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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...

पच्चीस


मद्रास आने पर, जब हिन्दी प्रचार सभा ने मुझे कामाक्षिराव स्मारक भाषणमाला के अन्तर्गत वक्ता के रूप में आमन्त्रित किया और विशेष अनुरोध किया कि मैं अपनी कथायात्रा के विषय में कुछ कहूँ, तब मुझे विशेष आनन्दानुभूति हुई थी। मेरे लिए यह एक सुअवसर ही नहीं, विशिष्ट सुअवसर था।

हिन्दी भाषा का सम्मान


यहाँ आने से पूर्व मुझे हैदराबाद में तेलुगू लेखिका-सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए जब आमन्त्रित किया गया तब सुदीर्घ यात्रा के भय से पहले कुछ हिचकिचाई थी। किन्तु तेलुगू लेखिकाओं ने एक अतेलुगूभाषी को अध्यक्षता के पद का सम्मान दिया, यह केवल मेरा ही नहीं, हिन्दी भाषा का सम्मान है, नागरी लिपि का सम्मान है। यह गूढ़ मर्म हृदयंगम करते ही अपनी अल्पज्ञता का आभास हुआ। पहले मुझे अंग्रेज़ी में बोलना पड़ा, क्योंकि अनेक अतिथि हिन्दी नहीं जानते थे, किन्तु हिन्दी में बोलने पर मेरे पास कितनी ही ऐसी तेलुगू लेखिकाएँ आईं, जिन्होंने मेरी रचनाएँ पढ़ी थीं। भले ही उनकी हिन्दी उतनी सहज न हो, व्यवहार था एकदम सहज। उन्हीं के आग्रह पर मैं उनकी तीनों गोष्ठियों में हिन्दी ही में बोली और जो आनन्द मुझे हैदराबाद की उस साहित्यिक गोष्ठी में आया, वह आज तक किसी हिन्दी गोष्ठी में नहीं आया। 'तेलुगू की लगभग सभी ख्यातिलब्ध लेखिकाएँ वहाँ उपस्थित थीं। इतनी बड़ी
संख्या में इतनी लेखिकाओं का ऐसा वृहत सम्मेलन और वह भी मैत्रीपूर्ण, ईद्वेिष रहित, एक-दूसरे से कुछ सीखने का अद्भुत आग्रह और जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, वह थी प्रतिष्ठित पुरुष लेखकों की, विद्वानों की, पत्रकारों की बहुत बड़ी संख्या में उपस्थिति। तेलुगू न जानने पर भी संस्कृतनिष्ठ शब्दों के प्राचुर्य के कारण, तमिल की अपेक्षा तेलुगू समझने में अधिक सुलभ लगती है।

निश्छल प्रशंसा का वह अर्घ्य


सबसे अधिक सुखप्रद अनुभव मुझे तब हुआ जब निज़ाम कॉलेज में मेरे भाषण के पश्चात् छात्र यूनियन का प्रेसीडेंट एक सौम्य कान्ति छात्र मुझसे विनम्र स्वर में कहने लगा, "मैडम, मुझे हिन्दी नहीं आती, किन्तु आपके भाषण की भाषा मुझे छन्दमयी कविता-सी लगी।" उसकी निश्छल प्रशंसा का यह अर्घ्य मेरी समस्त क्लांति दूर कर गया था। मैं सोच रही थी, यदि हमारे किसी विश्वविद्यालय में कोई तेलुगू अतिथि अपनी दुरूह भाषा में भाषण देता तो क्या हमारे छात्र यूनियन का प्रेसीडेंट भी इस शालीनता का परिचय दे पाता? निज़ाम कॉलेज एक ऐतिहासिक संस्था है। वहाँ असाधारण प्रतिभाशाली छात्रों को ही प्रवेश मिलता है, वह प्रतिभा खेलकूद-जगत् की हो या बौद्धिक जगत् की। भारत के अनेक प्रसिद्ध क्रिकेट के खिलाड़ी वहीं के प्राक्तन छात्र रह चुके हैं। प्रथम प्रिंसिपल थे श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, श्रीमती सरोजिनी नायडू के पिता, उनके पश्चात् आए अनेक विदेशी प्रिंसिपल, जिनके चित्र अब भी दीवार पर लगे हैं।

