संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
छह
आजकल जब लखनऊ ग्रीष्म का कठोरतम कनटाप खाकर चकरघिन्नियाँ खा रहा है तब यह
सुनकर कि बीस वर्षों में ऐसी लवकट गर्मी इतिपूर्व कभी नहीं पड़ी, प्राण एकदम
ही कंठागत हो उठते हैं। बीस वर्ष पूर्व ऐसी ही गर्मी पड़ी थी और हम ऐसे ही
छटपटाए थे, यह तब लखनऊ में रहने पर भी आज स्मरण नहीं पड़ता। किन्तु इतना
स्मरण अवश्य पड़ता है कि तब हमारे पास आज की वे अनेक सुविधाएँ एवं साधन नहीं
थे, जो आज हमारे करतल पर हैं। जैसे कूलर, एयर कंडीशनर, फ्रिज आदि। फिर भी
प्राण ऐसे नहीं छटपटाए थे, शायद इसलिए कि आज जो हमारी नितान्त आवश्यकताएँ बन
गई हैं, वे तब हमारी दृष्टि में विलास की सामग्रियों की श्रेणी में आती थीं।
मैं तब रिवर बैंक कालोनी के एक छोटे-से फ्लैट में रहती थी। मई का महीना आरम्भ होता और रौद्र ताप प्रखर से प्रखरतम होता, तो एक बड़ा-सा घड़ा खरीदकर रेत के स्तूप में सा दिया जाता। द्विप्रहर से कुछ पूर्व खिड़कियाँद्वार बन्द कर पूरा फर्श छिड़काव से तर कर चटाई बिछा दी जाती। किसका कूलर और किसका एयर कंडीशनर ! संध्या होते ही फिर वही छिड़काव। बड़ीसी छत पर प्रत्येक फ्लैट का पूर्वनिर्धारित जमीन का मुरब्बा था, जहाँ समय पर ही छिड़काव कर मूंज की खटिकाएँ बिछ जातीं। उमस बढ़ती तो हाथ के पंखे डुलने लगते। वह उमस केवल एक ही परिवार को नहीं, अगल-बगल सोए अनेक परिवारों की सामुदायिक उमस है, यही जानकर हँसी-खुशी झेलने में ग्रीष्म की वे तपन-भरी रातें शायद, इतनी दुर्वह नहीं लगती थीं। उस पर, कभी-कभी किस्से-कहानियों का वह बाजार लगता कि लू के थपेड़े भी पराजित होकर वहीं पसर जाते।
मुझे याद है कि हमारे प्रतिवेशी परिवार की चाची, जब उस कथा-गोष्ठी का मुख्य अतिथि का आसन ग्रहण करतीं तो फरमाइशों का अन्त नहीं रहता और कभी-कभी रात के बारह बज जाते। उनकी अधिकांश कहानियों की नायिका जुहिया या चिरैया ही होती। फिर भी उसके नखशिख वर्णन में उनकी प्रखर कल्पनाशक्ति ऐसे-ऐसे सलमा-सितारे जड़ देती कि लगता, गोटेदार चुनरी के घूघट से अंजन-भरी बड़ी-बड़ी आँखों का जादू बिखेरती जुहिया या चिरैया घुघरू छमकाती अभी-अभी सामने से गुजर गई है।
कालक्रम में हमारी बीस वर्ष पूर्व की वह सहज रुचि, सहिष्णुता हमारे अनेक गुणों की भाँति आज तिरोहित हो चुकी है। हमारे अतीत का आकार एवं ऐहित्य का सम्पूर्ण ढाँचा ही आज परिवर्तित हो चुका है। अतीत एवं वर्तमान के रूपगत, गुणागत प्रभेद आज ऐसा बृहत् रूप ग्रहण कर चुका है कि बीस वर्ष पूर्व के जेठ-बैसाख से आज के जेठ-बैसाख की तुलना करने पर भी ग्रीष्मदग्ध चित्त क्षण-भर को भी इस अभिज्ञता से शान्त नहीं होता कि ऐसी गर्मी हम पहली बार नहीं झेल रहे हैं, बीस साल पहले भी झेल चुके हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि आज हमारे जनजीवन के बहिरंग में जितना ही ठाट-बाटपूर्ण आतिशय्य है, अन्तर के ऐश्वर्य का कोष है उतना ही रिक्त।
अभी चार दिन पूर्व एक परिचित बुजुर्ग से मिलने गई तो नंगे बदन, हाथ का पंखा ढुलाते वह ऐसे भुनभुना रहे थे कि कुशल पूछी तो मेरी वह धृष्टता गर्म तवे पर पड़ी जलबिदु-सी ही छनछना उठी।
“अब क्या खाक कुशल होगी! एक तो यह बला की गर्मी, उस पर दिनभर के लिए बिजली चली गई है, सुना, चार बजे आएगी। लगता है, जमाने के साथ-साथ मौसम भी बदल गए हैं, न बरसात ही वैसी रह गई है, न जाड़े, न गर्मी!..."
