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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


उनतीस


आकाशवाणी ने रवीन्द्रालय में एक शास्त्रीय संगीत सभा का आयोजन किया था। कलाकार थे वाराणसी के बन्धुद्वय राजन एवं साजन मिश्र, तथा जालन्धर की श्रीमती सर्वजीत, जिनके साथ तबले पर संगत की थी श्री ईश्वरलाल मिश्र एवं पंडित किशन महाराज ने।

सितारवादिका सर्वजीत नवीनतम तरुणा प्रतिभाओं में अपना विशिष्ट स्थान बना चुकी हैं। इससे पूर्व उनके सितारवादन को दर्शक बन सुनने का पहले कभी सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ था। उनका प्रथम निवेदन था रागेश्वरी, जिसे उन्होंने विस्तृत आलाप, जोड़, झाला, विलम्बित एवं द्रुत में प्रस्तुत किया। मैं देख रही थी कि आलाप के स्वर-विस्तार में सर्वजीत का स्वाभाविक शिल्पबोध एवं भावप्रवणता किशन महाराज को बीच-बीच में झुमाती चली जा रही थी। किसी एक सिद्ध कलाकार का दूसरे कलाकार के प्रति ऐसा मौन निवेदन श्रोताओं को भी रससिक्त कर जाता है।

वयस में प्रौढ़ता का स्पर्श न होने पर भी, सर्वजीत के निर्भीक चित्त से प्रस्तुत किए जा रहे आलाप में पर्याप्त प्रौढ़ता थी। जोड़ की मीड़, गमक, तान, तोड़ा, झाला सब स्वर एवं दक्षता से परिपूर्ण थे, साथ ही प्रायः किसी प्रख्यात सितारवादक के सितारवादन के बीच भी, किसी तार की कर्कश खनक, कभीकभी श्रोताओं का रसबोध भंग कर उठती है, उस कर्कस खनक से भी सर्वजीत का वादन सर्वथा दोष-मुक्त था। चाहे वह दोष वादक का नहीं, सितार के तार का ही होता है किन्तु ठीक जैसे घोड़ा भड़कने पर ताँगा उलट जाए तो लोग दोष घोड़े को नहीं चालक को ही देते हैं, ऐसे ही कभी-कभी अकारण ही वादक दोषी बन उठता है। किन्तु, सर्वजीत का वादन शिल्प एवं कल्पना, दोनों ही की दृष्टि से उत्कृष्ट रहा। केवल एक सामान्य-सी ही त्रुटि, जो मुझे कभी खटक रही थी, हो सकता है, मेरा ही दृष्टि-दोष हो, वह थी, विलम्बित लय की परिवेशना के बीच सर्वजीत का समर्थन और कभी-कभी आधार के लिए - संगत कर रहे किशन महाराज की ओर देखना। लग रहा था, अपनी निर्भीकता से उसकी पकड़ कभी-कभी खिसक रही है। शायद ऐसा होना स्वाभाविक भी था। गहन आत्मविश्वास से अँगुलियों को वादन की जादूगरी तीव्रता में विलीन करने में सर्वदा समर्थन के लिए वादन के बाजीगर किशन महाराज के नैपुण्य से किसी भी सिद्ध कलाकार की टक्कर होना स्वाभाविक है। द्रुत परिवेशना में सर्वजीत अपने उत्कृष्ट रूप में निखरी। अपने सितार-वादन का समापन किया पहाड़ी धुन से। इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्तित्व एवं वादन, अभयपक्ष से श्रोताओं को समान रूप से मोहकर ही सर्वजीत ने मंच से विदा ली।

वाराणसी के मिश्रबन्धु को पहले भी सुन चुकी थी, किन्तु उन्हें भी एक साथ देखने एवं सुनने का यह पहला अवसर था। एक ही दिन पूर्व एक परिचित ने कहा था, "इलाहाबाद के प्रयाग संगीत समिति के जलसे में इनका गायन उतना नहीं जमा जितना सारंग का।" इस आलोचना के पश्चात् मेरा कौतूहली चित्त आलोचक बनकर ही इन्हें सुनने गया था। अग्रज राजन, एम.ए. कर चुके हैं एवं अनुज साजन अभी छात्र हैं। उनका यह परिचय दिए बिना भी साजन का कैशोर्यसिक्त चेहरा स्वयं बता रहा था कि वह अभी छात्र ही हैं।

