संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
पाँच
आज तक मेरा जितने भी विवाहित डॉक्टरी जोड़ों से परिचय हुआ है, एक विषमता
मैंने लगभग प्रत्येक जोड़े में पाई है। अपने ही पेशे की पत्नी से किसी-न-किसी
अंश में डॉक्टर पति का व्यक्तित्व दब अवश्य जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि
इनका दाम्पत्य जीवन विषमताओं से ही परिपूर्ण रहता है, किन्तु कुछ उसका पेशा,
कुछ क्षेत्र और कुछ नारी की पीड़ा, व्याधि-यन्त्रणा से दिन-रात का परिचय उसे
दबंग अवश्य बना देता है। दबकर रहना फिर उसके लिए सम्भव नहीं होता। इसका एक
कारण यह भी है कि समयाभाव उसे एक ओर गृहस्थी की नाना समस्याओं के लिए
पर्याप्त सुविधा नहीं दे पाता, दूसरी ओर उसमें आत्मविश्वास अन्य काम करनेवाली
नारियों की अपेक्षा अधिक आ जाता है। वह जानती है कि उसकी शिक्षा, उसका
परिश्रम, उसका अध्यवसाय किसी भी अंश में डॉक्टर पति से कुछ कम नहीं रहा है।
मैं एक ऐसे डॉक्टरी जोड़े को जानती हूँ, जो दिन-भर तो आपस में मिल नहीं पाते,
रात को थककर चूर लौटते हैं तो फिर न कहीं एक साथ स्वाभाविक दम्पतियों की
भाँति घूमने की इच्छा ही रहती है, न अवकाश। यहाँ तक कि रविवार पर भी उनका
अधिकार नहीं रहता। पति भले ही घर पर रहे, कब किसका कठिन प्रसव बेचारी पत्नी
को दिन-भर के लिए घर से गायब कर दे! उस पर, दिन-रात का देखा गया दुःख-दर्द
स्वयं डॉक्टरनी की भी नारी-सुलभ दया-माया को निर्ममता से छीन लेता है। इसी
से, जिसे मैंने एक आनन्दी-अल्हड़ मस्त किशोरी के रूप में देखा था, उसे एक
चिड़चिड़ी, झक्की, मरीजों से उलझती डॉक्टरनी के रूप में देखकर मुझे धक्का लगा
था।
दूसरी एक परिचिता डॉक्टरनी का जीवन भी, जो पहली से अपेक्षाकृत उम्र में छोटी है, अनुभव में भी, अब उसके पूर्व जीवन का विरोधाभास लगता है। पति-पत्नी, दोनों ही एक पिछड़े वर्ग के इलाके के दो विभिन्न अस्पतालों में डॉक्टर थे, किन्तु सास-ससुर का नैकट्य और उस कस्बाई ज़िन्दगी की एकरसता से बेचारी डॉक्टरनी ऊबने लगी। कुछ वर्ष पूर्व वह दिल्ली के रंगीन, स्वच्छन्द जीवन-झूले की लुभावनी पैंगों में झूल चुकी थी। डॉक्टरी सहशिक्षा ने बड़ी सुगमता से जीवन-सहचर भी मेडिकल कालेज में ही जुटा दिया। वैसे भी डॉक्टरनियों के लिए ऐसा स्वयंवर प्रायः एक प्रकार से अनिवार्य हो उठता है। वहीं प्रेम हुआ, पन्द्रह मिनट में माला बदली, विवाह। किन्तु उस उमंग-भरे प्रणय के जोश का इतनी त्वरा से अवसान हो जाएगा, यह शायद दोनों ने नहीं सोचा था। इसी से दोनों विदेश जाने की महत्त्वाकांक्षा सैंतते, लगी-लगाई नौकरी पर लात मार फिर दिल्ली आ गए। किन्तु, कभी-कभी विधाता भी बड़ी क्रूरता से मानव को धोबी के कुत्ते की भाँति न घर का रहने देता है न घाट का। आते ही दोनों समझ गए कि अब विदेश जाना जितना कठिन है उतना ही कठिन है स्वदेश में नौकरी पाना। फलतः, पति अब कहीं और अपने पेशे में विशेषता हासिल कर रहा है और डॉक्टरनी पत्नी एक सामान्य-सी नौकरी का चुग्गा चरती अपनी सारी कुंठा अभागिनी मरीजाओं पर उतार रही है। इस बीच, वह जननी भी बन गई है, किन्तु सन्तान को पाल रही है उसकी माँ, जो स्वयं अपने पति, पुत्र, पुत्रवधू का मोह त्याग पुत्री की गृहस्थी गले से लगाए उसे प्रत्येक सुविधा प्रदान करने की चेष्टा कर रही है। हाँ, माँ के रहते ही मातृहीना बन गई सन्तान को छठे-छमाहे डॉक्टरनी जननी का वात्सल्यपूर्ण लाड़-दुलार मिल जाता है, किन्तु पति को क्या मिलता है?
