संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
छब्बीस
हिन्दी समिति के सुसज्जित कक्ष में इस वर्ष भी हिन्दी-दिवस बड़े उल्लास एवं
उत्साह से मनाया गया। यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि उत्साही श्रोताओं से
कक्ष खचाखच भरा था, भाषणों की तालिका सुदीर्घ होने से एक-आध बार वातावरण
बोझिल अवश्य हुआ, किन्तु मध्यान्तर में कमला श्रीवास्तव के भजन ने श्रोताओं
को आत्मविभोर कर पुनः तरोताजा कर दिया। इस गायिका के कंठ में अद्भुत मांसल
माधुर्य है। लोकगीत गायिका के रूप में कमला श्रीवास्तव ने अल्प अवधि में ही
प्रचुर ख्याति अर्जित कर ली है, किन्तु मुझे यह मधुर कंठ, भजनों के लिए ही
अधिक उपयुक्त लगता है। गत वर्ष हिन्दी समिति के संयोजकों ने संगीत परिवेशना
के स्तर की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया था। तालच्युत भजन, स्वर-लयहीन होने पर,
चाहे वह तुलसी या कबीर का ही क्यों न हो, सहसा अपना लालित्य खो बैठता है। गत
वर्ष ऐसा ही हुआ था।
इस आयोजन की सबसे बड़ी दो उपलब्धियाँ थीं-गुरुवर हजारीप्रसाद जी एवं कलकत्ता के श्री विष्णुकान्त शास्त्री के भाषण। वस्तुतः इन्हीं दो सम्भावित भाषणों का प्रलोभन मुझे वहाँ खींच ले गया था। गोष्ठियाँ, पुस्तक-विमोचन सेमिनार हो या किसी महान कथाशिल्पी का जन्म शतवार्षिकी समारोह, मुझे कभी आकर्षित नहीं कर पाते। मुझे बार-बार यही लगता है कि ऐसे अवसरों पर हम प्रायः एक ही-सी बासी बातें दुहराते केवल आनुष्ठानिक कर्तव्य का ही पालन करते हैं। अधिकांश भाषणों में मुझे बिल्ली के छौने का-सा वह व्यर्थ खिलवाड़ दृष्टिगत होता है, जिसमें वह अपनी ही नन्हीं पूँछ को चबाने गोलगोल घूमता विलम्बित परिक्रमा में, बड़ी देर तक चक्कर लगाता रहता है। वक्ता क्या कहना चाहता है, किस दुरूह वाक्यजाल से श्रोताओं को बाँधना चाहता है, समझ में नहीं आता।
शास्त्रीजी का भाषण, आरम्भ से अन्त तक अंग्रेजी की धज्जियाँ उड़ाता, श्रोताओं की मुट्ठियाँ बँधाने में किसी सुनिपुण आल्हा-गायक की भाँति पूर्ण रूप से समर्थ रहा। आचार्य द्विवेदी के ओजस्वी भाषण में औदार्य का गम्भीर पुट था, निरन्तर कोमल, निषाद और धैवत के प्रयोग ने स्वर को आरोह में जाने ही नहीं दिया। द्विवेदीजी के भाषण में मुझे किसी सिद्ध ध्रुपद गायक की सधी गायकी का ही आनन्द आता है, वही दुगुन, चौगुन और सुमिष्ट आड़ी-तिरछी लय।
उन्होंने कहा कि किसी भी भाषा सीखने से हम अपना ही आँचल समृद्धि से भरते हैं संस्कृति के विशाल सरित-प्रवाह से, किसी भी रत्न को ग्रहण कर, हम अपनी संस्कृति को सौष्ठव प्रदान कर सकते हैं। अंग्रेजी पढ़ने से हमारी कोई ऐसी हानि नहीं होगी। बात एकदम ठीक लगती है। अंग्रेजों को हमने देश से बाहर खदेड़ दिया है, उनकी भाषा को भी हमें लाठी लेकर दूर खदेड़ देना चाहिए, ऐसी धारणा, उचित प्रतीत नहीं होती। उनके साहित्यकारों की, मनीषियों की, कवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से फिर हमारा परिचय ही क्या रह जाएगा? कहा जाता है कि दिग्विजयी सिकन्दर ने थीनिस नामक शहर को ध्वंस करने के पूर्व अपने सैनिकों को कठोर आदेश दिया था कि कवि पिंडार के गृह को आँच भी न आने पाए। युद्धप्रेमी महान विजेता ने अपने इस निर्देश में स्पष्ट कर दिया था कि साहित्य चाहे वह घोर शत्रु का ही क्यों न हो, हमें उसके प्रति श्रद्धाशील होना चाहिए।