उस दिन वहाँ के छात्रों की शालीनता देखकर एक वर्ष पूर्व एक और विश्वविद्यालय की. सन्ध्या का स्मरण हो आया, जहाँ मुझे किसी हिन्दी साहित्यिक गोष्ठी की अध्यक्षता का पद ग्रहण करने आमन्त्रित किया गया था। जब पहची. तब मेरे सम्मान में मंच पर स्वागत गीत बज रहा था. 'गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा' और कुछ छात्र तीन-चार कुर्सियों को एक-दूसरे से जोड़ शवासन की भव्य मुद्रा में चित पड़े थे।

वह सामयिक चेतावनी


हैदराबाद के पश्चात् जब मद्रास पहुँची और यह दूसरा निमन्त्रण मिला तब पहले कुछ शंकित अवश्य हुई थी क्योंकि यहाँ आने के पूर्व यहाँ के हिन्दी विरोधी सुदृढ़ गढ़ की प्रचुर ख्याति सुन चुकी थी। यही नहीं, जब मेरी तमिलभाषिणी प्रतिवेशिनी ने सुना कि मैं हिन्दी भाषण देने जा रही हूँ और वह भी टी. नगर में तब उन्होंने मुझे ऐसी सजल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखा, जैसे मुझे अन्तिम बार निहार रही हों और कल हिन्दी भाषण के पश्चात् मेरा मस्तक ग्रीवा स्थित नहीं रहेगा।

"डू यू नो दैट देयर इज़ वेरी स्ट्रांग एंटी हिन्दी फीलिंग इन मद्रास? (क्या आप जानती हैं कि मद्रास में हिन्दी-विरोधी तीव्र भावना है?)" उन्होंने मुझसे पूछा।

मेरी अडिग, दुस्साहसी मुद्रा देखकर उन्होंने दूसरी शक्तिशाली चेतावनी का हथगोला फेंका, “पीपल आर श्योर टू वाक आउट, दि मोमैण्ट यू स्टार्ट स्पीकिंग इन हिन्दी। (आप ज्यों ही हिन्दी में बोलना शुरू करेंगी, जनता सभा त्याग देगी।"

किसी, दुस्साहसी पेशेवर मन्त्री-स्तर के प्रगल्भ वक्ता को भी शायद उनकी चेतावनी सहमा जाती किन्तु मैं कुछ ही दिन पूर्व मद्रास के उन सिनेमा प्रेक्षागृहों के सम्मुख तमिलभाषी हिन्दी प्रेमी दर्शकों की भीड़ देख चुकी थी, जहाँ 'शोले' और 'भूमिका' लगी थी। इसी से मुझे लगा कि तमिलभाषी यदि 'शोले' के गब्बरसिंह के भीमकंठ की गुरुगर्जना समझ सकते हैं, 'भूमिका' की स्मिता पाटिल के गम्भीर अभिनय को समझ सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि वे प्रेमचन्द को न समझ सकें, हजारीप्रसाद द्विवेदी को न समझ सकें, यशपाल, पन्त, महादेवी, अज्ञेय को न समझ सकें। उनका अपनी मातृभाषा के प्रति प्रगाढ़ लगाव हम उन हिन्दी समर्थकों को बहुत कुछ सिखा सकता है, जो प्रचार के लिए भुजाओं की कर्मठता से अधिक महत्त्व कंठ की गर्जना को देते हैं। कंठ की गर्जना, भले ही वह कितनी ही सशक्त क्यों न हो, भुजाओं को शैथिल्य ही प्रदान कर सकती है और कुछ नहीं।

व्यवहारकुशला जननी का कर्तव्य


भाषा डंडे की मार से नहीं सिखाई जा सकती। कुछ ही दिन पूर्व जब मैंने अपनी मकान मालकिन के तख्त पर हिन्दी सुबोधिनी देखी तब बड़ा आश्चर्य हुआ। आज तक उन्होंने मुझे कभी यह आभास भी नहीं होने दिया था कि उन्हें हिन्दी आती है।