वार्धक्य में कुंठित, दाम्पत्य सुख वंचित ऐसे जोड़े यौवन के किन मीठे स्वप्नों में डूब पाएँगे? उसी समय तो अतीत की यह संचित पूँजी वार्धक्य के दारिद्र्य में काम आती है!
आज से सौ वर्ष पूर्व जन्मी भारत की प्रथम डॉक्टरनी आनन्दी गोपाल की अद्भुत पतिपरायणता, निष्ठा एवं सहिष्णुता हमारी आज की पीढ़ी को .... बहुत कुछ सिखा सकती है-कठोर जीवन-सहचर की ताड़ना भी जिसके मृदु स्वभाव को अन्त तक पराजित नहीं कर पाई, जिसने जीवनभर पति की आज्ञा को कानून मानकर झेला और विदेश की शिक्षा भी जिसे अहं से मदमत्त नहीं कर पाई। दस वर्ष की आनन्दी और तीस वर्ष का गोपाल राव। आनन्दी सामान्य शिक्षा ही प्राप्त कर पाई थी कि विवाह हो गया। पति की एक ही शर्त थी कि वह अपनी पत्नी को उच्च शिक्षा देगा। किन्तु विवाह हुआ और आरम्भ हुआ संघर्ष। सास कहती, घर का काम कर, उधर पति कहता, मेरे लौटने तक पाठ मुखस्थ कर सुनाना। बेचारी किसकी सुनती? माँ ने कहा था, सास की आज्ञा मानना और पति को देवता मानकर पूजना। पति लौटता, और पाठ अधूरा देख, उसे पीट-पाटकर डाल देता। वह जोर-जोर से रोती तो पासपड़ोस से ताक-झाँक होने लगती।
“उहँ गोपाल राव अपनी पत्नी को पीट रहा है, कौन पति भला अपनी पत्नी को नहीं पीटता?" कहकर पड़ोसी द्वार बन्द कर लेते। किन्तु, आनन्दी ने निश्चय कर लिया कि वह अब नहीं पिटेगी। जैसे भी हो, सास को भी प्रसन्न कर लेगी और पति को भी। पत्नी की तीव्र बुद्धि देखकर गोपाल राव उसे पारिवारिक रूढ़ि-बन्धनों से मुक्त करा बम्बई ले आए। ऊँची एड़ी की लाल-लाल जूतियाँ खरीद दी और बम्बई के लोग उस अनूठे जोड़े को मुड़मुड़कर देखते। तीस के लगभग का गोपाल राव घनी मूंछे, रौबदार चेहरा। पीछे-पीछे वह साँवली, आकर्षक, विस्मय-भरी आँखोंवाली नौगजी साड़ी को किसी प्रकार सँभालती, लाल जूतियाँ खटरपटर करती बालिका वधू आनन्दी।
पढ़ने से अब उसे अनोखा लगाव हो गया था। पहले पति की मार का भय था, अब ज्ञानप्राप्ति का आनन्द।
एक दिन पति ने कहा, “आनन्दी, मैं तुझे डॉक्टरी पढ़ने अमेरिका भेज रहा हूँ, हम दोनों एक साथ नहीं जा सकते। मैं यहाँ नौकरी कर तुझे खर्च भेजूंगा।"
आनन्दी बहुत रोई-कलपी। समाज में भयानक खलबली मची। जब किसी हिन्दू गृह के पुत्र का ही विदेश जाना वर्जित था तब नारी के लिए सामाजिक नियम कितने कठोर रहे होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। किन्तु गोपाल राव अपने निश्चय पर दृढ़ रहे, आनन्दी अमेरिका गई।
गोपाल राव खर्चा भेजते रहे, किन्तु साथ ही लम्बे-लम्बे पत्रों में बीसियों हिदायतें भी भेजते-क्या खाना है, क्या नहीं, कैसे अपने धर्म और जाति की रक्षा करनी है। फिर अन्त में उनके पति का पौरुष जाग्रत् होकर डंक दे देता, "तुम तो अब बहुत बड़ी आदमी बन गई हो आनन्दी, तुम्हारे सामने मैं क्या हूँ!"
