संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
चौबीस
विज्ञान युग के आरम्भ में मोनालिसा के अमरस्रष्टा लियोनार्डो द विंची ने
अपनी क्रान्तिकारी विचारधारा से कलामर्मज्ञों को एक नई दृष्टि दी। उसने
नवीन सिद्धान्तानुसार, कला जब किसी निर्जीव या सजीव वस्तु को ज्यों का
त्यों प्रस्तुत करे, तब ही वह कला के स्थायी स्वर को सार्थक कर सकती है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसके सिद्धान्त को प्रमाणित करती, उसकी अमर कृति मोनालिसा आज भी अपनी उस रहस्यमयी मुस्कान से कालजयी बन कलामर्मज्ञों को मुग्ध करने में समर्थ है। उस विचारधारा के अनुसार कला किसी कृति में नहीं होती, प्रतिकृति में होती है। संक्षेप में कहें तो कलाकृति केवल सुन्दर ही न हो, शत-प्रतिशत सही भी हो।
भारतीय चित्रकला भी षडंग सिद्धान्तों में सादृश्य को सर्वाधिक महत्त्व देती है। जहाँ सादृश्य होगा, वही कलाकृति पहचानी जाएगी एवं उसका उचित मूल्यांकन हो पाएगा। कला में सादृश्य के इस अपरिहार्य नियम को शान्तिनिकेतन के कलाभवन ने सदैव महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, चाहे वह चित्रकला हो या मूर्तिकला। शायद यही कारण है कि शान्तिनिकेतन का कलाकार अपनी विशिष्ट व्यंजकता, परिप्रेक्ष्य, परिमाप इत्यादि के कारण कभीकभी उच्चभृकुटि-दोष का भागी बनता है। मुझे याद है, एक बार एक साहित्य सभा में श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने हमसे कहा था, "तुम्हारे इस आश्रम की शिक्षा का एकमात्र दोष क्या है, जानते हो? यहाँ से निकलने पर सामान्य स्तर का प्रदर्शन चाहे वह साहित्य का हो, संगीत का या रंगमंच का, तुम्हें कभी बाँध नहीं पाएगा। इसी से मुझे कभी-कभी तुम्हारे भविष्य के लिए चिन्ता भी होती है।"
आज शान्तिनिकेतन के जिन कलाकारों, मूर्तिकारों ने आश्रम का नाम धन्य किया है, अपील उच्च भृकुटि को उच्च रखकर भी सुख्याति अर्जित की, देखा जाए तो उनमें से प्रत्येक ने अपने विशिष्ट स्तर के वैशिष्ट्य को अक्षुण्ण रखा। जन संस्कृति के युग में कला के वाणिज्यीकरण के कारण जनता की रुचि ही अधिकांश कलाकारों को शासित करने लगी। शान्तिनिकेतन के किसी भी आत्मसम्मानी कलाकार ने इस वाणिज्यीकरण का समर्थन नहीं किया-वह सत्यजित राय हो, सुचित्रा मित्रा, कनिका या रामकिंकर, विनोद बिहारी मुखर्जी, मासोजी, खास्तगीर, शंखो चौधरी या अवतारसिंह पँवार। प्रत्येक ने यह प्रमाणित कर दिया कि श्रेष्ठ कृति भी जनप्रिय हो सकती है। यह एक साधारण उपलब्धि नहीं है। आश्रम के जिन दो मूर्तिकारों ने अपनी निःस्वार्थ एकान्त कला साधन से कवि गुरु की शिक्षा को सार्थक किया है, वे हैं--पद्मभूषण रामकिंकर और अवतार सिंह पँवार।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसके सिद्धान्त को प्रमाणित करती, उसकी अमर कृति मोनालिसा आज भी अपनी उस रहस्यमयी मुस्कान से कालजयी बन कलामर्मज्ञों को मुग्ध करने में समर्थ है। उस विचारधारा के अनुसार कला किसी कृति में नहीं होती, प्रतिकृति में होती है। संक्षेप में कहें तो कलाकृति केवल सुन्दर ही न हो, शत-प्रतिशत सही भी हो।
