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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


अट्ठाईस


उत्तर-दक्षिण संगम द्वारा आयोजित शास्त्रीय संगीतानुष्ठान में जो भाग्यशाली श्रोता उपस्थित थे, उन्होंने निश्चय ही यह अनुभव किया होगा कि उस दिन का संगीत केवल कानों के सुनने के लिए ही नहीं था, अंतर स्थित श्रवणेन्द्रियों के लिए अधिक था। लखनऊ के संगीत-रसिक श्रोता, उत्तर-दक्षिण के इस अपूर्व आयोजन के लिए सदा कृतज्ञ रहेंगे। कलाकार थे श्री भीमसेन जोशी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसे लब्धप्रतिष्ठ संगीतज्ञ जिस सांगीतिक जलसे का पौरोहित्य करें, उसकी तुलना अन्य किसी अनुष्ठान से नहीं की जा सकती।

श्री भीमसेन जोशी की गणना आज किराना घराने के सर्वश्रेष्ठ गायकों में की जाती है। इस विशिष्टता को अर्जित करने में निर्झर की-सी स्वच्छन्द जलधार श्रोतस्विनी बहाने में समर्थ इस अद्भुत कलाकार के नैपुण्य के पीछे है कठोर परिश्रम का सुदीर्घ इतिहास। संगीत इन्हें घुट्टी में मिला था। पितामह भीमाचार्य थे वास्तव में संगीत-साधक, माँ का कंठ भी था अत्यन्त मधुर। दस वर्ष की अल्पायु ही में इनके पिता ने इन्हें गुरु-चरणों में बिठा दिया।

आर्थिक अवस्था सुविधा की न होने से जब पिता को आजीविका संधान में बाहर जाना पड़ा, तब ही बालक भीमसेन संगीत की खोज में घर छोड़कर भाग गए। पिता इन्हें ढूँढ़कर लाए, किन्तु संगीतप्रेमी यायावर पुत्र को बाँधकर नहीं रख पाए। इस बार भीमसेन न जाने कहाँ-कहाँ भटके, जालंधर, कलकत्ता, लखनऊ, किन्तु कोई भी गुरु इस धनहीन शिष्य को गंडा बाँधने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब ही मिल गए प्रख्यात संगीतज्ञ सवाई गन्धर्व। हीरे ने हीरे को पहचाना और उसी गुरु ने योग्य शिष्य की प्रतिभा को ऐसे सँवारा कि चालीस वर्ष की अवस्था में ही भीमसेन जोशी भारत के सर्वश्रेष्ठ गायकों की अग्रणी पंक्ति में आ गए। कोई भी 'म्यूजिक कान्फ्रेंस' उनके बिना न तब सम्पूर्ण थी न अब है।

शास्त्रीय संगीत के 'लौंग प्लेइंग' रिकार्डों के आज सबसे लोकप्रिय कलाकारों में श्री भीमसेन जोशी का नाम सर्वप्रथम आता है। उनकी विशेषता है उनका देवदत्त गुरु गम्भीर कंठ। वर्षों की साधना ने उस गम्भीर स्वर को भी आज बेंत-सा लचीला बना दिया है। उनका श्वास-प्रश्वास पर यही अमानवीय अधिकार उनकी अपूर्व तानों में प्रतिपल मुखरित हो श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर उठता है। खयाल गायकी में ही उनके कंठ का अनुशासित गाम्भीर्य सर्वोत्कृष्ट रूप में निखरता है। राग भी उन्हें वे ही प्रिय हैं, जिन्हें संगीतशास्त्र ने प्रातिनिधिक महत्त्व दिया है जिनमें विस्तार की सुवृहत् सम्भावना है। उन्हीं के रूपायन में, विस्तार में वह दिव्य गम्भीर कंठ, जब बाजीगरी चातुर्य से तानों की, बोलतानों की व्यूह रचना करता है तो 'हरिअनन्त, हरि कथा अनंता' पंक्ति उनके गायन में साकार हो उठती है।

पाश्चात्य संगीत की भाँति, भारतीय संगीत में केवल संहृति या 'हार्मनी' को ही महत्त्व नहीं दिया जाता। उसके विश्लेषण को, व्यापकता को मूर्च्छना, श्रुति, यति एवं गमक से कैसे सँवारा जाता है, यह बारीकी, यह निपुणता श्री जोशी के गायन में विशेष दृष्टव्य हैं। विभिन्न लयों के सुन्दर रूप में पारस्परिक मिलन को 'यति' कहते हैं। इसके भेदों में 'स्रोतोगता' या 'नद प्रवाहस्वरूपा' एवं मृदंगयति अर्थात् प्रकार बहुल एवं सर्वाधिक वक्र ये दो रूप इनके गायन को प्रतिपल विभूषित करते हैं चाहे वह ख्याल हो, टप्पा हो, ठुमरी हो या भजन।