मैं उनसे कहना चाह रही थी कि मौसम नहीं बदले, हम ही शायद बदल गए हैं। एक दिन को भी बिजली जाती है, तो हम बौखला जाते हैं। फ्रिज बीमार होता है, तो लगता है, इससे तो हम ही बीमार पडकर गताय हो जाते। कूलर का मोटर अचल होता है तो जी में आता है, सिर पीट लें। यदि इन दुर्वह क्षणों के बीच हम अतीत के इनसे भी दुर्वह उन क्षणों का स्मरण करें, जब न हमारे तप्त कंठ सिक्त करने को फ्रिज की सशीतल बोलतें थीं. न कलर की दुर्धर्ष गर्जना थी, केवल खस की टट्टियों के ठंडे झोंके और रेत में फंसे घट की ठंडी घूट। न बिगडैल कूलर की मोटर के खराब होने का भय था न फ्रिज की अड़ियल दुलत्ती का त्रास। किन्तु अतीत का ऐसा सिंहावलोकन तब और भी हास्यास्पद लगता है जब चाचा के लड़के की बारात से लौटा जमादार बरामदा बुहारता अभी-अभी कहकर गया है, "चाचा बहुत सामान पाए हैं, बहूजी, बिजली का पंखा, रेडियो। सामान तो अउर भी भरे रहे, पर सब लौटाल ले गए-नाराज हुई गए रहे।"
"क्यों?” मैंने पूछा।
"कहे रहे, हमारी एक ही शर्त है, नौशा हमारे दुआरे हाथी पै चढ़ के आवै। सो, चाचा चिड़ियाघर गए रहे, हाथी हुई गवा रहा बुक-इसी से सम्धियाना गुसियाय गया।"
बेचारे नौशे का दुर्भाग्य था कि चिड़ियाघर का गयंद बुक हो गया था, नहीं तो उसके कथनानुसार, "शर्तिया 'फिरिज' पाए होते।"
मैं तब रिवर बैंक कालोनी के एक छोटे-से फ्लैट में रहती थी। मई का महीना आरम्भ होता और रौद्र ताप प्रखर से प्रखरतम होता, तो एक बड़ा-सा घड़ा खरीदकर रेत के स्तूप में सा दिया जाता। द्विप्रहर से कुछ पूर्व खिड़कियाँद्वार बन्द कर पूरा फर्श छिड़काव से तर कर चटाई बिछा दी जाती। किसका कूलर और किसका एयर कंडीशनर ! संध्या होते ही फिर वही छिड़काव। बड़ीसी छत पर प्रत्येक फ्लैट का पूर्वनिर्धारित जमीन का मुरब्बा था, जहाँ समय पर ही छिड़काव कर मूंज की खटिकाएँ बिछ जातीं। उमस बढ़ती तो हाथ के पंखे डुलने लगते। वह उमस केवल एक ही परिवार को नहीं, अगल-बगल सोए अनेक परिवारों की सामुदायिक उमस है, यही जानकर हँसी-खुशी झेलने में ग्रीष्म की वे तपन-भरी रातें शायद, इतनी दुर्वह नहीं लगती थीं। उस पर, कभी-कभी किस्से-कहानियों का वह बाजार लगता कि लू के थपेड़े भी पराजित होकर वहीं पसर जाते।
मुझे याद है कि हमारे प्रतिवेशी परिवार की चाची, जब उस कथा-गोष्ठी का मुख्य अतिथि का आसन ग्रहण करतीं तो फरमाइशों का अन्त नहीं रहता और कभी-कभी रात के बारह बज जाते। उनकी अधिकांश कहानियों की नायिका जुहिया या चिरैया ही होती। फिर भी उसके नखशिख वर्णन में उनकी प्रखर कल्पनाशक्ति ऐसे-ऐसे सलमा-सितारे जड़ देती कि लगता, गोटेदार चुनरी के घूघट से अंजन-भरी बड़ी-बड़ी आँखों का जादू बिखेरती जुहिया या चिरैया घुघरू छमकाती अभी-अभी सामने से गुजर गई है।
