पाने वहाँ की कुमारी कन्या मन्दिरों में मनौतियाँ मानती हैं, जिसकी तस्वीरों के लाकेट और अंगूठियाँ धड़ल्ले से बिकती रहती हैं।
और तब ही अपने अभागे उत्तर प्रदेश की ओर दृष्टिपात करते ही प्रदेश की चिरन्तन साढ़ेसाती का स्मरण हो आता है और चित्त खिन्न हो जाता है। काश, हमारे यहाँ भी कोई ऐसा तिलस्मी 'मक्कल तिलकम' होता जो लताओं को पकड़, शाखामृग-सा कुलाँचें भरता, सीधे नायिका के शयनकक्ष में प्रवेश कर, उसे बाँहों में भर उसी धृष्टता से मुस्कराकर कहता, “चिन्ता मत करो प्रिये, मुझे न नृप का भय है न मन्त्री का न अपने ही दल के विभीषणों का। जब तक मेरे सिर पर फर की यह सफेद पशमी टोपी है, और आँखों पर यह काला चश्मा है, संसार की कोई भी शक्ति मेरा इन्द्रासन नहीं डुला सकती।"
ऐसी बात नहीं है कि हमारे प्रदेश में 'मक्कल तिलकम' उपलब्ध है ही नहीं, अभी कुछ दिन पूर्व चलचित्र प्रेमिका मेरी महरी ही एक ऐसा नाम सुझा गई थी, "ऊ जौन मेहतबुआ बच्चन है बहुजी, बहुत बढ़िया गाना गावा रहित, 'हमको अइसा-वइसा न समझा, हम बड़े काम के लोग।' " सोचती हूँ, वह ठीक ही कह रही थी। हम भले ही चलचित्र-नायकों को 'अइसा'-'वइसा' समझें। कहीं-कहीं उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि चाहने पर वे भी 'बड़े काम के लोग' बन सकते हैं।
तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री एम.जी.आर. की लोकप्रियता के विषय में बहुत सुना था किन्तु स्वचक्षुदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जब मद्रास में मेरे ही आवास से दो कदम की दूरी पर उसकी झंडा फहराती दर्शनी कार रुकी। और फिर तो भीड़ के जिस अदम्यवन्या प्रवाह में वहीं पर खड़ी मैं बह गई, उसने क्षण-भर को हतप्रभ कर दिया। जब तटस्थ हुई तो देखा, भीड़ की कृपा से मैं दर्शकों की सबसे अगली पंक्ति में थी। ध्यान से मुख्यमन्त्री को देखा। चेहरे पर अवसन्न प्रौढ़त्व की गरिमा, अनेक प्रसाधनप्रलेपों को पराजित करती झुर्रियाँ, उस जानलेवा दक्षिणी चिपचिपाहटभरी गर्मी में भी सिर पर यत्नपूर्वक बाँकी अदा से टिकाई गई पशमी सफेद टोपी, पारीदार पाड़ की धोती, रेशमी कुर्ता और हरी-लाल गंगाजमनी कन्नी का अंग-वस्त्रम्। जगमगाती हीरे की अंगूठियों की आभा दमकाते वह अपने पर टूटी पड़ रही भीड़ को तमिल में सम्बोधित कर कह रहे थे, “यह ऐसा अवसर नहीं है कि मैं आपको दर्शन दूँ, यहाँ तो मैं स्वयं दर्शन करने आया हूँ। कृपया मेरी जय-जयकार से इस पावन अवसर के गाम्भीर्य को नष्ट न करें।" किन्तु अपने प्रिय हीरो की एक झलक देखने को जुटी भीड़ को इतना अवकाश ही कहाँ था कि वे अवसर के गाम्भीर्य का अवलोकन करें।
एम.जी.आर. किसी मन्त्री-पत्नी की अन्तिम यात्रा में सम्मिलित होने आए थे, जिनका गत रात्रि को अचानक हृदयगति रुक जाने से अल्पावस्था ही में असामयिक निधन हो गया था। जितनी देर वह वहाँ रहे, मद्रास के उस सबसे मुखर राजपथ का यातायात एक प्रकार से ठप्प हो गया था और बड़ी देर बाद मैं किसी प्रकार से उस घेरे से निकल घर पहुंची थी।