"अरे आप क्या हिन्दी पढ़ लेती हैं?" मैने पूछा।

"मैं ही नहीं, मेरी लड़कियाँ भी हिन्दी पढ़ लेती हैं, हमें भी जैसे तब हिन्दी अनिवार्य रूप से पढ़नी पड़ती थी, इन्हें भी हिन्दी पढ़ाई जाती है..." उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा, "हम इसलिए हिन्दी नहीं बोलते कि हमें हिन्दी सीखने को बाध्य किया जा रहा है। अब हिन्दी राजनीति बनकर आ गई है।" एक सफल हिन्दी-प्रचारक का कठिन कर्तव्य भी दक्षिण की इसी भावना के कारण बहुत कुछ उस व्यवहारकुशल अनुभवी जननी का-सा कठिन कर्तव्य बन गया है, जो अपने रुग्ण शिशु को बहला-फुसलाकर कड़वी औषधि भी घुटका देती है, किसी अपकार की भावना से नहीं, केवल उपकार की इस भावना से कि उस अबोध शिशु के कंठतले उतरने पर औषधि उसका कल्याण ही करेगी। किन्तु, यदि कोई अनुभवहीना अनाड़ी जननी शिशु के हाथ-पैर पकड़ जबरदस्ती उसके बन्द होंठों के बीच चम्मच डालने की चेष्टा करेगी तो निश्चय ही वह भी औषधि तत्काल उलट देगा। हिन्दी-प्रचारक के इसी वास्तविक रूप को किसी ने पहचाना था तो वह थे बापू। आज दक्षिण में जितना भी हिन्दी-प्रचार हुआ है, आपके यहाँ जितने भी हिन्दी के अच्छे वक्ता, अच्छे पाठक, अच्छे लेखक और हिन्दी के सशक्त समर्थक हैं, उसका समन श्रेय उसी महान विभूति को है।

सार्थक दीर्घजीवी साहित्य


इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब तक साहित्य, चाहे वह किसी भाषा का क्यों न हो, अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के स्वर को मुखरित नहीं करता तब तक वह सरस, लोकप्रिय, मनोरंजक भले ही सिद्ध हो, सार्थक एवं दीर्घजीवी साहित्य कदापि नहीं कहा जा सकता। किसी धूमकेतु के-से क्षणिक आलोकपुंज से भले
ही देखनेवालों की आँखें पल-भर को बँध जाएँ, स्थानच्युत होने पर नक्षत्रखचित व्योम की महिमा का उसके अभाव में म्लान होने का भय नहीं रहता। संस्कृति की यह अभिव्यक्ति तब तक सम्भव नहीं है, जब तक हम अन्य भाषाओं के साहित्य से अपनी कल्पना को, अपनी सृजनशीलता को, अपनी ज्ञानगम्य भावराशि को और अधिक समृद्ध न बनाएँ। यह आवश्यक नहीं है कि आप मौलिक रूप में ही किसी साहित्य को पढ़ें, किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि किसी भी साहित्य के रसास्वादन का जो आनन्द उसे मौलिक रूप में पढ़ने में आता है, वैसा आनन्द उसके अनूदित रूप में आना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। जैसाकि प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने भी लिखा है, “ए ट्रान्सलेशन मस्ट हैव लिटरेरी क्वालिटीज़ हैविंग डायरेक्ट एण्ड इमीडिएट अपील टु दि पर्सन, हू अण्डरस्टैण्ड्स दि लेंग्वेज आफ दि ट्रान्सलेशन। (अनुवाद में ऐसा साहित्यिक गुण होना चाहिए जो अनुवाद की भाषा समझनेवाले के लिए सीधी और तात्कालिक समझ पैदा कर सके।" यह डायरेक्ट अपील या पाठक के मर्म को छूना, जिस रूप में स्वयं लेखक कर सकता है, उस रूप में एक अनवादक, चाहे वह कितना ही सफल, सयोग्य अनुवादक क्यों न हो, कभी नहीं कर सकता। यह तब ही ज्ञात होता है जब आप मौलिक और अनूदित ग्रन्थ को बारी-बारी से पढ़ें।

