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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


चार


आज जब समाचारपत्र के एक समाचार पर दृष्टि गई तो पहले विशेष जिज्ञासा नहीं हुई। 'नौकरानी माल ऐवेन्यू मे, मालकिन की पन्द्रह हजार की सम्पत्ति लेकर फरार। ऐसे समाचार तो आजकल नित्य ही टके के बीस बिक रहे हैं। हमारी आँखों को अब लाखों की डकैतियों के ऐसे समाचार ही बाँध पाते हैं, जहाँ दुःसाहसी युवा दस्यु ढिशुम-ढिशुम कर ठेठ फ़िल्मी अन्दाज में धुआँधार दाएं-बाएँ गोलियाँ बरसा, बैंक के किसी वरिष्ठ अधिकारी या खजांची को हाथमुँह बाँध गुसलखाने में बन्द कर देते हैं। गुरखा संगीनधारी प्रहरी को धाड़ से गोली दाग नन्ही बटेर-सा उड़ा देते हैं, या फिर चलती रेलगाड़ी में घुस किसी कर्मपटु कुली के सधे हाथों की सफाई से फटाफट यात्रियों की जेवर-भी पेटियाँ खिड़की से बाहर फेंक, स्वयं हवा के तेज झोंके से उसी खिड़की से सरसराते गायब हो जाते हैं। गाड़ी फिर ऐसे चल पड़ती है और चलती रहती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। न दस्युओं को पकड़ने का प्रयत्न न उस अरण्य उदधि में सदा के लिए खो गए जेवर की पेटियों के मिलने की आशा!

यह हुआ समाचार और इसे कहते हैं डकैती! दस-पन्द्रह हजार की डकैती का यह समाचार भी मुझे इसी से नगण्य लगता था, किन्तु दस्युरानी का नाम पढ़ा तो चौंकी। कहीं यह वही तो नहीं थी-श्रीमती घोष? अपना यही नाम तो उसने मुझे बताया था? यदि थी तो मैंने मन ही मन, कुछ क्षणों की परिचिता उस श्रीमती घोष को शत-सहस्र धन्यवाद दिए कि उन्होंने मुझे पुनःदर्शन देने की कृपा नहीं की। यदि देती और मैं उन्हें अपनी पुत्री के पास भेज देती तो क्या पता, उनके हाथ की सफाई का चमत्कार मुझे भी अवश बना जाता।

पिछली गर्मियों की बात है, मैं दोपहर में लेटी ही थी कि घंटी बजी। द्वार खोला तो देखा, स्वच्छ बिना किनारे की मर्दानी धोती और श्वेत ब्लाउज में एक महिला खड़ी है। हाथ में एक प्लास्टिक का झोला था। मैंने पहले सोचा, शायद साबुन, अगरबत्ती या शैंपू बेचनेवाली कोई महिला है, प्रायः ही ऐसी फेरीवालियाँ आती रहती हैं।

मैं कुछ पूछती, इससे पूर्व ही उसने हँसकर बंगला में पूछा, “आमी आशिते पारी?...क्या मैं आ सकती हूँ?" कुछ उसकी स्वच्छ वेशभूषा, कुछ उस आकर्षक हँसी का आग्रह मैं टाल नहीं पाई।

"क्या मुझसे कुछ काम है?” मैंने पूछा।

“जी हाँ, सुना, आप बहुत अच्छी बंगला बोलती हैं, इसी से इतनी दूर से आई हूँ।"

“मैं बंगला जानती हूँ, यह आप कैसे जान गईं?"

वह फिर हँसी, “मेरे मामा बाबू बंगाली क्लब में आपका शरत्चन्द्र का बंगला भाषण सुन आए थे..."

मैंने देखा, प्रौढ़ा होने पर भी उस अपरिचिता का चेहरा किसी युवती-सा कसा-फंसा था। कहीं भी एक झुरी नहीं, नुकीले तेवर और रौबदार मुखमुद्रा, फिर भी वैधव्य की वेशभूषा जैसे उस चेहरे से मेल नहीं खा रही थी। पहली ही दृष्टि में मुझे उन बड़ी-बड़ी आँखों में भी कुछ अटपटा-सा भाव लगा था।