आनन्दी विदेश में भी नौगजी साड़ी पहनकर कालेज जाती, एकान्त में पति के कटाक्षपूर्ण पत्र पढ़कर रो लेती किन्तु पति के प्रति प्रेम, विनम्रता में रंचमात्र भी अन्तर नहीं आने देती।
एक दिन वह डॉक्टरनी बन ही गई। पति का स्वप्न पूरा हुआ। तब ही उसने समाचारपत्र में पति के विदेश-आगमन और उनके किसी व्याख्यान का समाचार पढ़ा। उसका चित्त विषाद से अवसन्न हो गया। यहाँ आकर भी उससे नहीं मिले, यह किसी अपराध का दंड था और कैसा अभिमान? उसी दिन वह एक पार्टी से लौटकर अपने कमरे में आई।
कई दिनों से जीर्ण ज्वर आ रहा था, खाँसी आ रही थी, दुर्बल पद रखती वह कमरे में गई तो देखती क्या है कि कुर्सी पर कोई बैठा है, उसकी ओर पीठ किए। भगवा वस्त्रों में स्वयं गोपाल राव! दोनों की आँखें चार हुईं, धीरे-धीरे वह बढ़ी। विदेश में रहकर भी वह नहीं भूली थी कि पत्नी का स्थान पति के चरणों में है। गोपाल राव के दोनों पैर पकड, उसने उन्हें असिक्त कर दिया। उधर गोपाल राव उसे तीक्ष्ण दृष्टि से देखते, जैसे उसके अन्तर की एक-एक परत खोल-खोलकर सूक्ष्म परीक्षण कर रहे थे। अन्त में उस सती का तेज, उसकी पति-परायणता उन्हें विगलित कर गई। लैंडलेडी का पूरा परिवार इस बीच पति-पत्नी के इस अदभुत मिलन को देखने जुट गया था। पूर्व और पश्चिम के बीच भारत का वह अनपम रत्न अपनी सहज स्वाभाविकता से दमक उन विदेशियों को भी आश्चर्यचकित कर गया। भारत की प्रथम महिला डॉक्टरनी को लेकर गोपाल राव स्वदेश लौटे। विरोध, वेदना, विरह के बीच दृढ़ रहकर आनन्दी ने प्रमाणित कर दिया कि चाहने पर भारत की नारी, सबकुछ करने में समर्थ है। किन्तु, दुर्भाग्य से, कठिनता से अर्जित अपनी इस विद्या से वह भारतवासियों को लाभान्वित नहीं कर सकी। विदेश से डॉक्टरी की पदवी तो अर्जित की, किन्तु साथ ले आई राजरोग क्षय। समाज ने उसे अब भी क्षमा नहीं किया था। संकुचित सामाजिक दृष्टिकोण का भोग बनी भारत की यह प्रथम डॉक्टरनी स्वयं उचित परिचर्या के अभाव में असमय ही काल का ग्रास बन गई। यदि, आज भारत की नारी पुरुष के साथ-साथ गर्वोन्नत मस्तक लेकर खड़ी हो सकी है तो उसका समग्र श्रेय आनन्दी जैसी अतीत की उन विलक्षण महिलाओं को है, जिन्होंने हमें यह अमूल्य दीक्षामन्त्र थमाया कि गर्वोन्नत मस्तक उठाने से पहले उसे झुकाना सीखना चाहिए।
दूसरी एक परिचिता डॉक्टरनी का जीवन भी, जो पहली से अपेक्षाकृत उम्र में छोटी है, अनुभव में भी, अब उसके पूर्व जीवन का विरोधाभास लगता है। पति-पत्नी, दोनों ही एक पिछड़े वर्ग के इलाके के दो विभिन्न अस्पतालों में डॉक्टर थे, किन्तु सास-ससुर का नैकट्य और उस कस्बाई ज़िन्दगी की एकरसता से बेचारी डॉक्टरनी ऊबने लगी। कुछ वर्ष पूर्व वह दिल्ली के रंगीन, स्वच्छन्द जीवन-झूले की लुभावनी पैंगों में झूल चुकी थी। डॉक्टरी सहशिक्षा ने बड़ी सुगमता से जीवन-सहचर भी मेडिकल कालेज में ही जुटा दिया। वैसे भी डॉक्टरनियों के लिए ऐसा स्वयंवर प्रायः एक प्रकार से अनिवार्य हो उठता है। वहीं प्रेम हुआ, पन्द्रह मिनट में माला बदली, विवाह। किन्तु उस उमंग-भरे प्रणय के जोश का इतनी त्वरा से अवसान हो जाएगा, यह शायद दोनों ने नहीं सोचा था। इसी से दोनों विदेश जाने की महत्त्वाकांक्षा सैंतते, लगी-लगाई नौकरी पर लात मार फिर दिल्ली आ गए। किन्तु, कभी-कभी विधाता भी बड़ी क्रूरता से मानव को धोबी के कुत्ते की भाँति न घर का रहने देता है न घाट का। आते ही दोनों समझ गए कि अब विदेश जाना जितना कठिन