अपनी कथा-यात्रा के विषय में


मुझसे यहाँ आग्रह किया गया था, मैं अपनी कथा-यात्रा के विषय में कुछ कहूँ, किन्तु यह भूमिका भी मेरे विषय के लिए एक प्रकार से अनिवार्य हो उठी थी, क्योंकि मेरी कथा-यात्रा, ठीक यहीं से आरम्भ होती है। ईश्वर की असीम अनुकम्पा से मुझे बचपन से ही कतिपय भाषाएँ सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने बंगला, गुजराती, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी में जो ग्रन्थ मौलिक रूप में पढ़े, उन्हें जब बाद में अनूदित रूप में पढ़ा तब स्वाभाविक था कि मुझे उनके अनुवाद फीके लगे और यदि आज मेरी कथायात्रा अब तक वैविध्यपूर्ण रही तो उसका कारण भी सम्भवतः यही है कि मेरी लेखनी को इन्हीं विविध भाषाओं के ज्ञान ने गतिशील बनाया।

यदि तैमूर के साथ समरकंद गए भारत के दक्ष कारीगर वहाँ की मस्जिदों की मीनारों को भारत की स्थापत्य कला से मंडित कर सकते थे, तो लेखनी क्या किसी दक्ष कारीगर की हथौड़ी-छैनी से कुछ कम प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है? मैंने बंगला के अनेक सुहावने मुहावरों से अपनी कहानियों को सँवारा, गुजरात की 'पाँणेतर', बुन्देलखंड की कंकरेजी, कुमायूँ का मक्खी बेल लगा सोलह पाटों का काला फहराता लहँगा, बंगाल के लाल पाड़ की गरद, सबकी अनुपम विभिन्न छटाओं से अपने पाठकों को मोहने की चेष्टा की, मेरा सौभाग्य था कि पाठक मुग्ध हुए।

बहुत बचपन में ही पितामह ने, जो स्वयं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, अमरकोश का वनौषधि पर्व रटा दिया, नीतिशतक के श्लोक कंठस्थ किए, नियमपूर्वक विष्णुसहस्रनाम उन्हें पढ़कर सुनाया। तब जो पठन-पाठन नीरस लगता था, आज वही किसी बहुत पहले किए गए जीवन-बीमा की सहृदय धनराशि की भाँति अभाव के समग्र कंटक स्वयं बटोर लेता है। एक दिन ऐसा आया जब हाथ स्वयं लिखने को चुलबुलाने लगे।

ठीक इसी समय शान्तिनिकेतन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज मुझे यह कहते हुए भी गर्व होता है कि सहज पाठ का प्रथम पाठ पढ़ाया था स्वयं गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने। शान्तिनिकेतन का वातावरण ही तब ऐसा था कि साहित्य, संगीत, कला की बयार वहाँ हर पेड़ के हर पत्ते से सरसराती थी। आए दिन साहित्य-सभाओं का आयोजन होता, संगीत-नाटिकाएँ होती और प्रत्येक छात्र-छात्रा की उपस्थिति वहाँ अनिवार्य होती। एक बार वहाँ ऐसा ही आशुकवित्व की एक सभा का आयोजन हुआ। मेरे अग्रज त्रिभुवन भी तब वहीं पढ़ते थे। अद्भुत प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के धनी। कोई भी विषय दिया जाता, वह तत्काल मनोहारी सौनेट की रचना कर सकते थे। फर्राटे से फ्रेंच बोल सकते थे और अभिनय कला में भी निपुण थे। उनकी देखादेखी मैंने भी उन दिनों अंग्रेजी में कविता लिखनी आरम्भ की थी, इसी से उस दिन मैं भी अंग्रेजी की आशुकवित्व-प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंची। उस दिन का विषय लड़कों के लिए था, 'इफ आई विअर ए गर्ल' (यदि मैं एक लड़की होता) और हमारे लिए, 'इफ आई विअर ए बॉय' (यदि मैं एक लड़का होती)। उस दिन जीवन में पहली बार अपने प्रतिभाशाली अग्रज को पछाड़ मैंने गुरुदेव के हाथों प्रथम पुरस्कार पाया। निर्णायक भी थे स्वयं गुरुदेव, इसी से वह पुरस्कार मेरे लिए नोबल पुरस्कार से कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। पूरी कविता तो मुझे याद नहीं है, समय मिला था केवल पाँच मिनट का, और उसी समय में जो दूसरी पंक्ति मेरे दिमाग में तीर-सी छूटी थी, वह थी-

इफ आई वेअर ए बॉय,

व्हाट वुड बिकम ऑफ दि बॉय,

आई लव।

यद्यपि पुरस्कार तो मिल गया, तथापि उसी दिन से आश्रम की किसी भी बीथिका से गुजरना मेरे लिए दूभर हो उठा। जहाँ निकलती कि दुष्ट सहपाठियों के शब्दवेधी बाण छेदकर रख देते-

"हे, हू इज़ दी लकी वन (हाय, वह खुशकिस्मत कौन है?)"

