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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


सत्ताईस


लखनऊ नगर सौष्ठव अभियान ने जहाँ अनेक जनसंकुल फुटपाथों को झाड़बुहार दर्शनीय बनाया है, वहीं पर उनके कुछ अधिक उत्साह ने पैदल चलनेवालों की समस्या उसी हद तक बढ़ा भी दी है। सन्ध्याकालीन हजरतगंजभ्रमण कभी भी इतना थकानप्रद प्रतीत नहीं होता था। चौराहा पार करते ही जंगलों से समाकीर्ण पथ के भीतर अनिच्छा से बन्दी बने पर्यटकों के चेहरे हठात् ऐसे मातमी लगने लगते हैं, जैसे किसी अर्थी के पीछे चल रहा विराट जुलूस हो! इन निरर्थक जंगलों की व्यर्थ परिक्रमा की अद्भुत योजना किसके उर्वर मस्तिष्क में क्यों उपजी थी, यह समझ में नहीं आया, किन्तु इसका मुख्य दोष है पद-पद पर ठोकर खाने का भय, दूसरा गिरहकटों के जेब काटने का स्वर्णिम सुअवसर।

अभी तीन दिन पूर्व चौधरी मिष्ठान्नग्रह के सम्मुख ऐसी ही भीड़ के रेले में एक अनाड़ी गिरहकट एक नवयुवक की जेब काटते रंगे हाथों पकड़ा गया। इस जनसंकुल गली में न बेचारा जंगले फाँदकर अपनी अपूर्व कला का परिचय दे पाया, न अपने साथी को ही बटुआ थमा पाया। जिस निर्ममता से क्रुद्ध भीड़ ने उसे रुई-सा धुनकर रख दिया, उसे देख उसके कुकृत्य के बावजूद उस पर तरस आ रहा था।

“यह सब इन जंगलों की मेहरबानी है साहब, अब कन्धे पर हाथ धरे आपके साथ-साथ गिरहकट चले आते हैं।" जिस युवक की जेब काटी गई थी, वह क्रोध से भुनभुना रहा था।

दूसरा दृश्य देखा, जब एक शव-यात्रा का जुलूस चौराहे पर ठिठका ट्रैफिक पुलिस की उठी भृकुटि के उतरने की प्रतीक्षा कर रहा था। शवयात्रा का आनुष्ठानिक रूप गाम्भीर्य को छोड़ और किसी स्वर को नहीं पहचानता किन्तु इस गम्भीर मर्यादा की रक्षा क्या तब हो सकती है जब तेजी से भाग पुलिस आदेश का पालन कर चौराहा पार करना पड़े? यह केवल मृतक का ही नहीं, सांस्कृतिक सौष्ठव का भी अपमान है। इन जंगलों के जन्म के साथ ही अधिकांश ट्रैफिक प्रहरियों के रक्तचाप में भी उत्तरोत्तर भयावह वृद्धि हुई है। यथोचित सौजन्य-शिष्टता एवं जिह्वा के संयम की रक्षा करना वे भूलकर वर्षों पूर्व की उस भूली-बिसरी पुलिस बारहखड़ी का प्रयोग करने लगे हैं, जिसने कभी उनकी लाल पगड़ी को जनसाधारण की दृष्टि में भय का प्रतीक बना दिया था।

आज ही मुझे शाहनजफ के चौराहे पर जो अप्रीतिकर अनुभव हुआ, उसे देखकर लगा, हमारे देशवासियों ने अभी नारी का सम्मान करना नहीं सीखा है। मेरी रिक्शा के आगे एक और रिक्शा, बत्ती का आदेश न ग्रहण कर कुछ आगे बढ़ने की धृष्टता कर बैठा था, उसमें एक युवती गोद में नन्हा शिशु लिए बैठी थी। क्रुद्ध ट्रैफिक पुलिस प्रहरी का उत्कट चीत्कार सुन बेचारी ऐसी चौंकी कि तेजी से लगाए गए सहमे रिक्शा चालक के ब्रेक ने उसे लगभग गिरा ही दिया था। एक तो बला की गर्मी, तेज धूप थी, उस पर रिक्शा-चालक की मूर्ख धृष्टता। उस प्रहरी ने फिर जो चुनी हुई गालियों से कर्णद्वय को धन्य किया, उन्हें सुन जी में आया, रिक्शा से उतर पैदल ही चला जाए। जब तक बत्ती नहीं जली, उसकी गालियों की बौछार रिक्शावाले को निरन्तर दागती रही। जब रिक्शा आगे बढ़ा तो मैंने अन्तिम बार उसके तमतमाए चेहरे को देखा। लाल पगड़ी पर चुनी उसकी कलगी भरत नाट्यम की नर्तकी के पंखे की भाँति क्रोध की तरंगों में काँप रही थी। किन्तु क्रोध की ये तरंगें किसी उच्च परिचित अधिकारी को देख ज्वार-भाटे की भाँति अपनी ही तेजी से गिर भी सकती हैं, यह भी स्वचक्षुओं से देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। एक सज्जन, जिन्हें अपने उच्च पद का ही नहीं, अनेक उच्च पदस्थ महानुभावों की कृपादृष्टि का भी संरक्षण प्राप्त है, हमारी मूर्ख अनुशासित भीड़ को पीछे छोड़ मित्र का हाथ खींच गहन आत्मविश्वास से चौराहा पार करने लगे।

“अरे भाई, नहीं, हम नहीं जाएँगे। पुलिसवाला सीटी बजाएगा।" मित्र ने आपत्ति की।

"चले-चलो, हम भी देखेंगे कौन रोकता है हमें, कैसे बजेगी सीटी?" एक बार दबी सीटी बजी, किन्तु जैसे ही उन्होंने उसे आग्नेय दृष्टि से घूरा, सीटी सहम गई, शायद बजानेवाले ने पहचान लिया था। हम खड़े रहे और वे मुस्कराते दगदगाते चौराहा पार कर गए।

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