वह दिन क्या हमारे लिए बड़े सौभाग्य का होगा जब हम अपने वाचनालयों से, शिक्षा संस्थानों से शेक्सपियर, चेखव, डिकेंस की पुस्तकें उठाकर किसी अंधकूप में फेंक देंगे! माता-पिता यदि अपने बच्चों को कन्वेंट की शिक्षा देना चाहते हैं तो क्या सारा दोष उन्हीं का है? दोष क्या देश के उन महान शिक्षाविदों का ही अधिक नहीं है, जो कभी अंग्रेज़ी को पाठ्यक्रम से झाड़बुहारकर दूर फेंकते हैं और कभी मेले की भीड़ में खोकर सहसा मिल गए अपने शिशु की भाँति छाती से लगाकर, पुनः उसी लाड़ से दुलारते-पुचकारते हैं? ऐसा अस्थिर विवेक ही हमारा अधिक अनिष्ट करता है।
अंग्रेजी अभी भी हमारे व्यवसाय की प्रमुख भाषा है। हम जानते हैं कि कन्या के विवाह का शेयर मार्केट हो या पुत्र की नौकरी का, धड़ल्ले से अंग्रेजी बोलनेवाली सन्तान के सिक्के का ही अभी भी बोलबाला है। इसी से उन्हें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने में, हमें यह सन्तोष तो होता ही है कि बेटे से हम कह रहे हैं, “ऐसी विद्या पढ़ियो बेटा, जामें हँडिया खदबद होय।"
एक ओर हम ओजस्वी भाषण देते हैं कि हिन्दी को हमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना है, अंग्रेजी को देश से अंग्रेजों की ही भाँति दूर खदेड़ना है; दूसरी ओर हम दबे स्वर में यह भी स्वीकार करते हैं कि अंग्रेजी छोड़ने पर हमारे छात्र प्रशासकीय परीक्षाओं में अंग्रेजी पढ़े छात्रों की तुलना में निरन्तर पिछड़ते जा रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि बीस हजार की लागत की राजर्षि टंडनजी की आदमकद मूर्ति हिन्दी समिति के प्रांगण में स्थापित की जाए, हमारे देश की मूर्तियों की प्रायः ही जैसी दुर्दशा होती है, उससे वह भी वंचित नहीं होगी। कबूतरों के 'बीट' से विकृत होकर एक निश्चल निर्जीव मूर्ति क्या स्थापित होते ही अंग्रेजी को दूर खदेड़ देगी? पहले हम मूर्तियों का आदर करना सीखें, उनके संरक्षण की व्यवस्था करना सीखें तब मूर्ति स्थापित करने में भी तुक है।
अभी कुछ दिन पूर्व जनरल पोस्ट ऑफिस के समीप खड़ी बापू की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लज्जा से सिर झुक गया। उनके पैरों के पास बैठा एक उजड्ड देहाती बीड़ी फूंकता पच-पच सुरती थूक रहा था। राजर्षि ने हिन्दी के लिए जो किया है, उसके लिए वे स्वयं ही अनेक कृतज्ञ हृदयों में अपनी अदृश्य मूर्ति स्थापित कर चुके हैं।
इस सन्दर्भ में, मुझे महान कथाशिल्पी श्री शरत्चन्द्र के एक व्याख्यान की पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं। उन्होंने अपने इस 'मातृभाषा और साहित्य' व्याख्यान में कहा था, "देश की कल्पना, देश का साहित्य, देश का इतिहास महान हो, जीवन्त हो, सभ्य हो, यही निवेदन आप सबसे करता हूँ। प्रत्येक सुसन्तान अकपट भाव से मातृभाषा की सेवा करे, यही भिक्षा आप सबसे माँगता हूँ। यह कैसे सम्भव हो सकता है, यह कहने की योग्यता मुझमें नहीं है। केवल इतना