दोनों भाइयों की प्रथम समवेत परिवेशना थी कलावती में विलम्बित एवं द्रुत के बोल थे 'एरो बना बन आयो'...एवं 'सैंया बिना घर सूना रे...'। हारमोनियम पर संगत कर रहे थे श्री धरमनाथ मिश्र, सारंगी पर श्री भगवानदास मिश्र एवं तबले पर संगत की थी श्री ईश्वरलाल मिश्र ने।

दोनों भाइयों के दीर्घ, छरहरे शरीर-गठन, गौर, श्याम वर्ण एवं वयस में जितना पार्थक्य है, कंठ-परिवेशना में वैसा ही मधुर पार्थक्य है। राजन का स्वर मांसल है, साजन का क्यस के विपरीत गुरुगम्भीर होने पर भी तारसप्तक का स्पर्श कर, कभी बड़ी मीठी महीन वंशी की-सी गूंज में विलुप्त हो जाता है। ऐसी अनुशासित गूंज, वह भी ऐसी कच्ची वयस में अब कंठ की भी मसें भीग कर किशोरकंठ से सात बेसुरे स्वरों में फूटने लगती हैं, आश्चर्य होता है। साथ ही तरुण गायक के उज्ज्वल भविष्य का स्पष्ट आभास भी मिलता है।

कहाँ अनुज के कंठस्वर को आगे बढ़ाना है, कहाँ पीछे खींचकर स्वयं अपने कंठस्वर की बढैया देनी है, यह किसी कुशल पतंग-डोर के समर्थ साधक की भाँति राजन खूब जानते हैं। इसी से प्रतिभाशाली कंठद्वय की परिवेशना निरन्तर श्रोताओं को झुमाती रही।

अन्तरा की 'आवन कहि गए सुधि बिसराई' में राजन मिश्र के कंठ की आत्म-विभोर खनक निश्चय ही श्रोताओं के कानों में देर तक गूंजती रही होगी।

स्वर की दो मुख्य प्रकृतियाँ मानी गई हैं-गमक और लीनक। जब कोई ध्वनि एक स्वर पर न ठहर अनेक मधुर कम्पनों से उस स्वर का श्रृंगार कर दूसरे स्वर पर चली जाए तब उसे गमक कहते हैं। एक प्रख्यात विदेशी संगीतविद् ने कहा है कि यही गमक भारतीय संगीत का प्राण है। इसकी कई प्रयुक्तियों जैसे कम्पन, आन्दोलन, मीड़, गिटकिरी, मुरकी से कंठस्वर को सँवारना, वह भी ऐसे कि सरल भजन के प्रस्तुतीकरण में भी शास्त्रीय गायन का आनन्द आए, इसे मिश्रबन्धु ने साकार कर दिखाया था। अपने अन्तिम परिवेशित भजन-

हे गोविन्द राखो शरण
अब तो जीवन हारे...

में दोनों हाथ ऊपर कर अर्धोन्मीलित रससिक्त नयनों का भक्ति अर्घ्य, जब वे 'हे गोबिन्द' के साथ, स्वर को तीव्रता से 'राखो शरण' में अवरोहित कर अर्पित कर रहे थे तो पूरा प्रेक्षागृह मौन-मुग्ध होकर झूम रहा था।

आकाशवाणी के इस सुन्दर आयोजन में उपस्थित होकर लखनऊ के संगीत-प्रेमी श्रोता दर्शक निश्चय ही सन्तुष्ट होकर लौटे होंगे। शास्त्रीय संगीतानुष्ठान को ऐसा ही सुख-श्राव्य होना चाहिए, न अपने धैर्य के कारण उबाऊ, न अटपटी परिवेशना के कारण नीरस।

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