संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
तेईस
सिरहाने की खिड़की खोलते ही दक्षिणी समुद्री बयार जब मुझे आपादमस्तक झकझोर
जाती है, तब पहली बार आभास होता है कि इस बयार का यह किसी दुःसाहसी दस्यु
का-सा व्यवहार उत्तर की बयार से एकदम विपरीत है। वहाँ की पुरबिया या पछुवा
में यह तीव्रता भला आ भी कैसे सकती है! समुद्रतट मेरे निवास से प्रायः सटा-सा
ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मद्रास का समुद्रतट भारत के सर्वश्रेष्ठ
समुद्रतटों में एक उल्लेखनीय समुद्रतट है। आज सुदूर विस्तृत इस
दमकीली-भड़कीली नगरी को देखकर कौन कह सकता है कि चार सौ वर्ष पूर्व यह कुछ
मछुओं की एक निभृत बस्ती-मात्र थी। यदि देखा जाए तो मद्रास का इतिहास
मायलापुर तिरुवोत्रियूर, पल्लेवरम की तुलना में अपेक्षाकृत कम प्राचीन है।
सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में, मद्रास समुद्रतट पर धरणी की एक प्रशस्त पट्टीमात्र था। इसके उत्तर में एक छोटा-सा ग्राम था, मद्रासापट्टनम। उसी नाम का अब यह संक्षिप्त प्रचलित नाम है मद्रास। पट्टनम तमिल में शहर को कहते हैं।
इसी ग्राम के सीमान्त के उस प्रशस्त मुरब्बे को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 22 जुलाई, 1639 में कैसे प्राप्त किया, इसका भी एक रोचक अतीत है। अयप्पा नायक जौन कम्पनी के फैक्टरी-प्रभु फ्रांसिस डे के परम मित्र थे। उन्होंने अपने भाई वेंकटाद्रि से, जो विजयनगर राज्य के तत्कालीन गवर्नर थे, अनुरोध किया कि वे उस जनशून्य जमीन के मुरब्बे को फ्रांसिस डे को भेंट कर दें। इस प्रकार वह जमीन आबाद हुई। कुछ झोंपड़ियों का निर्माण कर सन् 1640 में नवीन आंग्ल फैक्टरी को जन्म दिया गया, और वे ही झोंपड़ियाँ धीरे-धीरे 1654 में प्रख्यात फोर्ट सेंट जॉर्ज के रूप में परिवर्तित हो गईं। देखते ही देखते कर्मठ आंग्ल प्रभुओं ने वहाँ अपनी घनी बस्ती बसा ली और मद्रास के पहले गिरजाघर का निर्माण हुआ। जैसाकि तब प्रायः ही इन नवीन बस्तियों को एक विशिष्ट अवांछनीय रंगभेद की लक्ष्मण-रेखा से विभक्त किया जाता था, यहाँ भी दो बस्तियाँ बन गईं 'हाइट टाउन' अर्थात् सफेद शहर केवल सफेद चमड़ी के लिए और 'ब्लैक टाउन' कृष्णवर्णी निवासियों के लिए, बीच में खड़ी कर दी गई एक अभेद्य दीवार।
वैसे 'ब्लैक टाउन' को मद्रास की जमीन भेंट रूप में देनेवाले अयप्पा नायक के पिता की स्मृतिरूप में ही मान्यता प्राप्त हुई। इसी ब्लैक टाउन में पट्टनम पेरुमल के प्रख्यात मन्दिर की स्थापना हुई, जो फ्रांसीसी आक्रमण को तो झेल गया, किन्तु 1757 में अंग्रेज शासकों ने इसे भग्न कर 1766 में इसका पुनर्निर्माण किया। अब मद्रासपट्टनम की मछुओं की छोटी-सी बस्ती पूरे शहर का रूप ले चकी थी। आसपास के अनेक छोटे-छोटे ग्राम मद्रास शहर में मिलकर स्वयं उसकी सीमावृद्धि करते गए। गवर्नर येल ने, जिन्होंने बाद में प्रसिद्ध येल विश्वविद्यालय की स्थापना की, औरंगजेब से प्रार्थना की कि वह एगमोर को भी मद्रास में सम्मिलित करने की अनुमति प्रदान करें। उधर नवाब दाऊदखान ने पाँच महत्त्वपूर्ण बड़े ग्रामों को भी उन्हें भेंट कर दिया। 1749 में मायलापुर एवं सेंट थॉम ने मद्रास की श्रीवृद्धि की। उत्तर में एनोर से लेकर दक्षिण में तम्बरम तक, मद्रास अपने पूरे पैर फैला चुका था। आज उसी ऐतिहासिक फोर्ट सेंट जॉर्ज से, सम्पूर्ण तमिलनाडु का राज्य संचालन होता है। यहाँ के बीस ऐतिहासिक स्तम्भ आज भी उसी शान से पूरे तमिलनाडु की बागडोर थामे खड़े हैं, जैसे 1732 में खड़े थे। यहीं सेंट मेरी का एशिया का प्राचीनतम गिरजाघर है। इसी ऐतिहासिक गिरजाघर में गवर्नर येल का विवाह हुआ था। यहीं क्लाइव ने अपनी नववधू को अंगूठी पहनाई थी।
सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में, मद्रास समुद्रतट पर धरणी की एक प्रशस्त पट्टीमात्र था। इसके उत्तर में एक छोटा-सा ग्राम था, मद्रासापट्टनम। उसी नाम का अब यह संक्षिप्त प्रचलित नाम है मद्रास। पट्टनम तमिल में शहर को कहते हैं।
इसी ग्राम के सीमान्त के उस प्रशस्त मुरब्बे को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 22 जुलाई, 1639 में कैसे प्राप्त किया, इसका भी एक रोचक अतीत है। अयप्पा नायक जौन कम्पनी के फैक्टरी-प्रभु फ्रांसिस डे के परम मित्र थे। उन्होंने अपने भाई वेंकटाद्रि से, जो विजयनगर राज्य के तत्कालीन गवर्नर थे, अनुरोध किया कि वे उस जनशून्य जमीन के मुरब्बे को फ्रांसिस डे को भेंट कर दें। इस प्रकार वह जमीन आबाद हुई। कुछ झोंपड़ियों का निर्माण कर सन् 1640 में नवीन आंग्ल फैक्टरी को जन्म दिया गया, और वे ही झोंपड़ियाँ धीरे-धीरे 1654 में प्रख्यात फोर्ट सेंट जॉर्ज के रूप में परिवर्तित हो गईं। देखते ही देखते कर्मठ आंग्ल प्रभुओं ने वहाँ अपनी घनी बस्ती बसा ली और मद्रास के पहले गिरजाघर का निर्माण हुआ। जैसाकि तब प्रायः ही इन नवीन बस्तियों को एक विशिष्ट अवांछनीय रंगभेद की लक्ष्मण-रेखा से विभक्त किया जाता था, यहाँ भी दो बस्तियाँ बन गईं 'हाइट टाउन' अर्थात् सफेद शहर केवल सफेद चमड़ी के लिए और 'ब्लैक टाउन' कृष्णवर्णी निवासियों के लिए, बीच में खड़ी कर दी गई एक अभेद्य दीवार।
वैसे 'ब्लैक टाउन' को मद्रास की जमीन भेंट रूप में देनेवाले अयप्पा नायक के पिता की स्मृतिरूप में ही मान्यता प्राप्त हुई। इसी ब्लैक टाउन में पट्टनम पेरुमल के प्रख्यात मन्दिर की स्थापना हुई, जो फ्रांसीसी आक्रमण को तो झेल गया, किन्तु 1757 में अंग्रेज शासकों ने इसे भग्न कर 1766 में इसका पुनर्निर्माण किया। अब मद्रासपट्टनम की मछुओं की छोटी-सी बस्ती पूरे शहर का रूप ले चकी थी। आसपास के अनेक छोटे-छोटे ग्राम मद्रास शहर में मिलकर स्वयं उसकी सीमावृद्धि करते गए। गवर्नर येल ने, जिन्होंने बाद में प्रसिद्ध येल विश्वविद्यालय की स्थापना की, औरंगजेब से प्रार्थना की कि वह एगमोर को भी मद्रास में सम्मिलित करने की अनुमति प्रदान करें। उधर नवाब दाऊदखान ने पाँच महत्त्वपूर्ण बड़े ग्रामों को भी उन्हें भेंट कर दिया। 1749 में मायलापुर एवं सेंट थॉम ने मद्रास की श्रीवृद्धि की। उत्तर में एनोर से लेकर दक्षिण में तम्बरम तक, मद्रास अपने पूरे पैर फैला चुका था। आज उसी ऐतिहासिक फोर्ट सेंट जॉर्ज से, सम्पूर्ण तमिलनाडु का राज्य संचालन होता है। यहाँ के बीस ऐतिहासिक स्तम्भ आज भी उसी शान से पूरे तमिलनाडु की बागडोर थामे खड़े हैं, जैसे 1732 में खड़े थे। यहीं सेंट मेरी का एशिया का प्राचीनतम गिरजाघर है। इसी ऐतिहासिक गिरजाघर में गवर्नर येल का विवाह हुआ था। यहीं क्लाइव ने अपनी नववधू को अंगूठी पहनाई थी।
हर पत्थर में इतिहास
देखा जाए तो मद्रास के इस क्षेत्र के हर पत्थर से इतिहास बोलता है। क्लाइव हाउस, जहाँ कभी क्लाइव ने अपने जीवन का चरमोत्कर्ष देखा, जहाँ बेचैन करवटें बदलीं। वैलेजली हाउस, जिसे वाटरलू के प्रख्यात योद्धा ड्यूक ऑफ वेलिंगटन ने अपना निवास स्थान बनाया। फोर्ट सेंट जॉर्ज, जहाँ क्लाइव ने कभी क्लर्की की, कलम घिसी। और फिर भारत में ईसाई धर्म का प्रथम स्मृतिचिन्ह सेंट थॉमस का गिरजाघर। कहा जाता है कि सन्त थॉमस के साथ ही भारत में पहली बार ईसाई धर्म ने पदार्पण किया। मार्कोपोलो के वृत्तान्तानुसार, कुछ मछुओं ने उनकी हत्या कर दी, और उन्हीं की स्मृति में इस गिरजाघर का निर्माण हुआ। जब पन्द्रहवीं शताब्दी में पुर्तगाली यहाँ बसने आए, तो खुदाई में उन्हें एक ताजे रक्त से सना क्रॉस प्राप्त हुआ। जितनी ही बार रक्त पोंछा जाता, उतनी ही बार ताजे रक्त की बूंदें फिर उभर आतीं। उन्हीं लोगों ने उस स्थान पर इन सन्त की स्मृति में इस गिरजाघर का निर्माण किया।
