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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


सात


हमारे पौराणिक वाङ्मय के उद्धरण नारी के जननी रूप को सामाजिक सन्तुलन तथा सृष्टि का आधार मानते आए हैं। जननी का स्थान, उसका गौरव पिता की तुलना में सहस्रगुना अधिक माना गया है। निश्चय ही माता का स्थान आज भी उतना ही श्रेष्ठ है, उसकी आज्ञा उतनी ही अनतिक्रमणीय। किन्तु वही जननी कभी-कभी अपने ही वात्सल्यजनित दौर्बल्य से कोख के जने पुत्र को अपना प्रबल अनिष्टकारी रिपु भी बना लेती है। और जब अपना ही बेटा अपना दुश्मन बन उठता है तो फिर 'न पुत्र समो रिपुः'-उस जैसा प्रवंचक शत्रु और कोई हो नहीं सकता। फिर भी प्रकृति का यह कैसा विचित्र नियम है कि पिता भले ही पुत्र की कुटिलता को स्वीकार कर ले, शायद ही कोई माता सन्तान की कुटिलता को प्रत्यक्ष रूप में स्वीकार कर पाती है। यदि जननी भी जनक की भाँति कठोर हो सकती तो शायद संसार के अनेक कुपुत्रों की नियति दुखद होने से बच जाती।

पुत्र को रिपु बनाने में जननी जीवन की अनेक ऊँची-नीची देहरियों में ठोकर खा सकती है, पुत्र का अनावश्यक लाड़-दुलार एक करारे कनटाप के बदले उसे आँचल तले छिपाना, पिता से लुका-छिपाकर उसे समय-समय पर पैसे देना और फिर जननी की सबसे बड़ी दुर्बलता पुत्र के अवगुणों को, उसके दोषों को देख-सुनकर भी अनदेखा-अनसुना कर देना। धीरे-धीरे एक दिन स्थिति ऐसी विषम हो उठती है कि जननी के जिस आँचल के तले इतने दिनों ऐसा कुपुत्र छिपा रहता है, वह बाहर निकलते ही पैंतरा बदल जननी की ही ओर छुरा तान लेता है। किन्तु ऐसे शत्रु बन गए पुत्र को भी जननी शत्रु रूप में स्वीकार करना नहीं चाहती, भले ही वह अपनी उदंड गतिविधियों से पूरे मुहल्ले का उठना-बैठना दूभर कर दे!

मैं एक ऐसे ही परिवार की दुर्दशा देख चुकी हूँ। प्रायः ही निरीह गृहस्वामी क्रमशः काबू से बाहर हुए जा रहे बेटे का दुखड़ा रोने आते रहते थे। सीमित आय होने के बावजूद उन्होंने दबंग पत्नी के शासन की सत्ता स्वीकार कर उसकी प्रत्येक आज्ञा को सदा कानून मानकर झेला था, इसी से उसके मुँहलगे बेटे को भी दामी साहबी स्कूल में भर्ती कराया, उसका यूनिफार्म, किताबें, जूतों की चमक और बस्ते की दमक में अपनी कठिनता से अर्जित पूँजी पानी की तरह बहा दी। पहली ठोकर उन्होंने यहीं पर खाई। जिस बनावटी उच्च परिवेश में निम्न मध्यमवर्गीय वह छात्र सात पीरियड चहकता, उससे गृह का परिवेश था एकदम भिन्न। उसके अधिकांश सहपाठी उच्च सरकारी अफसरों के बेटे थे या फिर उद्योगपतियों के। घर लौटता, तो अपने परिवेश की कुंठा उसे विद्रोही बना देती। मुझे सर्वदा यही अभिज्ञता शत-प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है कि पुत्री का विवाह और पुत्र का स्कूल हमें सर्वदा अपने ही परिवेश के सामर्थ्य की लक्ष्मण-रेखा में बाँधना चाहिए। सौर छोटी और पैर लम्बे हुए तो एक-न-एक दिन पसारने पर पैर दिखेंगे अवश्य, आप उन्हें लाख समेटें।

इस परिवार में भी यही स्थिति एक दिन आ ही गई। पहले-पहल तो पिता फर्राटे से अंग्रेज़ी फूंकनेवाले पुत्र की प्रगति देखकर उल्लसित हुए, निश्चय ही एक दिन उनका यह होनहार बेटा देश के प्रत्येक इंटरव्यू से कबूतर-सा सीना ताने विजयी निकलेगा किन्तु धीरे-धीरे एक दूसरे क्षेत्र की उसकी प्रगति का समाचार उनके कानों तक पहुँचा, तो हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। लड़का बड़ी देर-देर में घर लौटने लगा। जब आता तो न जाने कैसे-कैसे मित्र साथ में रहते। आँखें लाल, चेहरा उड़ा-उड़ा। पिता का विवेक तो चौकन्ना हो गया किन्तु माँ पुत्र को रईसजादों के साथ घूमते देखती तो उसकी मूर्ख महत्त्वाकांक्षा और ऊँची पैंगें लेने लगती, "आखिर बड़े आदमियों के बेटों के साथ घूमने लगा है, तुम्हारे कहने पर किसी टुच्चे हिन्दुस्तानी स्कूल में भर्ती करा दिया होता तो क्या ऐसे लोगों में उठ-बैठ सकता? देखा आपने, कैसे-कैसे अंग्रेज़ी गाने गाता है?"