कल्पना की स्वच्छन्द उड़ान


उसी दिन ज्ञात हुआ कि किसी लेखिका को कल्पना भी कितनी महँगी पड़ती है। सहज में कोई विश्वास नहीं करना चाहता कि वह कल्पनामात्र है, यथार्थ नहीं। आज पैंतीस वर्ष पश्चात् भी मुझे यही लगता है कि कल्पना की उड़ान कितनी ही ऊँची और सरस क्यों न हो, एक लेखिका के लिए कभी स्वच्छन्द नहीं हो सकती। नारी का नारी होना ही उसकी सबसे बड़ी विवशता है। अपने सामाजिक अस्तित्व पर, अपनी जननी, पत्नी, पुत्री, सहोदरा के पावन रूप पर वह कलंक की छाया भी नहीं सह सकती; भले ही वह छाया काल्पनिक ही क्यों न हो। स्वयं, 'मैं' कहकर लिखी गई किसी भी कहानी को पाठक प्रायः ही लेखिका की आपबीती समझ लेते हैं। किन्तु इतना शायद वे नहीं जानते कि कोई भी नारी, अपनी सौ फीसदी सत्य आत्मकथा कभी नहीं लिख सकती। इसलिए नहीं कि उसके जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी घटी हैं, जिन्हें उजागर करने पर उसके सामाजिक अस्तित्व पर आँच आएगी, अपितु इसलिए कि कच्छप की भाँति अपनी ही देह में मूंडी छिपाने की रहस्यमय गोपनशीलता नारी-जीवन का सबसे बड़ा सुख है।

यही गोपनशीलता गुण है


यही गोपनशीलता उसका गुण है, उसका सबसे बड़ा आकर्षण है, उसका श्रृंगार है। किन्तु यह भी सत्य है कि इस निरीह गोपनशीलता के बावजूद जब नारी लेखनी सँभालती है तब अपने सीमित दायरे का ही मूलधन समेट मानवमात्र के हृदय में पैठ उसके अन्तरतम कक्ष की परतें भी बिखेरकर रख सकती है, उसका परम शक्तिशाली आयुध है विधाताप्रदत्त उसकी सूक्ष्म दृष्टि। यथार्थ की पकड़, वह भी भोगे हुए यथार्थ की पकड़, पुरुष की अपेक्षा नारी में ही अधिक है। उसका स्नेहप्रवण स्पर्श-कातर भावुक चित्त उस कच्चे सीमेंट की भाँति है जिस पर पाँच अंगुलियों की छाप पड़ते ही सदा के लिए अमिट होकर उभर आती है। वह न प्रेमी को भूल पाती है न प्रवंचक को। किन्तु एक समस्या एक लेखिका के सम्मुख एक गम्भीर समस्या बनकर उभरती है। नारी के छलनामय रूप को चित्रित करने में उसका संस्कारशील चित्त स्वयं लेखनी की गति अवरुद्ध कर देता है। उसके छलनामय रूप की परतें खोलने में उसे लगता है, जैसे वह स्वयं अपने अंग उघाड़ रही हो। 'विधिहु न नारि हृदय गति जानी' की दूसरी पंक्ति को जानबूझकर ही कंठ में घुटक ले रही हूँ किन्तु तुलसीदासजी ने उसमें जो-जो अवगुण नारी के गिनाए हैं, अनेक बार उन्हें : उसे विकृत करते देख लिखना चाहा तो कलम काँपी ही नहीं, थर्रा गई।