1846 में साउथ बीच रोड का निर्माण हुआ, आज वही मेरीना बीच मद्रास का श्रृंगारमुकुट है, विदेशी पर्यटकों का मुख्य आकर्षण। 10-12 कि.मी. लम्बे इस आकर्षक समुद्रतट का आरम्भ होता है 'अन्ना समाधि' से। पास ही में बड़ा-सा पार्क है। मेरीना से संलग्न इमारतों में सबसे शानदार आलमगीर इमारत है-कर्नाटक के नवाबों का महल। लगभग उसी के पीछे है-प्रसिद्ध क्रिकेट का मैदान। इसी सड़क पर दूसरी उल्लेखनीय इमारत है 'विवेकानन्द हाउस,' जो अंग्रेजों के समय में बरफखाना कहलाता था। विलासप्रिय आंग्ल प्रभुओं के आसवपात्रों को सुशीतल बनाने हेतु यहाँ विदेश से मँगाकर बर्फ सेती जाती थी! बाद में, स्वामी विवेकानन्द जब यहाँ आकर ठहरे तब इसका नाम स्वयं परिवर्तित हो गया। कर्नाटक के नवाबों का महल मुख्यतः दो भागों में निर्मित है, एक में अब सार्वजनिक निर्माण विभाग का दफ्तर है, दूसरा है हुमायूँ महल। नवाब उमरत-उल-उमराह ही अन्तिम नवाब थे, जिन्होंने इस महल में अन्तिम साँस ली। 1801 में उनकी मृत्यु के पश्चात् अंग्रेजों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। 1855 में जब नवाब गुलाम गौशखान बहादुर की मृत्यु हुई, तो नवाबशाही खत्म कर दी गई। उनके उत्तराधिकारी नवाबशाही की महिमामय पदवी से वंचित कर दिए गए। अब वेकहलाए गए 'प्रिंस ऑफ अर्काट'। 1870 में उन्हें 'अर्काट महल' की जागीर प्रदान कर पेंशन बाँध दी गई। किन्तु, दिल्ली उजड़ने पर भी दिल्ली ही रहती है। अभी गत वर्ष बँगलौर में मुझे दो दिन उस परिवार का साथ प्राप्त हुआ। शताब्दियों का आभिजात्य कभी बासी नहीं पड़ता, इसका मुझे बार-बार अनुभव हुआ। नवाब भले ही प्रिंस बना दिए जाएँ, नवाब नवाब ही रहते हैं, बेगम बेगम! मद्रास के प्रत्येक गिरजाघर के साथ एक-न-एक दन्त-कथा अवश्य जुड़ी है। सेंट थॉमस से लगभग डेढ़ कि.मी. की दूरी पर एक ऐसा ही गिरजाघर है, लज चर्च। कहा जाता है कि एक बार कुछ पुर्तगाली जहाजी भयानक समुद्री तूफान में फंस गए। अचानक मद्रास की उद्धत तरंगों के बीच उन्हें प्रकाशपुंज का आलोक दिखा। निरन्तर वह प्रकाशपुंज उन्हें संरक्षण देता तट पर पहुँचा गया, और फिर रहस्यमय ढंग से अदृश्य हो गया। उ सी दैवी प्रकाश के प्रति कृतज्ञता का स्मृतिचिन्ह पुर्तगालियों द्वारा निर्मित लज चर्च आज भी खड़ा है।
मायलापुर, जो कभी ब्लैक टाउन कहलाता था, अब मद्रास की प्रमुख बस्ती है। मायलापुर अर्थात् मयूर नगरी आज अपने कपालेश्वर देवालय के लिए ही अधिक प्रसिद्ध है। एक तो दक्षिण के मन्दिरों की सांध्यकालीन छटा वैसे ही दर्शनीय होती है। उस पर कपालेश्वर के मन्दिर पर तो जैसे एक रहस्यमय कोहरा-सा मँडराता रहता है। कोलाहल, कलरव, मृदंग और मन्त्रध्वनि के बीच भी मन्दिर प्रांगण में बैठते ही लगता है, ऐसा सुरम्य-शान्त स्थल और कोई हो ही नहीं सकता।
मन्दिर के बाहर सँकरी सड़क के दोनों ओर फूलों की असंख्य दुकानें पुष्पों की मदिर सुगन्ध, कतारबद्ध टॅगी अजगर-सी मोटी-मोटी पुष्पमालाएँ, चन्दन, धूप-अगरबत्ती, कपूर, रोली, अक्षत-सबकुछ पत्रसंपुट में तैयार। यही नहीं, मन्दिर के बाहर चप्पलों-जूतों के सदा जागरूक सचेत नन्हें-नन्हें चौकीदार, जो आपके पैरों से एक प्रकार से चप्पल उतारकर छीन लेते हैं। आराम से दर्शन कीजिए। यह नहीं कि बचपन में सुनी, उस कहानी के संसारलिप्त भक्त की भाँति 'त्वमेव माता' देवमूर्ति की ओर देखकर कहा, और फिर बाहर खोले गए ., जूतों की ओर संदिग्ध दृष्टि से निहार उसी भक्ति भाव से 'च पिता त्वमेव' कहा! चौकीदार का भाड़ा भाव दस पैसे। पूरे मन्दिर की विराट परिक्रमा करने और विभिन्न मूर्तियों के दर्शन करने में पौन घंटा तो कम-से-कम लगता है। इस सुदीर्घ अवधि का दस पैसे का चप्पल-जूता बीमा किसी कृपण दर्शनार्थी को भी नहीं खल सकता।