कालक्रम में हमारी बीस वर्ष पूर्व की वह सहज रुचि, सहिष्णुता हमारे अनेक गुणों की भाँति आज तिरोहित हो चुकी है। हमारे अतीत का आकार एवं ऐहित्य का सम्पूर्ण ढाँचा ही आज परिवर्तित हो चुका है। अतीत एवं वर्तमान के रूपगत, गुणागत प्रभेद आज ऐसा बृहत् रूप ग्रहण कर चुका है कि बीस वर्ष पूर्व के जेठ-बैसाख से आज के जेठ-बैसाख की तुलना करने पर भी ग्रीष्मदग्ध चित्त क्षण-भर को भी इस अभिज्ञता से शान्त नहीं होता कि ऐसी गर्मी हम पहली बार नहीं झेल रहे हैं, बीस साल पहले भी झेल चुके हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि आज हमारे जनजीवन के बहिरंग में जितना ही ठाट-बाटपूर्ण आतिशय्य है, अन्तर के ऐश्वर्य का कोष है उतना ही रिक्त।
अभी चार दिन पूर्व एक परिचित बुजुर्ग से मिलने गई तो नंगे बदन, हाथ का पंखा ढुलाते वह ऐसे भुनभुना रहे थे कि कुशल पूछी तो मेरी वह धृष्टता गर्म तवे पर पड़ी जलबिदु-सी ही छनछना उठी।
“अब क्या खाक कुशल होगी! एक तो यह बला की गर्मी, उस पर दिनभर के लिए बिजली चली गई है, सुना, चार बजे आएगी। लगता है, जमाने के साथ-साथ मौसम भी बदल गए हैं, न बरसात ही वैसी रह गई है, न जाड़े, न गर्मी!..."
मैं उनसे कहना चाह रही थी कि मौसम नहीं बदले, हम ही शायद बदल गए हैं। एक दिन को भी बिजली जाती है, तो हम बौखला जाते हैं। फ्रिज बीमार होता है, तो लगता है, इससे तो हम ही बीमार पडकर गताय हो जाते। कूलर का मोटर अचल होता है तो जी में आता है, सिर पीट लें। यदि इन दुर्वह क्षणों के बीच हम अतीत के इनसे भी दुर्वह उन क्षणों का स्मरण करें, जब न हमारे तप्त कंठ सिक्त करने को फ्रिज की सशीतल बोलतें थीं. न कलर की दुर्धर्ष गर्जना थी, केवल खस की टट्टियों के ठंडे झोंके और रेत में फंसे घट की ठंडी घूट। न बिगडैल कूलर की मोटर के खराब होने का भय था न फ्रिज की अड़ियल दुलत्ती का त्रास। किन्तु अतीत का ऐसा सिंहावलोकन तब और भी हास्यास्पद लगता है जब चाचा के लड़के की बारात से लौटा जमादार बरामदा बुहारता अभी-अभी कहकर गया है, "चाचा बहुत सामान पाए हैं, बहूजी, बिजली का पंखा, रेडियो। सामान तो अउर भी भरे रहे, पर सब लौटाल ले गए-नाराज हुई गए रहे।"
"क्यों?” मैंने पूछा।
"कहे रहे, हमारी एक ही शर्त है, नौशा हमारे दुआरे हाथी पै चढ़ के आवै। सो, चाचा चिड़ियाघर गए रहे, हाथी हुई गवा रहा बुक-इसी से सम्धियाना गुसियाय गया।"
बेचारे नौशे का दुर्भाग्य था कि चिड़ियाघर का गयंद बुक हो गया था, नहीं तो उसके कथनानुसार, "शर्तिया 'फिरिज' पाए होते।"
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