है उतना ही कठिन है स्वदेश में नौकरी पाना। फलतः, पति अब कहीं और अपने पेशे में विशेषता हासिल कर रहा है और डॉक्टरनी पत्नी एक सामान्य-सी नौकरी का चुग्गा चरती अपनी सारी कुंठा अभागिनी मरीजाओं पर उतार रही है। इस बीच, वह जननी भी बन गई है, किन्तु सन्तान को पाल रही है उसकी माँ, जो स्वयं अपने पति, पुत्र, पुत्रवधू का मोह त्याग पुत्री की गृहस्थी गले से लगाए उसे प्रत्येक सुविधा प्रदान करने की चेष्टा कर रही है। हाँ, माँ के रहते ही मातृहीना बन गई सन्तान को छठे-छमाहे डॉक्टरनी जननी का वात्सल्यपूर्ण लाड़-दुलार मिल जाता है, किन्तु पति को क्या मिलता है?
वार्धक्य में कुंठित, दाम्पत्य सुख वंचित ऐसे जोड़े यौवन के किन मीठे स्वप्नों में डूब पाएँगे? उसी समय तो अतीत की यह संचित पूँजी वार्धक्य के दारिद्र्य में काम आती है!
आज से सौ वर्ष पूर्व जन्मी भारत की प्रथम डॉक्टरनी आनन्दी गोपाल की अद्भुत पतिपरायणता, निष्ठा एवं सहिष्णुता हमारी आज की पीढ़ी को .... बहुत कुछ सिखा सकती है-कठोर जीवन-सहचर की ताड़ना भी जिसके मृदु स्वभाव को अन्त तक पराजित नहीं कर पाई, जिसने जीवनभर पति की आज्ञा को कानून मानकर झेला और विदेश की शिक्षा भी जिसे अहं से मदमत्त नहीं कर पाई। दस वर्ष की आनन्दी और तीस वर्ष का गोपाल राव। आनन्दी सामान्य शिक्षा ही प्राप्त कर पाई थी कि विवाह हो गया। पति की एक ही शर्त थी कि वह अपनी पत्नी को उच्च शिक्षा देगा। किन्तु विवाह हुआ और आरम्भ हुआ संघर्ष। सास कहती, घर का काम कर, उधर पति कहता, मेरे लौटने तक पाठ मुखस्थ कर सुनाना। बेचारी किसकी सुनती? माँ ने कहा था, सास की आज्ञा मानना और पति को देवता मानकर पूजना। पति लौटता, और पाठ अधूरा देख, उसे पीट-पाटकर डाल देता। वह जोर-जोर से रोती तो पासपड़ोस से ताक-झाँक होने लगती।
“उहँ गोपाल राव अपनी पत्नी को पीट रहा है, कौन पति भला अपनी पत्नी को नहीं पीटता?" कहकर पड़ोसी द्वार बन्द कर लेते। किन्तु, आनन्दी ने निश्चय कर लिया कि वह अब नहीं पिटेगी। जैसे भी हो, सास को भी प्रसन्न कर लेगी और पति को भी। पत्नी की तीव्र बुद्धि देखकर गोपाल राव उसे पारिवारिक रूढ़ि-बन्धनों से मुक्त करा बम्बई ले आए। ऊँची एड़ी की लाल-लाल जूतियाँ खरीद दी और बम्बई के लोग उस अनूठे जोड़े को मुड़मुड़कर देखते। तीस के लगभग का गोपाल राव घनी मूंछे, रौबदार चेहरा। पीछे-पीछे वह साँवली, आकर्षक, विस्मय-भरी आँखोंवाली नौगजी साड़ी को किसी प्रकार सँभालती, लाल जूतियाँ खटरपटर करती बालिका वधू आनन्दी।
पढ़ने से अब उसे अनोखा लगाव हो गया था। पहले पति की मार का भय था, अब ज्ञानप्राप्ति का आनन्द।
एक दिन पति ने कहा, “आनन्दी, मैं तुझे डॉक्टरी पढ़ने अमेरिका भेज रहा हूँ, हम दोनों एक साथ नहीं जा सकते। मैं यहाँ नौकरी कर तुझे खर्च भेजूंगा।"
आनन्दी बहुत रोई-कलपी। समाज में भयानक खलबली मची। जब किसी हिन्दू गृह के पुत्र का ही विदेश जाना वर्जित था तब नारी के लिए सामाजिक नियम कितने कठोर रहे होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। किन्तु गोपाल राव अपने निश्चय पर दृढ़ रहे, आनन्दी अमेरिका गई।
गोपाल राव खर्चा भेजते रहे, किन्तु साथ ही लम्बे-लम्बे पत्रों में बीसियों हिदायतें भी भेजते-क्या खाना है, क्या नहीं, कैसे अपने धर्म और जाति की रक्षा करनी है। फिर अन्त में उनके पति का पौरुष जाग्रत् होकर डंक दे देता, "तुम तो अब बहुत बड़ी आदमी बन गई हो आनन्दी, तुम्हारे सामने मैं क्या हूँ!"