भारतीय चित्रकला भी षडंग सिद्धान्तों में सादृश्य को सर्वाधिक महत्त्व देती है। जहाँ सादृश्य होगा, वही कलाकृति पहचानी जाएगी एवं उसका उचित मूल्यांकन हो पाएगा। कला में सादृश्य के इस अपरिहार्य नियम को शान्तिनिकेतन के कलाभवन ने सदैव महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, चाहे वह चित्रकला हो या मूर्तिकला। शायद यही कारण है कि शान्तिनिकेतन का कलाकार अपनी विशिष्ट व्यंजकता, परिप्रेक्ष्य, परिमाप इत्यादि के कारण कभीकभी उच्चभृकुटि-दोष का भागी बनता है। मुझे याद है, एक बार एक साहित्य सभा में श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने हमसे कहा था, "तुम्हारे इस आश्रम की शिक्षा का एकमात्र दोष क्या है, जानते हो? यहाँ से निकलने पर सामान्य स्तर का प्रदर्शन चाहे वह साहित्य का हो, संगीत का या रंगमंच का, तुम्हें कभी बाँध नहीं पाएगा। इसी से मुझे कभी-कभी तुम्हारे भविष्य के लिए चिन्ता भी होती है।"
आज शान्तिनिकेतन के जिन कलाकारों, मूर्तिकारों ने आश्रम का नाम धन्य किया है, अपील उच्च भृकुटि को उच्च रखकर भी सुख्याति अर्जित की, देखा जाए तो उनमें से प्रत्येक ने अपने विशिष्ट स्तर के वैशिष्ट्य को अक्षुण्ण रखा। जन संस्कृति के युग में कला के वाणिज्यीकरण के कारण जनता की रुचि ही अधिकांश कलाकारों को शासित करने लगी। शान्तिनिकेतन के किसी भी आत्मसम्मानी कलाकार ने इस वाणिज्यीकरण का समर्थन नहीं किया-वह सत्यजित राय हो, सुचित्रा मित्रा, कनिका या रामकिंकर, विनोद बिहारी मुखर्जी, मासोजी, खास्तगीर, शंखो चौधरी या अवतारसिंह पँवार। प्रत्येक ने यह प्रमाणित कर दिया कि श्रेष्ठ कृति भी जनप्रिय हो सकती है। यह एक साधारण उपलब्धि नहीं है। आश्रम के जिन दो मूर्तिकारों ने अपनी निःस्वार्थ एकान्त कला साधन से कवि गुरु की शिक्षा को सार्थक किया है, वे हैं--पद्मभूषण रामकिंकर और अवतार सिंह पँवार।
विचारों में बेंत-सी लपलपाती सत्यनिष्ठ उग्रता
टिहरी गढ़वाल के उच्च राजपूत राजघराने में जन्मे अवतार सिंह की कला एवं व्यक्तित्व दोनों में एक राजपूती अक्खड़ बाँकपन है, जिसने उनकी कला को भी एक निर्भीक विशिष्टता प्रदान की है। गुरुदेव ने एक स्थान पर कहा है, "किसी भी कलाकार की कला को परखने के लिए आवश्यक है कि हम पहले उसकी मानवता, उसके जीवन-दर्शन, उसकी विचारधारा को परखें। मनुष्य के स्वभाव एवं उसकी कला अन्तरंग सूत्र में संलग्न रहते हैं, किन्तु ऐसा बहुत कम होता है कि हम कलाकार के हृदय एवं उसकी कला को एकसाथ परखें। यदि ऐसा सम्भव होता, तो उसकी कला की सत्यता को पहचानने में हमें प्रयत्न नहीं करना पड़ता।"
स्वभाव में बेंत-सी लचीली नम्रता किन्तु विचारों में बेंत की छड़ी-सी ही लपलपाती सत्यनिष्ठ उग्रता, जो अन्याय की सामान्य चिंगारी से ही सुलगकर भभकने लगती है, पँवार के सरल, सहज स्वभाव की विशिष्टता है। और फिर, इस विशिष्टता को शान्तिनिकेतन के गुरु की शिक्षा ने और पुष्ट किया-
विपदे मोर रक्षा करो
ए नहिं मोर प्रार्थना
विपदे आमी ना करी
जैनो भय!