जन्मदायिनी जननी की भर्त्सना

मैं नहीं जानती कि मेरी ही भाँति अन्य लेखिकाओं को भी यह विचित्र अनुभव हुआ है या नहीं। अभी कुछ दिन पूर्व एक बहचर्चित आत्मकथा की लेखिका का दर्पपूर्ण वक्तव्य पढ़ा था कि "बिना व्हिस्की के चूँट के कभी-कभी लिखना उनके लिए असम्भव हो उठता है।" शायद उनके ऐसे ही कठिन क्षणों को उनके आसव का चूट सँभाल लेती हो, किन्तु निरामिषभोजी लेखनी ऐसे अवसरों पर अवश्य नई-नई घोड़ी-सी बिदक उठती है। मेरे साथ अनेक बार ऐसा हुआ है चाहे वह 'कृष्णकली' की कली हो, 'करिए छिमा' की हीरामती हो या काल्पनिक मंत्रीजी की रक्षिता 'सुरंगमा'। लिखने के पश्चात् भी कभीकभी आत्मीय स्वजनों की प्रताड़ना, पाठकों के उपालम्भ दिनों तक चित्त खिन्न कर जाते हैं। लगता है, जैसे कोई अक्षम्य अपराध कर बैठी हूँ! दृष्टान्त के रूप में कहूँ तो मेरी 'करिए छिमा' जब छपी तब स्वयं जन्मदायिनी जननी ने पत्र में मेरी भर्त्सना की, "शर्म नहीं आती ऐसी बेहया कहानी लिखने में।"

किन्तु मेरी जननी की दृष्टि में-जो मेरी बेहया कहानी थी, वह स्वयं मेरी दृष्टि में एक ऐसी ईमानदार कहानी थी जिसमें मैंने एक बार भी कल्पना की बैसाखी नहीं टेकी थी। यही कहानी कभी सुनी थी अपनी संगीत-शिक्षिका रजुला से जो हीरामती बनकर उसमें उभरी है। शब्द उसके हैं, भाषा मेरी।

कथायात्रा का मूल्यांकन


मेरी कथायात्रा कितनी सफल रही, यह मूल्यांकन करना मेरे लिए क्या, किसी भी लेखक के लिए सम्भव नहीं है। यह मूल्यांकन कर सकता है केवल समय। किन्तु, इतना अवश्य सिर उठाकर कह सकती हूँ कि जितना लिखा है, ईमानदारी से लिखा है। यथार्थ को दूर धकेल केवल कल्पना के मसिपात्र में लेखनी नहीं डुबोई। मेरी रचनाएँ कितनी लोकप्रिय हुईं या मेरे कथा-साहित्य ने इस वर्ष कितनी रॉयल्टी बटोरी या मेरा कौन-सा उपन्यास फिल्म बनकर चमक सकता है, इन व्यर्थ की चिन्ताओं ने मुझे कभी विचलित नहीं किया। मुझे यद्यपि एक-दो बार चित्र-जगत् से आकर्षक प्रस्ताव भी प्राप्त हुए हैं, तथापि जिस नायिका को मैंने रात-दिन एक कर बड़े यत्न से गढ़ा है, वह अचानक दिशाज्ञान भूलकर किसी उजड्ड नायक के साथ किसी पेड़ की परिक्रमा करने लगे, यह कल्पना ही मुझे व्याकुल कर देती है। एक बार मेरे उपन्यास 'कैंजा' के फ़िल्मीकरण के अधिकार खरीदने कुछ चतुर घाघ व्यापारी मेरे पास आए-

“शिवानीजी, आपको पन्द्रह हजार देंगे किन्तु शर्त यह है, अन्त में नायक को आपने मार दिया है, उसे जिन्दा करना होगा। आप तो जानती हैं, अच्छी फ़िल्म में नायक कभी मरता नहीं।"

मेरा उत्तर भी मेरे तरकश से तत्काल तीर-सा छूटा, "देखिए, मरे आदमी को जिन्दा करने के लिए पन्द्रह हजार बहुत कम हैं।"

इसके बाद शायद मेरे रूखे अभद्र व्यवहार की चर्चा बम्बई में इतनी फैल गई कि आज तक कोई भी उत्साही फ़िल्म उद्योगी मेरी किसी नायिका का हाथ माँगने मेरे पास नहीं आए।

अल्बर्ट श्वाइजर की ये पंक्तियाँ मुझे नित्य नवीन प्रेरणा देती रही हैं और आज भी ये मेरी कथायात्रा का पाथेय बनी मेरे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं, "अत्यन्त गहरा चिन्तन विनम्र रहे-उसे केवल यह चिन्ता रहे कि जिस लौ की वह रक्षा कर रहा है, वह तीव्र से तीव्र ऊष्मा और शुद्ध से शुद्ध आलोक के साथ जलती रहे।"

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