लगाव मातभाषा से
मद्रास में नागरिकों की जिस विशेषता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, वह है उनकी अटूट धर्मनिष्ठा एवं मातृभाषा के प्रति प्रगाढ़ लगाव। भारत में सम्भवतः अन्य कोई ऐसा शहर नहीं हो सकता जहाँ नित्य ऐसी प्रभूत धर्मचर्चा होती हो। इतने दिनों से यहाँ के सर्वाधिक लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र 'द हिन्दू' के रोजनामचे को ध्यानपूर्वक पढ़ रही हूँ, उसमें मद्रास के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों की सूची, नित्य नियमित रूप से एक विशिष्ट स्तम्भ में छपती है। आधे से अधिक स्तम्भी कलेवर इन्हीं सूचनाओं से भरा रहता है-रामायणम्श्री वेंकटारमण शास्त्री-स्थान शिवाबिष्णु मन्दिर, टी.नगर। (2) श्री सिंगार सुब्रह्मण्यम शास्त्री-साई समाज, मायलापुर, सन्ध्या 7 बजे। (3) श्री एन. लक्ष्मी नारसिंहम, विनायक मन्दिर 7.15। (4) श्रीमती कृष्णाजी अवादि रोड, 7.15। यह तो रही रामायण चर्चा, उसी के नीचे छिपी है महाभारतम् सूचना-श्री टी. एस. बालकृष्णन् शास्त्री, वीनस कॉलोनी-श्री आर. कानन आयंगर, श्रृंगेरीमठ-फिर है, भागवतम् चर्चा सुनने की सुव्यवस्था-श्री के. श्रीनिवासन गौडीयमठ। इसी प्रकार गीता, विवेकचूड़ामणिम्, सर्व शिवमयं, रामकृष्णचरितामृत आदि। यह मैं समाचार-पत्र के पृष्ठ से केवल एक दिन का रोजनामचा ज्यों का त्यों उतारकर रख रही हूँ। इसके अतिरिक्त, इसी पृष्ठ के पीछे किसी भी उल्लेखनीय प्रवचन की सुलिखित व्याख्या भी अवश्य छपती है। यही लगाव अपनी मातृभाषा के प्रति भी है। ऐसा नहीं कि वे हिन्दी समझते ही नहीं हैं, या टूटी-फूटी बोल नहीं सकते, क्योंकि मद्रास के उन सिनेमा के प्रेक्षागृहों के सम्मुख तमिल-भाषियों की सर्वाधिक भीड़ जुटी रहती है जहाँ हिन्दी फ़िल्म लगी हो। भीड़ भी ऐसी कि थाली फेंकिए तो सिर ही सिर होकर उछलती चली जाए। यही नहीं, चटपटे फ़िल्मी कथोपकथन के बीच उनकी प्रशंसात्मक तालियाँ और कहकहे भी इसी सत्य का समर्थन करते हैं, कि चाहने पर वे हिन्दी खूब समझ सकते हैं, किन्तु वे अपने इस हिन्दी ज्ञान का किसी भी रूप में प्रदर्शन करने में विश्वास नहीं करते।
अन्य भाषा-भाषी भी यदि तमिलनाडु आते हैं, तो ये कट्टर परम्परावादी मेजबान यही चाहते हैं कि वे भी मर्मातक चेष्टा से पहले उनकी भाषा सीखें, तब ही उनकी मैत्री सहज, सुलभ रूप में उपलब्ध हो सकती है अन्यथा नहीं। इसी से यहाँ अन्य प्रदेशी पर्यटकों के लिए मुख्य समस्या है भाषा की। हिन्दी तो दूर, अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर भी जब यहाँ मुंडी हिलाकर 'इल्लैइल्लै' अर्थात् नहीं-नहीं में मिलता है, तो मुझे गुरुदेव से सुना हेरंब मित्र के विषय में एक रोचक प्रसंग याद हो आता है। श्री हेरंब मित्र तब बंगाल के एक प्रख्यात ब्रह्मसमाजी थे, सिनेमा के कट्टर विरोधी। एक बार सांध्यकालीन भ्रमण के लिए निकले तो एक हड़बड़ाए से युवक से टकरा गए, “मोशाई, बोलते पारेन 'छाया' सिनेमा हॉलटा कोथाय (महोदय, बता सकेंगे, 'छाया' सिनेमा हाल किधर है)?" युवक शायद सिनेमा का समय हो जाने के कारण बहुत जल्दी में था।