"विपत्ति में मेरी रक्षा करो, यह मेरी प्रार्थना नहीं है प्रभु, मुझे इस योग्य बनाओ कि मैं विपत्ति से कभी न डरूँ।" कला एवं कलाकार को कुछ वर्षों पूर्व हमारा प्रदेश कितना संरक्षण दे पाया है, यह एक विवादास्पद विषय है। बहुत पूर्व एक बार एक मुख्यमन्त्री पँवार के कुछ ईर्ष्या कातर विरोधियों के कहने पर उनसे रुष्ट हो गए एवं उन्हें घर से निकालने के लिए पुलिस की सहायता ली। ऋद्ध-संतप्त कलाकार ने पाँच महीने के कठिन परिश्रम से बनाई गई अपनी दसफुटी लेनिन की मूर्ति को अपने हाथों तोड़कर फेंक दिया। कहा जाता है कि वहीं खड़ा एक पुलिस का सिपाही भी भग्न मूर्ति को देखकर रो पड़ा। पुलिस की आँखों में आँसू सहज ही में नहीं आते, इसी से अनुमान लग सकता है कि उस कलाकृति का सौष्ठव कैसा रहा होगा। और जब मुख्यमंत्री को अपने अन्याय का आभास हुआ और शायद कुछ प्रतिकार करने का ध्यान आया तब ही सहसा उनका मंत्रिमंडल भी भग्न मूर्ति की भाँति मिट्टी में मिल गया।
देश-सेवा में योगदान
भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय भी इस कर्त्तव्यनिष्ठ कलाकार ने अपने अनोखे ढंग से देश-सेवा में अपना योगदान दिया। कभी देहरादून की रॉयल इंडियन मिलिटरी ऐकेडमी के छात्र रह चुके थे और शायद वही भूली-बिसरी बिरादरी का मोह उन्हें नित्य चारबाग (लखनऊ) स्टेशन पर खींच ले जाता। फौजियों से भरी ट्रेन आती और वह वहीं पर उनके पेन्सिल-स्केच बनाकर उन्हें थमाते। मुजीबुर्रहमान, रवीन्द्रनाथ एवं जनरुल इस्लाम की दर्शनीय मूर्तियों के अतिरिक्त उन्होंने अनेक सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया। दो वर्ष पूर्व शान्तिनिकेतन के भूतपूर्व अध्यापक श्री अनिल चंदा के आग्रह पर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री की कांस्य प्रतिमा का निर्माण आरम्भ किया, किन्तु अनेक कारणों से वह सुन्दर कृति अभी भी अधूरी पड़ी है। लेकिन मुझे विश्वास है कि बनने पर वह प्रधानमंत्री की सुन्दरतम अनुकृतियों में से एक होगी।
"आप इसे पूरा क्यों नहीं करते?" मैंने पूछा।
"अनेक कठिनाइयाँ हैं," उन्होंने एक दीर्घ श्वास लेकर कहा, “उसके लिए एक विशेष प्रकार की अग्निगर्भा भट्ठी का होना अनिवार्य है। वह किसी रेलवे वर्कशाप में ही जुट सकती है, किन्तु वहाँ वह परिवेश नहीं जुटा सकता। जहाँ परिवेश है, वहाँ सुविधा नहीं है। मैं शान्त निःसंशय चित्त से वहाँ इसे सँवार नहीं सकता।"
एक गौरवमय कला-यात्रा
कलाक्षेत्र में बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस कलाकार ने केवल मूर्तिकला ही में नहीं, ग्राफिक्स, चित्रकला में भी नाना प्रकार की निपुणता का परिचय दिया है। अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों का विजेता यह कलाकार जहाँ भी गया, जिस मूर्ति का भी निर्माण किया, उसी में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ दी। सम्प्रति : (इन पंक्तियों के लिखने तक) गढ़वाल में महात्मा बुद्ध की एक सुदीर्घ भीम प्रतिमा के निर्माण में संलग्न हैं। 3658 मीटर की मूर्ति के निर्माण के लिए सीढ़ी लगा सुबह सात बजे चढ़ते हैं और उतरते हैं सन्ध्या सात बजे। वहीं चाय, वहीं भोजन पहुँचा दिया जाता है। इस अद्भुत मूर्तिकार के इस अकथ