ही कह सकता हूँ, जिसे आप हृदय से सत्य समझें, अन्तःकरण जिसके शिवत्व का समर्थन करे, जिसे सुन्दर मानकर नतमस्तक हो, अपनी सामर्थ्यानसार उसी पथ का अवलम्बन करें. भविष्य स्वयं ही निर्णय करेगा। हृदय के मध्य में यही सत्य निरन्तर प्रतिपादित करें कि आपकी प्रत्येक सेवा मातृभाषा के द्वार से स्वदेशवासियों को कल्याण के पथ पर अग्रसर करती रहे। फिर क्या उचित है और क्या अनुचित, यह एक दिन स्वयं देश का हृदय आपको बता देगा।"
इस आयोजन की सबसे बड़ी दो उपलब्धियाँ थीं-गुरुवर हजारीप्रसाद जी एवं कलकत्ता के श्री विष्णुकान्त शास्त्री के भाषण। वस्तुतः इन्हीं दो सम्भावित भाषणों का प्रलोभन मुझे वहाँ खींच ले गया था। गोष्ठियाँ, पुस्तक-विमोचन सेमिनार हो या किसी महान कथाशिल्पी का जन्म शतवार्षिकी समारोह, मुझे कभी आकर्षित नहीं कर पाते। मुझे बार-बार यही लगता है कि ऐसे अवसरों पर हम प्रायः एक ही-सी बासी बातें दुहराते केवल आनुष्ठानिक कर्तव्य का ही पालन करते हैं। अधिकांश भाषणों में मुझे बिल्ली के छौने का-सा वह व्यर्थ खिलवाड़ दृष्टिगत होता है, जिसमें वह अपनी ही नन्हीं पूँछ को चबाने गोलगोल घूमता विलम्बित परिक्रमा में, बड़ी देर तक चक्कर लगाता रहता है। वक्ता क्या कहना चाहता है, किस दुरूह वाक्यजाल से श्रोताओं को बाँधना चाहता है, समझ में नहीं आता।
शास्त्रीजी का भाषण, आरम्भ से अन्त तक अंग्रेजी की धज्जियाँ उड़ाता, श्रोताओं की मुट्ठियाँ बँधाने में किसी सुनिपुण आल्हा-गायक की भाँति पूर्ण रूप से समर्थ रहा। आचार्य द्विवेदी के ओजस्वी भाषण में औदार्य का गम्भीर पुट था, निरन्तर कोमल, निषाद और धैवत के प्रयोग ने स्वर को आरोह में जाने ही नहीं दिया। द्विवेदीजी के भाषण में मुझे किसी सिद्ध ध्रुपद गायक की सधी गायकी का ही आनन्द आता है, वही दुगुन, चौगुन और सुमिष्ट आड़ी-तिरछी लय।
उन्होंने कहा कि किसी भी भाषा सीखने से हम अपना ही आँचल समृद्धि से भरते हैं संस्कृति के विशाल सरित-प्रवाह से, किसी भी रत्न को ग्रहण कर, हम अपनी संस्कृति को सौष्ठव प्रदान कर सकते हैं। अंग्रेजी पढ़ने से हमारी कोई ऐसी हानि नहीं होगी। बात एकदम ठीक लगती है। अंग्रेजों को हमने देश से बाहर खदेड़ दिया है, उनकी भाषा को भी हमें लाठी लेकर दूर खदेड़ देना चाहिए, ऐसी धारणा, उचित प्रतीत नहीं होती। उनके साहित्यकारों की, मनीषियों की, कवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से फिर हमारा परिचय ही क्या रह जाएगा? कहा जाता है कि दिग्विजयी सिकन्दर ने थीनिस नामक शहर को ध्वंस करने के पूर्व अपने सैनिकों को कठोर आदेश दिया था कि कवि पिंडार के गृह को आँच भी न आने पाए। युद्धप्रेमी महान विजेता ने अपने इस निर्देश में स्पष्ट कर दिया था कि साहित्य चाहे वह घोर शत्रु का ही क्यों न हो, हमें उसके प्रति श्रद्धाशील होना चाहिए।
वह दिन क्या हमारे लिए बड़े सौभाग्य का होगा जब हम अपने वाचनालयों से, शिक्षा संस्थानों से शेक्सपियर, चेखव, डिकेंस की पुस्तकें उठाकर किसी अंधकूप में फेंक देंगे! माता-पिता यदि अपने बच्चों को कन्वेंट की शिक्षा देना चाहते हैं तो क्या सारा दोष उन्हीं का है? दोष क्या देश के उन महान शिक्षाविदों का ही अधिक नहीं है, जो कभी अंग्रेज़ी को पाठ्यक्रम से झाड़बुहारकर दूर फेंकते हैं और कभी मेले की भीड़ में खोकर सहसा मिल गए अपने शिशु की भाँति छाती से लगाकर, पुनः उसी लाड़ से दुलारते-पुचकारते हैं? ऐसा अस्थिर विवेक ही हमारा अधिक अनिष्ट करता है।