“ना," गम्भीर स्वर में रूखा उत्तर देकर श्री मित्र आगे बढ़ गए, किन्तु सत्यवादिता भी उनके संयमित जीवन का एक अभिन्न अंग थी, इसी से सोचा, यह तो ठीक नहीं किया। वह सिनेमा हॉल बीस कदम पर है, फिर भी झूठ बोल गए। तेजी से आगे बढ़कर, उस युवक को पुकारकर बुलाया और उसी तेजी से एक साँस में कहा, "मोशाई, जानी किन्तु बोलबो ना। (महोदय, रास्ता जानता हूँ, किन्तु बताऊँगा नहीं)।" इतना कहते ही छड़ी घुमाते आगे निकल गए। यहाँ की 'इल्लै-इल्लै' भी मुझे श्री हेरंब मित्र की 'जानी किन्तु बोलबो ना' वाली जिद्दी सनक-सी लगती है। यदि ऐसा नहीं है तो हिन्दी फ़िल्मों का ऐसा अपूर्व रसास्वादन लेनेवाले दर्शक हमारी एक सामान्य-सी जिज्ञासा का भी उत्तर क्यों नहीं दे सकते? किन्तु फिर भी मुझे उनकी इस जिद्दी सनक के पीछे, उनका अपनी मातृभाषा के प्रति प्रगाढ़ लगाव ही अधिक दृष्टिगत होता है। साथ ही अपनी वेशभूषा, खान-पान के प्रति भी उनका यह अनुराग अनुकरणीय है और हम हिन्दीभाषी उन हिन्दी समर्थकों को बहुत कुछ सिखा सकती' हैं, जो हिन्दी प्रचार के लिए नगाड़े-दमामे बजाने ही में अपनी समग्र शक्ति चुका बैठते हैं।
मेरे आवास के निकट ही एक प्रशस्त सड़क पर नित्य स्कूली बस की भीड़ कोलाहल करती बस अड्डे की ओर उमड़ती जाती है, शायद ही उस भीड़ में कोई ऐसा बालक दृष्टिगत होता है जिसका श्यामवर्णी ललाट भस्म-विभूषित न हो! क्या हमारे प्रदेश के बच्चे या स्वयं उनके आधुनिक माता-पिता बालक को इस बहुरूपिया मुद्रा में स्कूल भेजने का साहस कर सकते हैं, भले ही वह कारपोरेशन का स्कूल ही क्यों न हो। प्रातःकाल उठते ही प्रत्येक गृहद्वार को स्वयं बाल्टीभर पानी से धों-पोंछ रंगोली बनाते मैं लगभग हर गृहस्वामिनी को नित्य देखती हूँ, जबकि मेरा आवास सेंट थॉमस की उस बस्ती में है, जहाँ सम्भवतः मद्रास का समृद्धतम वर्ग रहता है। रविवार के दिन यहाँ की भ्रमणप्रिय जनता परिवार सहित घूमने निकलती है। पुरुषों का परिधान लुंगी, जिसकी यवनिका को अवसर का गाम्भीर्य देख ह्रस्व या दीर्घ कर दिया जाता है, अर्थात् फार्मल होना हो तो लुंगी झटककर घुटनों के नीचे उतार दी जाती है, केवल इष्ट मित्रों का परिचित परिवेश हो तो वहीं लुंगी घुटनों के ऊपर उठ जाती है। देखनेवालों की अनभ्यस्त दृष्टि को दक्षिण का यह मर्दाना परिधान भले ही मर्यादाशील न लगे, पहननेवालों को इससे अधिक हवादार और आरामदायक परिधान और कोई नहीं जुट सकता।
शायद यही कारण है कि इस परिधान की उपादेयता अब हमारे प्रदेश में भी प्रतिष्ठित होकर अत्यन्त लोकप्रिय बन बैठी है। मैं मद्रास आने लगी तो मेरी एक परिचिता ने आग्रह किया, "आप मद्रास जा रही हैं, वहाँ लुंगियाँ बहुत सस्ती मिलती हैं, चार लेती आइएगा।" यहाँ आकर सोच रही हूँ कि यदि यहाँ से कोई दक्षिणी पर्यटक हमारे प्रदेश में जाता तो उससे भी कोई यह फरमाइश करता कि “आप लखनऊ जा रहे हैं, वहाँ के चिकन के कुर्ते प्रसिद्ध हैं, चार लेते आइएगा।"
शायद, कभी नहीं। हम भले ही उनके परिधान को ललक से ग्रहण कर लें, हमारे परिधान ग्रहण करने की उन्हें कोई ऐसी ललक कभी विचलित नहीं कर सकती। स्त्रियों को भी मैंने यहाँ बहुत कम शिफोन या नायलोन की साड़ियों का व्यवहार करते देखा है। चटकीले रंगों की जरीदार कन्नी की दक्षिणी कांजीवरम या धर्मावरम साड़ियाँ, बालों में पाव-पाव भर के पुष्पगुच्छ, कृष्णवर्णी नासिका पर नन्हीं-नन्हीं सर्चलाइट-सी दोनों ओर चमकती हीरे की लौंग! यहाँ अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में सह-शिक्षा की व्यवस्था है। कई बार इस मिश्रित भीड़ को देखा है, छात्राओं की कटि तक झूलती वेणी का या छात्रों की कृपणता से छोड़ी गई विरल केश-सज्जा का हमारे छात्रों की कन्धे तक झूलती मस्तानी अयाल या छात्राओं के लड़कों जैसे छंटे बालों का कोई साम्य नहीं है। फिर भी कुछ बातों में मद्रास अपनी आधुनिकता में दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई से कुछ कम नहीं है।