मुख्यमन्त्री की लोकप्रियता का दूसरा दृष्टान्त देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था मद्रास की प्रख्यात औद्योगिक प्रदर्शनी के अवसर पर। मुख्यमन्त्री एम.जी.आर. उस प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आनेवाले थे। इस प्रदर्शनी की एक विशेषता यह रहती है कि हथकरघे के चेंगलपेट, मदुरा कांजीवरम्, आन्ध्र के जादूगर बुनकर अपना-अपना माल बिना किसी बिचौलिए के इस प्रदर्शनी में बेचने आते हैं। फलतः एक से एक बढ़िया नमूने और दामों में भी बाजार-भाव से लगभग 25 प्रतिशत की कमी वहाँ ग्राहकों और व्यापारियों को समान रूप से बड़ी दूर-दूर से खींच लाती है। एक बार भीड़ के चक्रव्यूह में फँसे तो निकलना दूभर।
कांजीवरम् की एक दुकान पर वहाँ की दो प्रसिद्ध चित्रतारिकाएँ साड़ियों के आँचल की जरी परखती, सूंघती चली जा रही थीं। मैं उन्हें आश्चर्य से देख रही थी कि हाय राम, हमारे यहाँ तो पुराना बासमती चावल या देसी घी ही करतल पर धरकर सूंघ-परख खरीदा जाता है पर यह कैसा देश है बाबा, जहाँ ग्राहक साड़ी खरीदने से पहले उसका आँचल सूंघे चला जा रहा है। इतने में ही हल्ला मचा, हीरो शिरोमणि, और ऐसी भगदड़ मची जैसे भरी भीड़ में कोई मस्ताना हाथी चला आया हो। जब धूल का गुब्बारा मिटा तो देखा, हर दुकान खाली थी। एक माइक के सम्मुख ‘मक्कल तिलकम' बंगाल टाइगर-सा गरज रहे थे। यही थे तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री, जिसके विषय में कभी अन्ना दुरै ने कहा था कि “एम.जी.आर. अपना चेहरा दिखाकर ही चार हजार वोट बड़ी सुगमता से अपनी जेब में डाल लेता है और उसके भाषण देने पर तो पूरे चार लाख वोटर स्वयं उसकी मुट्ठी में बन्द हो जाते हैं।"
उस सुदीर्घ भाषण का एक शब्द भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा, किन्तु इतना अवश्य समझ में आ गया कि जो वक्ता किसी नुमाइश के उद्घाटन पर ही इतना लम्बा भाषण झाड़ सकता है और वह भी इस बाजीगरी दक्षता से कि कहीं कोई बच्चा भी नहीं रिरियाया-केवल गगनभेदी तालियों की गड़गड़ाहट बीच-बीच में गूंजती रही, वह निश्चय ही एक दुर्लभ वक्ता होगा।
भाषण का समापन हुआ। पूर्वाभ्यास की गई फिल्मी मुस्कान के साथ जब एम.जी.आर. ने कंठ का अजगरी पुष्पहार मन्त्रमुग्ध दर्शकों की ओर उछाल दिया, उन दुर्लभ पुष्प पंखुड़ियों को पकड़ने भीड़ टूट पड़ी। काले चश्मे में छिपी आँखों में विजय के उल्लास को तो मैं नहीं देख पाई, किन्तु गहन आत्मविश्वास में सर्पगन्धा के फन-सी उठी गर्वोन्नत ग्रीवा की वह भंगिमा मैंने अत्यन्त निकट से देखी थी।