परिश्रम से बन रही यह मूर्ति शिला में जाग उठेगी। निर्जीव शिला में उकेरे गए महिमामय मुख की रेखाओं को सँवारने में इस प्रतिभाशाली मूर्तिकार को प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा। क्षमा के लिए अधरोष्ठ की स्निग्ध भंगिमा हो या चिबुक की सुचिक्कन दृढ़ता, भृकुटि का तनाव हो या विजय का उल्लास, पँवार निश्चय ही अपने अनोखे ढंग से मूर्ति में जीवन्त कर देगा।
पँवार की अनेक बहुचर्चित मूर्तियों में दर्शनीय हैं लखनऊ आर्ट स्कूल के द्वार पर स्थापित बुद्ध की विराट् मूर्ति, जिसे देखकर अनायास ही शान्तिनिकेतन के कला-भवन के प्रांगण में खड़ी, रामकिंकर द्वारा निर्मित, बुद्ध की काली मूर्ति का स्मरण हो आता है। अल्मोड़ा को प्रदत्त इनकी बापू की मूर्ति, मुझे बापू की सुन्दरतम मूर्तियों में भी सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होती है। लखनऊ के चिड़ियाघर में सटेरियम के द्वार पर बनी सँपेरे की मूर्ति, नेहरूजी की, मिलखासिंह की, ध्यानचन्द की, पटौदी की। किन्तु बापू के बाद उनकी जिस मूर्ति ने मुझे सर्वाधिक मोहा, वह है उनकी एक भारवाहिका की मूर्ति। यह अपूर्व मूर्ति कल्पना एवं भाव-बोधकता में परखम तथा बेसनगर की यक्षिणियों की मूर्तियों के समकक्ष रखी जा सकती है। रूपायन, आकर्षण, सौन्दर्य एवं चेहरे की शालीनता, सभी अभूतपूर्व हैं। शुंगकाल की चँवरधारिणी मूर्ति इतिहास-प्रसिद्ध है। पत्थर की सर्वतोभद्रिका नारी-मूर्ति चँवर धारण किए जिस भंगिमा में खड़ी है वैसी ही भंगिमा इसकी भी है। निर्वस्त्र वक्ष, कटिवेष्टित शिथिल रज्जु-बन्धन, उन्नत नासिका, अर्धोन्मीलित नयन, सबकुछ मिलाकर पँवार की मूर्तिकला का अप्रतिम कृतित्व स्पष्ट रूप से मुखरित हो उठे हैं। केशकलाप से लेकर रज्जु-बन्धन की एक-एक ऐंठ अत्यन्त सजीवता के साथ उत्कीर्ण हैं। इनके इसी मौलिक कृतित्व से प्रभावित होकर पद्मभूषण डॉ. राधाकमल मुखर्जी, पद्मश्री खास्तगीर एवं बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जैसे प्रसिद्ध कलाविदों ने इनकी कला के विषय में कहा था, "अठारहवीं शताब्दी के प्रख्यात पहाड़ी कवि चित्रकार मोलाराम के पश्चात् उत्तरप्रदेश ने जो दूसरा महान मूर्तिकार-चित्रकार भारत को दिया है, वह है अवतारसिंह पँवार।" किन्तु हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि किसी भी कलाकार की कला को सराहने के लिए हमारा तृतीय नेत्र तब ही खुलता है जब वह नहीं रहता। मोलाराम को भी क्या जीवन-काल में ही यशप्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त हुआ था? जीवन-काल में ही यशप्राप्ति बिरले ही कलाकार को प्राप्त होती है और एक प्रकार से विधि की यह विडम्बना ही उसकी कला को दिन-प्रतिदिन निखारती भी है। भगवान मनु ने शायद इसीलिए सम्मान-प्राप्ति को विष की भाँति परित्याग करने का आदेश दिया है। निष्ठुर विरोध का प्रभूत दान ही कलाकार का सर्वोच्च सम्मान है। फलों से लदे वृक्ष पर ही पत्थर फेंके जाते हैं, फलहीन नीरस बाँझ तरुवर पर पत्थर फेंकता ही कौन है?
पँवार की मूर्तिकला ने जिस ओजस्वी-ऊर्जस्वित भावना से निर्जीव शिला को प्राण स्पन्दित किया है, उसे मान्यता देने का प्रश्न ही नहीं उठता, एक-नएक दिन ऐसी कला स्वयं ही मान्यता प्राप्त कर लेती है।
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