पर्यटकों का आकर्षण : महाबलीपुरम
महाबलीपुरम, जिसे यहाँ महामल्लपुरम कहा जाता है, विदेशी पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है। शायद इसलिए भी कि इसी के निकट कोवलोंग का दर्शनीय समुद्रतट है। महाबलीपुरम में पर्यटन विभाग ने एक से एक सुन्दर पर्यटक निवास बनाए हैं। कुछ झोंपड़ीनुमा छोटे-छोटे डिब्बे-से आवासगृह। हैं तो निराडम्बर झोंपड़ियाँ लेकिन उन वातानुकूलित भव्य सज्जामंडित झोंपड़ियों में केवल बादशाह ही रह सकते हैं। किन्तु महाबलीपुरम की गुदड़ी में छिपे हैं अद्भुत प्राचीनतम देवालयों के लाल! पल्लव कला की वह दर्शनीय छटा कलाप्रिय चित्त को सुशीतल ही नहीं करती, चट्टानों को खोदकर बनाई गई विराट् मूर्तियाँ पल भर को स्तब्ध कर देती हैं। कौन कह सकता है कि ये सातवीं शताब्दी की बनी मूर्तियाँ हैं। लगता है, अभी-अभी मूर्तिकार यहाँ से छैनी-हथौड़ी उठाकर विदा हुआ है। समुद्रतट पर बना भव्य मन्दिर ही यहाँ का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर है। मैं जब गई तो उद्धत जलधि तरंगें मन्दिर की प्रस्तर भित्ति पर क्रुद्ध पछाड़ें खा रही थीं और एक आकर्षक दक्षिणी महिला अपने कृष्णवर्णी स्कन्ध पर लाल धर्मावरम साड़ी का शोख आँचल फहराती कुछ विदेशी पर्यटकों को समझा रही थी, "यह अनन्तशयनम की मुद्रा है, उधर दूसरे शयन की मुद्रा है, उधर तीसरी..." फटाफट कैमरे चटक रहे थे।
प्रांगण में ही एक सँपेरा साँप की पिटारी खोले कुछ विदेशी पर्यटकों से दनादन नोट झाड़ रहा था-“ओनली इंडियन मनी सर, नो डॉलर..." नेवले से नुचे जा रहे विवश कृष्णचूड़ का फन बार-बार उग्र फूत्कार में तना जा रहा था और विदेशी पर्यटकों के ललछौंहें चेहरे उत्तेजना से रक्तिम पड़े जा रहे थे। यह है हमारा भारत! विदेशियों के उदार मनोरंजन के लिए हम केवल कृष्णचूड़ को ही नेवले से नहीं नुचवाते, स्वयं अपने सहनशील कर-पृष्ठ पर भी उसके दन्तक्षत सह लेते हैं। बार-बार सँपेरा अपनी मुट्ठी बाँध जानबूझकर क्रुद्ध नागराज के सम्मुख घुमाता उसके डंक ग्रहण कर रहा था और फिर एक बूटी घिस उसी क्षण सशक्त विज्ञापन भी करता जा रहा था, "बाय, सर?" (खरीदोगे, साहब), "वेरी इफेक्टिव" (बहुत असरवाला)। समुद्र की लहरें कब मुझे आपादमस्तक भिगो गईं, जान भी नहीं पाई किन्तु उस अनुपम देवालय को इस उदासीनता से क्यों छोड़ दिया गया है, समझ में नहीं आया। अनन्तशयन मुद्रा ही में क्यों न हो, देवमूर्ति तो है ही, पर न पूजा न पुजारी। लम्ब-धड़ग विदेशी जूते सहित मन्दिर के गर्भद्वार में प्रवेश कर तस्वीरें खींच रहे थे, पर कोई उन्हें नहीं रोक रहा था। पक्षीतीर्थ में नियम-कानून सख्त हैं। वहाँ भी मेरे पीछे-पीछे दर्जनों विदेशी थे। 585 सीढ़ियाँ चढ़कर जब मन्दिर तक पहुँचे, तो मैंने बड़े सन्तोष से देखा कि हमारी चप्पलों के साथ-साथ मेम साहब भी अपनी आठ गिरही एड़ियों की जूती उतार रही थीं। चिंगलपेट और महाबलीपुरम के मध्य स्थित तिरुकल्लीकुरनम में एक ऊँची चोटी पर ही यह पक्षीतीर्थ है। ठीक साढ़े ग्यारह बजे घड़ी के काँटे के साथ पक्षियों का एक जोड़ा जिस तत्परता से आकर पुजारी के हाथ से अन्न ग्रहण करता है, उसे देख सचमुच आश्चर्य होता है। कहा जाता है कि ये गरुड़ पक्षीद्वय अनादि काल से ठीक इसी समय वाराणसी से रामेश्वरम की यात्रा के बीच इस विश्रामस्थली पर उतरते हैं। आज तक इनके विषय में पढ़ा ही था, अपनी आँखों से देखा तो द्विजेन्द्रनाथ राय की पंक्ति का सत्य कानों में बज उठा-
ऐमन देशटी कोथाय खूजे पाबे नाकोतूमी
सकल देशेर रानी शेजे आमार जन्मभूमि
सचमुच ही ऐसा विचित्र चमत्कारों का देश क्या कहीं और मिल सकता है?