इसी बीच बेटा जिदिया गया कि गिटार खरीदेगा। पिता ने फिर झिड़का, “गिटार क्यों चाहिए, मीरासी-भाँड बनोगे क्या?"

पर माँ ने बचे-खुचे गहनों में से एक अदना अदद गिरवी धर गिटार भी खरीद दिया। पर रईसी शौक के खर्चे ऐसे बढ़े कि पिता-पुत्र में दिन-रात ठनकने लगी। उधर एक दिन अनुशासनप्रिय पादरी हेडमास्टर ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। पिता को बुलाकर कहा, “फौरन लड़के को यहाँ से हटा लीजिए, गाँजे-चरस के दम लगाने लगा है, पुलिस पीछे लगी है। हम नहीं चाहते, हमारा स्कूल बरबाद हो, मेरी राय मानें तो शहर ही से हटा लें" उन्होंने यही किया। पर इसी बीच रिजल्ट आया तो पिता के दग्ध चित्त में नियति की खंजर मूठ तक धंस गई। थर्ड डिविजन आया। पर माँ जब मुझसे मिली तो बोली, “उन्नीस पौइंट आए हैं।"

'चलो, मैंने सोचा, फर्स्ट डिविजन तो आ ही गया।' पर इसी बीच उसके पिता एक दिन मेरे पास आए, “यहाँ ले आया हूँ, तुम कह-सुनकर इसे भर्ती करा दो।"

मैंने डिविजन देखा तो सन्न रह गई।
 
'तो क्या इसकी माँ मुझसे झूठ बोल गई थी?'

मैंने असमर्थता प्रकट की। जीवन में आज तक कभी किसी अकर्मण्य छात्र या छात्रा का सिफारिश करने का मुझे इतिपूर्व अनुभव भी नहीं था पर एक दिन फिर उसकी माँ से भेंट हुई, तो उन्होंने उसी आत्मविश्वास से पुत्र की कीर्तिध्वजा फहरा दी, "बड़ा नाम हो गया है शहर में, अंग्रेज़ी गानों की प्रतियोगिता में कई इनाम जीत चुका है। लोग घुटने टेककर इसे गाना गाने बुला ले जाते हैं।"

मेरा दुर्भाग्य था कि कल, जब वह प्रतिभाशाली गायक एक ऐसा ही इनाम जीत रहा था तो मैं भी उसी सड़क से गुजरी। नहीं कह सकती कि उसने मुझे पहचानकर ही मुँह बड़ी अवज्ञा से फिरा लिया या अवधूत साथी से सिगरेट माँगने की भंगिमा में चेहरा उस ओर मोड़ लिया। साथी हथेली में धरे कागज के टुकड़े में कुछ देव-दुर्लभ सामग्री धरकर सिगरेट बना रहा था। दोनों की आँखें जवाफूल-सी लाल ललाट में चढ़ी जा रही थीं। चौराहे की उस पान की दुकान के पास और भी कुछ लड़के उन दो विलक्षण विभूतियों को मुग्ध होकर देख रहे थे। कण्ठ की मदालस हँसी, विचित्र वेशभूषा, उससे भी विचित्र केशसज्जा। सुना है कि इस नीग्रो हेयरस्टाइल का होना भी आजकल इस आधुनिकतम विदेशी संगीत-परिवेशना के लिए आवश्यक है।

मैं तेजी से आगे बढ़ गई पर बार-बार उस होनहार संगीतज्ञ के पिता का निरीह-सरल चेहरा आँखों में आ रहा था। जिस पुत्र को लेकर उन्होंने अपने वानप्रस्थी सुखी जीवन की भूमिका सँजोई थी, जिसकी दामी शिक्षा की सम्भावना को सार्थक करने में उन्हें अपनी कितनी ही आवश्यकताओं का गला घोंटना पड़ा था और आज भी सम्भवतः जिन्हें उसकी इस प्रवासी शिक्षा पर अपनी अनेक आवश्यकताओं को ताक पर रखना पड़ता है, उसे यदि वे कभी इस अवस्था में देख लें, जिसमें मैंने उसे देखा, तो उन पर क्या बीतेगी?

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