आनन्दी विदेश में भी नौगजी साड़ी पहनकर कालेज जाती, एकान्त में पति के कटाक्षपूर्ण पत्र पढ़कर रो लेती किन्तु पति के प्रति प्रेम, विनम्रता में रंचमात्र भी अन्तर नहीं आने देती।
एक दिन वह डॉक्टरनी बन ही गई। पति का स्वप्न पूरा हुआ। तब ही उसने समाचारपत्र में पति के विदेश-आगमन और उनके किसी व्याख्यान का समाचार पढ़ा। उसका चित्त विषाद से अवसन्न हो गया। यहाँ आकर भी उससे नहीं मिले, यह किसी अपराध का दंड था और कैसा अभिमान? उसी दिन वह एक पार्टी से लौटकर अपने कमरे में आई।
कई दिनों से जीर्ण ज्वर आ रहा था, खाँसी आ रही थी, दुर्बल पद रखती वह कमरे में गई तो देखती क्या है कि कुर्सी पर कोई बैठा है, उसकी ओर पीठ किए। भगवा वस्त्रों में स्वयं गोपाल राव! दोनों की आँखें चार हुईं, धीरे-धीरे वह बढ़ी। विदेश में रहकर भी वह नहीं भूली थी कि पत्नी का स्थान पति के चरणों में है। गोपाल राव के दोनों पैर पकड, उसने उन्हें असिक्त कर दिया। उधर गोपाल राव उसे तीक्ष्ण दृष्टि से देखते, जैसे उसके अन्तर की एक-एक परत खोल-खोलकर सूक्ष्म परीक्षण कर रहे थे। अन्त में उस सती का तेज, उसकी पति-परायणता उन्हें विगलित कर गई। लैंडलेडी का पूरा परिवार इस बीच पति-पत्नी के इस अदभुत मिलन को देखने जुट गया था। पूर्व और पश्चिम के बीच भारत का वह अनपम रत्न अपनी सहज स्वाभाविकता से दमक उन विदेशियों को भी आश्चर्यचकित कर गया। भारत की प्रथम महिला डॉक्टरनी को लेकर गोपाल राव स्वदेश लौटे। विरोध, वेदना, विरह के बीच दृढ़ रहकर आनन्दी ने प्रमाणित कर दिया कि चाहने पर भारत की नारी, सबकुछ करने में समर्थ है। किन्तु, दुर्भाग्य से, कठिनता से अर्जित अपनी इस विद्या से वह भारतवासियों को लाभान्वित नहीं कर सकी। विदेश से डॉक्टरी की पदवी तो अर्जित की, किन्तु साथ ले आई राजरोग क्षय। समाज ने उसे अब भी क्षमा नहीं किया था। संकुचित सामाजिक दृष्टिकोण का भोग बनी भारत की यह प्रथम डॉक्टरनी स्वयं उचित परिचर्या के अभाव में असमय ही काल का ग्रास बन गई। यदि, आज भारत की नारी पुरुष के साथ-साथ गर्वोन्नत मस्तक लेकर खड़ी हो सकी है तो उसका समग्र श्रेय आनन्दी जैसी अतीत की उन विलक्षण महिलाओं को है, जिन्होंने हमें यह अमूल्य दीक्षामन्त्र थमाया कि गर्वोन्नत मस्तक उठाने से पहले उसे झुकाना सीखना चाहिए।
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