महाबलीपुरम से मद्रास के प्रत्यावर्तन के बीच पड़ता है-अडियार, जहाँ श्रीमती रुक्मिणी देवी ने सन् 1936 में कलाक्षेत्र की स्थापना की थी। कलाक्षेत्र के अतिरिक्त अडियार प्रसिद्ध है अपने दर्शनीय उन प्राचीन आवासों के लिए, जहाँ कभी अंग्रेज रहते थे। उन प्रशस्त बरामदों में खड़े गोल स्तम्भों की विशिष्ट बनावट मद्रास के आधुनिकतम मकानों से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। मैंने अभी हेमामालिनी का भव्यप्रासाद देखा था। बाहर से ही जितना देख पाई, मुझे लगा, उसमें भी वही दक्षिणी लटका है-ठोस द्वार, एक-एक कमरे में दर्जनों हवादार, दरवाजेनुमा खिड़कियाँ, घुमावदार बरामदे, प्रहरी-से खड़े कन्धे से कन्धा मिलाए नारियल के वृक्ष, जो समुद्री बयार का सामान्य-सा संकेत पाते ही विजन डुलाने लगता है। दोनों ओर प्रांगण, वह भी प्रशस्त, दक्षिणी स्थापत्य कला का एक अनिवार्य अंग है।
किन्तु परम्परा के कठिन रज्जुबन्धन में बँधे इस शहर की प्रत्येक गतिविधि में एक मशीनी तत्परता आ गई है, और इसी तत्परता ने यहाँ के निवासियों को स्वयं अपने ही में लिप्त-सा कर दिया है। अधिकांश गृहों में ठीक नौ बजे बत्ती बुझ जाती है। कम-से-कम मेरी बस्ती ठीक दस बजे मुर्दा बन जाती है।
लखनऊ में इतने वर्षों से रहती आई हूँ, इसी से नवीन प्रतिवेशियों की यह अस्वाभाविक उदासीनता कभी-कभी चित्त खिन्न कर देती है। लखनऊ के किसी भी मुहल्ले में कोई नया किराएदार आ जाए तो मुहल्ले-भर में ऐसी जिज्ञासा की लहर उमड़ जाती है, जैसे कोई मंगल ग्रह यात्री पृथ्वी पर उतर आया हो! पर यहाँ, राम राजा हो या रावण राजा, न किसी को कोई जिज्ञासा होती है, न कौतूहल! ऐसी हृदयहीन उदासीनता देख बार-बार लखनऊ की मेज़बानी की याद कलेजा मरोड़ने लगती है। मेजबानी ही नहीं, फेरीवालों की सुरीली कल्पनाशील हाँक, वहाँ की नफासत, यहाँ तक कि वहाँ के कौओं की काँव-काँव तक के लिए जी तरस उठता है। यहाँ के कौए भी काँव-काँव नहीं करते, शायद इसलिए भी कि सड़क पर धरे पात्रों में उन्हें इडली-दोसों की पर्याप्त जूठन मिलती रहती है। प्रत्येक फेरीवाले की हाँक का रहस्य जानने के लिए हम हिन्दीभाषियों का बरामदे से झाँकना अनिवार्य हो उठता है, क्योंकि विक्रय की जानेवाली वस्तु का पुकार में परिचय पाना हमारे लिए असम्भव है। एक दिन सुबह-सुबह उठी तो कर्कश स्वर में कोई नारीकंठ टिट्टिभ-सी करुण चीत्कार कर रहा था, 'मरी मरी मरी'। मैं भागकर बाहर गई, हाय बेचारी, कौन न जाने सुबह-सुबह ऐसे "मरी मरी मरी' करती सड़क पर बिलख रही है!