यदि आपने, उनकी किसी तमिल चलचित्र में उनका अभिनय देखा हो तो आपको और भी आश्चर्य होगा कि ऐसी ऊलजलूल फ़िल्में, जिनमें यह लोकप्रिय नायक कभी असम्भव सम्भावनाओं का घटना-जाल बुनता आज लोकप्रियता के इस उत्तुंग शिखर पर आरूढ़ है। उदाहरण के लिए कभी किसी पतली लता को पकड़कर राजकन्या के शयनकक्ष में प्रवेश, निहत्थे ही भारी-भरकम जानवरों से मल्लयुद्ध, खलनायक को चुटकियों में मसल प्रेमिका के साथ-साथ लक्ष-लक्ष दर्शकों का हृदय विजित कर, पेड़ों की व्यर्थ परिक्रमा, बेतुके गाने, यानी कि प्रत्येक घटना यथार्थ से कोसों दूर, पर फिर भी देखिए कि मजाल है कि इस मुख्यमन्त्री का सिंहासन कोई डिगाकर तो देख ले।
मेरे वहाँ रहते ही उनके शासनकाल में दो महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं। एक सरकारी दुग्ध परियोजना की; दूसरी, असन्तुष्ट मछुओं की, जिन्होंने अपने बड़े-बड़े जाल और नौकाओं की परिधि से रास्ते रोक पूरे मद्रास की बस-सर्विस निष्क्रिय कर दी थी। अचानक किसी शून्य अन्तरिक्ष से ठेठ फ़िल्मी चमत्कार का परिवेश-संवाद। उनके लोकप्रिय हीरो अवतरित हो मुस्कराते हाथ बाँधे उनके सम्मुख खड़े हो गए। उनके लक्ष-लक्ष प्रशंसक भूल गए कि उनके सम्मुख प्रदेश का वह मख्यमन्त्री खडा है जिसके शासन के विरुद्ध उन्हें शिकायत है। यह तो है उनका प्रिय फ़िल्मी हीरो, जिसकी फ़िल्मों के गाने गा-गाकर वहाँ की जननियाँ अपने बच्चों को सुलाती हैं। जिसके चित्र उनके देवी-देवताओं के पूजागृह में टंगे रहते हैं, जिसका-सा सजीला वर पाने वहाँ की कुमारी कन्या मन्दिरों में मनौतियाँ मानती हैं, जिसकी तस्वीरों के लाकेट और अंगूठियाँ धड़ल्ले से बिकती रहती हैं।
और तब ही अपने अभागे उत्तर प्रदेश की ओर दृष्टिपात करते ही प्रदेश की चिरन्तन साढ़ेसाती का स्मरण हो आता है और चित्त खिन्न हो जाता है। काश, हमारे यहाँ भी कोई ऐसा तिलस्मी 'मक्कल तिलकम' होता जो लताओं को पकड़, शाखामृग-सा कुलाँचें भरता, सीधे नायिका के शयनकक्ष में प्रवेश कर, उसे बाँहों में भर उसी धृष्टता से मुस्कराकर कहता, “चिन्ता मत करो प्रिये, मुझे न नृप का भय है न मन्त्री का न अपने ही दल के विभीषणों का। जब तक मेरे सिर पर फर की यह सफेद पशमी टोपी है, और आँखों पर यह काला चश्मा है, संसार की कोई भी शक्ति मेरा इन्द्रासन नहीं डुला सकती।"
ऐसी बात नहीं है कि हमारे प्रदेश में 'मक्कल तिलकम' उपलब्ध है ही नहीं, अभी कुछ दिन पूर्व चलचित्र प्रेमिका मेरी महरी ही एक ऐसा नाम सुझा गई थी, "ऊ जौन मेहतबुआ बच्चन है बहुजी, बहुत बढ़िया गाना गावा रहित, 'हमको अइसा-वइसा न समझा, हम बड़े काम के लोग।' " सोचती हूँ, वह ठीक ही कह रही थी। हम भले ही चलचित्र-नायकों को 'अइसा'-'वइसा' समझें। कहीं-कहीं उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि चाहने पर वे भी 'बड़े काम के लोग' बन सकते हैं।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book