"मैं बड़ी दुखियारी हूँ," इसी संक्षिप्त अप्रत्याशित भूमिका के साथ सहसा वह फूट-फूटकर रोने लगी तो मैं अप्रस्तुत हो गई। “आपनार पाये पड़ी, कोथाओ ऐकटा चाकरी जोगाड़ करे दीन।...आपके पाँव पड़ती हूँ, कहीं एक नौकरी जुटा दीजिए-मैं बर्तन भी मल लूँगी, खाना बना लूँगी, कपड़े धो लूँगी, बस सम्भ्रान्त घर हो। इज्जत की भूखी हूँ, बदले में कुछ नहीं चाहिए, केवल दो जून खाना और तन ढकने को दो जोड़ी कपड़े।"

इस युग में ऐसा उदार प्रस्ताव! जबकि बर्तन मलनेवाली महरियाँ भी कमर पर हाथ धरकर पूछने लगी हैं क्या तनखा मिलेगी बहूजी, बर्तन मले का बीस रुपया लेब, झाड़-पोंछा करे दस अलग, कपड़ा धुलाई दस....

'कहाँ रहती तो?' मैंने पूछा।

“लाटूश रोड में। एक दूर सम्पर्क के मामा हैं, पिता रेलवे में थे, विवाह भी एक लोको कर्मचारी से हुआ था। उसे मिरगी आती थी, रेल ही में कटकर मर गया। अब असहाय हूँ।"

“बाहर जाओगी? मेरी पुत्री चंडीगढ़ में है, वहाँ भेज सकती हूँ।" मैंने पूछा।

'ओ माँ, जाबो ना कैनो? निश्चय जाबो। अरी माँ, जाऊँगी क्यों नहीं, अवश्य जाऊँगी।" उसने लपककर असीम कृतज्ञता के आवेश में मेरे दोनों हाथ झकझोर दिए, “मैं कल ही मामा बाबू के साथ अपना सामान लेकर आ जाऊँगी। वह भी आपसे मिल लेंगे, पर एक कृपा करनी होगी..." वह बड़े स्नेहसिक्त अधिकार से मुस्कराई।

"क्या?"

"दस रुपए यदि कृपा कर दे दें तो कल साबुन खरीद कपड़े धो-धा लूँगी, मैले कपड़े लेकर कैसे आ सकती हूँ आपके यहाँ? फिर रिक्शावाला भी लाटूश रोड से यहाँ तक के पूरे तीन रुपए लेगा..."

मैंने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं एक सर्वथा अनजान महिला को दस का नोट थमा रही हूँ।

नोट थैले में डाल वह जाने को उद्यत हुई, फिर सहसा ठिठक गई, "दयामयी, आर ऐकटा अनुरोध राखते हौबे...दयामयी, एक और अनुरोध रखना होगा. देखिए ना, पेटीकोट की क्या दुरवस्था हो गई है।" साड़ी उठाकर उसने पैबन्द लगा जीर्ण पेटीकोट दिखाया, “आप यदि दस रुपए और दे दें तो दो पेटीकोट सिलाती लाऊँ, मामा की लड़की सिल देगी। ऐसी अवस्था मेरी हो गई है अब कि भीख भी माँगनी पड़ रही है।" फिर वह अपनी उन बड़ी-बड़ी गाय-सी आँखों से आँसू टपकाती सिर झुकाए खड़ी हो गई।

नारी भी नारी को कभी, कितनी सुगमता से, केवल कुछ आँसू की बूंदें टपका, अपनी तर्जनी पर नचा लेती है! मैंने दूसरा नोट भी थमा दिया। वह दिन है और आज का दिन है, श्रीमती घोष की आकर्षक श्यामल मुखश्री फिर देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ। शायद उनके मैले कपड़ों की गठरी बहुत दिनों से संचित मालिन्य से मलिन थी और एक साल में भी बेचारी मैल नहीं छुटा पाई। अपनी मूर्खता मैंने अपने ही तक सीमित रखी। कहती भी क्या? पर आज वह परिचित नाम पढ़ा तो मूर्खता का मेरा नासूर फिर रिसने लगा। अब तो इस छलनामयी का चेहरा भी ठीक से याद नहीं है, किन्तु बाएँ कपोल पर बड़ा-सा मस्सा, बीच ललाट पर लम्बा-तिरछा घाव और बड़ी-बड़ी आँखों के दुर्दिन में सदा बरसने को तत्पर उस अभिनयकुशला नटी के आँसू, मुझे उतनी ही प्रखरता से याद हैं, जितने साबुन-पेटीकोट खरीदने को दिए गए दस-दस के दो नोट!

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