झाँककर देखा तो एक भारी-भरकम जनाना सिर पर हरी सब्जी की टोकरी धरे सब्जी बेच रही थी, “अम्माँ, किरी किरी?" मुझे देखते ही उसने बत्तीसी निकालकर पूछा तो समझ में आया, 'किरी किरी' है, 'मरी मरी' नहीं!
ऐसे ही छोटे-मोटे मौलिक चुटकुले यहाँ हम प्रवासियों का जी बहलाते रहते हैं।
अभी हम पक्षीतीर्थ की विकट सोपान पंक्ति के आरोह-अवरोह के पश्चात् थककर चूर 'क्रोकोडाइल बैंक' देखकर अपनी गहन क्लाति भुलाने की चेष्टा कर रहे थे कि अचानक कानों में पड़ा एक कंठ-स्वर गुदगुदा गया। एक तो वैसे ही यहाँ यदा-कदा कानों में पड़ गई हिन्दी बतकही वर्षा की प्रथम बूंद की-सी रसवृष्टि कर उठती है; उस पर तीन कंठस्वर एकसाथ हिन्दी में टकराए तो लगा, जलतरंग की कटोरियाँ खनखना रही हैं।
“अम्माँ, कहाँ हो...?"
“यहाँ हूँ मुन्ना...बहू, कहाँ है?"
"मैं यहाँ हूँ अम्माँजी!" हिन्दीभाषी माता, पुत्र और पुत्रवधू तीनों अलग-अलग तीन जलकुंडों में धूप में पसरे, भयावह मगरमच्छों को देखते एक-दूसरे की ओर शब्दबेधी बाण मार रहे थे। तभी विराट् वधू की स्वामिनी अम्माँजी फिर गरजी, "अरे-अरे, मुन्ना, ये बहू को ये मरे मगरमच्छ मत दिखाइयो, आजकल ऐसे में जैसी चीज देखो वैसी ही जन्मे है।"
बहू मेरे ही पास खड़ी थी। देखने पर उस बेचारी की जिस अवस्था का कोई भी संकेत किसी को नहीं मिल सकता था, उसे ही भरी सभा में अम्माँजी ने स्पष्ट कर दिया। बेचारी सहमी-सकुची मुद्रा में पीछे हट गई। आलस्य से पसरे मगरमच्छों की बीभत्स, भयावह सुदीर्घ काया देख यदि बेचारी दूरदर्शी अम्माँजी घबराकर चेतावनी न देतीं, तो करती क्या? संसार की कौन-सी दादी भला चाहेगी कि भावी पौत्र के स्थान पर ऐसा मगरमच्छ उसकी गोदी में खेले?
बहू को एक प्रकार से खींचती वह बाहर की ओर ले गईं और मैंने फिर उस दानव-से खतरनाक मगरमच्छ को ध्यान से देखा। मूर्तिमान आलस्य के रूप में परमानन्द से पसरी उस पथरीली देह को देखते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। बाहर लिखा था-'खतरनाक-हाथ अन्दर मत डालना!'
मैं सोच रही थी, बुद्धिमती अम्माँजी ने अच्छा किया, जो बहू को समय पर बाहर खींच ले गईं, क्योंकि पानी से निकलकर अभागा उसी ओर लपक रहा था, जहाँ कुछ क्षण पूर्व मुन्ना की फलवती बहू खड़ी थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि परिहास-रसिक विधाता मनुष्य को दुःसह एकान्त के कठिन क्षणों में भी गुदगुदाना खूब जानता है। मेरा एक अनुभव अभी-अभी मुझे बहुत कुछ सिखा गया। यह सुन चुकी थी कि यहाँ ईमानदारी का स्तर गुप्तकालीन उस स्वर्णयुग-सा नहीं है, जहाँ घरों में ताले नहीं लगते थे। जरा-सा द्वार या खिड़की खुली रही तो निमिषमात्र में आपकी कोई भी चीज गायब हो सकती है। कभी बचपन में पढ़ा था कि-"टु डिस्ट्रस्ट ए मैन इज टु मेक हिम डिसआनेस्ट (किसी भी मनुष्य पर अविश्वास करना उसे बेईमान बनाना है)।" सब्जीवाला आया, सब्जी खरीदी, तो उसने कहा, "रंडु उरपडे।" रंडु तो समझ गई कि दो रुपए, अब इस उरपद्द के लिए सिद्धान्त कौमुदी का कौन-सा पृष्ठ खोलूँ? मैंने जितनी रेजगारी थी, सब मुट्ठी में फैला दी कि ले बाबा, दो रुपए का नोट थाम और अपना उरपडे बटोर, बाकी रेजगारी छोड़ दे। सो उसने नोट उठा बड़ी प्रसन्नता से पूरी रेजगारी बटोर, परम औदार्य सहित दस पैसे टिप 'के रूप में मेरे लिए छोड़ दिए!
बाद में पता लगा कि उरपडे साठ पैसे होता है और बटोरी गई रेजगारी थी पूरे दो रुपए की। यह अनुभव आज मुझे मेरी प्रवास-शिक्षा का प्रथम महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ा गया।
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