अंग्रेजी अभी भी हमारे व्यवसाय की प्रमुख भाषा है। हम जानते हैं कि कन्या के विवाह का शेयर मार्केट हो या पुत्र की नौकरी का, धड़ल्ले से अंग्रेजी बोलनेवाली सन्तान के सिक्के का ही अभी भी बोलबाला है। इसी से उन्हें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने में, हमें यह सन्तोष तो होता ही है कि बेटे से हम कह रहे हैं, “ऐसी विद्या पढ़ियो बेटा, जामें हँडिया खदबद होय।"
एक ओर हम ओजस्वी भाषण देते हैं कि हिन्दी को हमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना है, अंग्रेजी को देश से अंग्रेजों की ही भाँति दूर खदेड़ना है; दूसरी ओर हम दबे स्वर में यह भी स्वीकार करते हैं कि अंग्रेजी छोड़ने पर हमारे छात्र प्रशासकीय परीक्षाओं में अंग्रेजी पढ़े छात्रों की तुलना में निरन्तर पिछड़ते जा रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि बीस हजार की लागत की राजर्षि टंडनजी की आदमकद मूर्ति हिन्दी समिति के प्रांगण में स्थापित की जाए, हमारे देश की मूर्तियों की प्रायः ही जैसी दुर्दशा होती है, उससे वह भी वंचित नहीं होगी। कबूतरों के 'बीट' से विकृत होकर एक निश्चल निर्जीव मूर्ति क्या स्थापित होते ही अंग्रेजी को दूर खदेड़ देगी? पहले हम मूर्तियों का आदर करना सीखें, उनके संरक्षण की व्यवस्था करना सीखें तब मूर्ति स्थापित करने में भी तुक है।
अभी कुछ दिन पूर्व जनरल पोस्ट ऑफिस के समीप खड़ी बापू की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लज्जा से सिर झुक गया। उनके पैरों के पास बैठा एक उजड्ड देहाती बीड़ी फूंकता पच-पच सुरती थूक रहा था। राजर्षि ने हिन्दी के लिए जो किया है, उसके लिए वे स्वयं ही अनेक कृतज्ञ हृदयों में अपनी अदृश्य मूर्ति स्थापित कर चुके हैं।
इस सन्दर्भ में, मुझे महान कथाशिल्पी श्री शरत्चन्द्र के एक व्याख्यान की पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं। उन्होंने अपने इस 'मातृभाषा और साहित्य' व्याख्यान में कहा था, "देश की कल्पना, देश का साहित्य, देश का इतिहास महान हो, जीवन्त हो, सभ्य हो, यही निवेदन आप सबसे करता हूँ। प्रत्येक सुसन्तान अकपट भाव से मातृभाषा की सेवा करे, यही भिक्षा आप सबसे माँगता हूँ। यह कैसे सम्भव हो सकता है, यह कहने की योग्यता मुझमें नहीं है। केवल इतना ही कह सकता हूँ, जिसे आप हृदय से सत्य समझें, अन्तःकरण जिसके शिवत्व का समर्थन करे, जिसे सुन्दर मानकर नतमस्तक हो, अपनी सामर्थ्यानसार उसी पथ का अवलम्बन करें. भविष्य स्वयं ही निर्णय करेगा। हृदय के मध्य में यही सत्य निरन्तर प्रतिपादित करें कि आपकी प्रत्येक सेवा मातृभाषा के द्वार से स्वदेशवासियों को कल्याण के पथ पर अग्रसर करती रहे। फिर क्या उचित है और क्या अनुचित, यह एक दिन स्वयं देश का हृदय आपको बता देगा।"
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