उस दिन के आयोजन का प्रथम निवेदन था अभोगी में। वैसे श्रोताओं में कुछ का आग्रह था, वे दरबारी गाएँ। मेरी स्वयं यही इच्छा थी, किन्तु शायद पहले ही उनके पास कुछ श्रोताओं की फरमाइशें पहुँच चुकी थीं। प्रायः पौन घंटा, जिस सतेज, स्वच्छन्द उदात्त कंठ से, उन्होंने उस राग का विस्तार रूपायन प्रतिपादित किया, उसका वर्णन करने में लेखनी कभी सक्षम नहीं हो सकती।

जैसा मैंने उनका गायन सुन सदैव अनुभव किया है, उनके संगीत की भाषा है केवल प्राणों की। हारमोनियम पर श्री मनोहरस्वरूप का योगदान, विशेष रूप से उल्लेखनीय था। एक सुनिपुण हारमोनियम वादक को एक मँजेसधे कलाकार के अनुरूप पाकर बड़ा आनन्द हुआ, क्योंकि प्रायः ही सिद्ध गायक के कंठ की बाजीगरी हारमोनियम पर फहराने में कभी-कभी कुशल वादक भी ठोकर खाकर गिर पड़ता है। तबले पर थे श्री मोहन धुखे। उनके आत्मविश्वास को भी आरम्भ से अन्त तक सक्षम गायकी ने नहीं सहमाया।

विलम्बित एवं द्रुत में खयाल परिवेशना समाप्त कर श्री जोशी पूर्णतया रंग में गा चुके थे। मुझे प्रायः ही लगता है कि कलाकार जितना ही मँजा एवं कुशल हो, जमने में अपने सुकंठ के लिए समुचित वातावरण बनाने में उसे उतना ही अधिक समय लगता है। इसके बाद संगीत श्रोतस्विनी निरन्तर ढाई घंटे तक अमृतवृष्टि करती बहती रही। 'पिया तो मानत नाही', 'बाजूबंद खुल खुल जाए' कैसा आश्चर्य था कि उस कंठ में कभी अब्दुल करीम खाँ के कंठ की आबेहूबखनक प्राण झनझना जाती, कभी फैयाज खाँ के मधुर कंठ का वही मोहक बदलता गिरगिटी रंग, और फिर अनूठे गायक का सर्वथा अनूठा अन्दाज।

गायन में भी अभिनय कभी-कभी कितना प्राणवान होकर निखरता है! ऊर्ध्वमुखी मुट्ठी हवा में उछालकर बोलतान को आड़ी-तिरछी वक्र गति को किसी नदी की वेगवती बलखाती धारा की ही भाँति सम पर लाकर बिखेर देती और अनायास ही मुग्ध श्रोताओं के कंठ से निकली 'वाह' ध्वनि, दीर्घ श्वास-सी रवीन्द्रालय में गमक उठती।

अन्त में उन्होंने प्रस्तुत किया अपना वह प्रख्यात भजन, जो ब्रह्मानन्द का होने पर भी आज भीमसेन जोशी का ही बनकर रह गया है-'जो भजै हरि को सदा, सो परम पद पाएगा...।'

भैरवी क्या किसी भी भजन में इतनी मीठी बनकर टहूकी होगी?

अभी डॉ. सुशीला मिश्रा के 'पायनियर' में सद्यःप्रकाशित एक पठनीय लेख में पढ़ रही थी कि अपने इस दिव्य कंठशिल्पी पुत्र के इसी भजन के लिए कभी उनके पिता ने कहा था, "मेरी यही इच्छा है कि जब मेरा अन्तिम समय आए, तो या मैं ईश्वर के ध्यान में मग्न रहूँ या अपने पुत्र के इसी भैरवी निबद्ध भजन को सुनते-सुनते आँखें मूंदूं।"

अन्त में लखनऊ की महिला श्रोताओं से मेरा एक विनम्र निवेदन है कि इस स्तर के संगीतानुष्ठानों में उपस्थित होने का सुअवसर जुटे तो उन्हें कुछ घंटों के लिए हाथ की सलाइयों और ऊन के गोले के मोह से मुक्त होना चाहिए। जिस भजन के लिए उनके पिता ने ऐसी कामना की हो उसे हम 'दो। सीधे, दो उल्टे, आगे फन्दा लेकर दो घर एकसाथ' आदि बुनती बुनखट सलाइयाँ चलाती, मुँह से निरर्थक 'वाह' कह सात-आठ तालियाँ भी बजा दें, तो ऐसे महान् कलाकार का हम सम्मान नहीं करतीं। भीमसेन जोशी का गायन केवल कानों ही के लिए नहीं है सर्वांग निश्चेष्ट हो, तब ही हम उनके कंग की अमृत पूँट को घुटक सकती हैं, सलाइयाँ खटखटाकर नहीं।

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