संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
बाईस
अतीत के किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व से मिली सीख कभी-कभी अवसर पड़ने पर खरे
पुराने सोने की लीक-सी ही जीवन-कसौटी पर खरी उतरकर चमकने लगती है।
विदेशियों को हमने अपने ही साहस एवं सूझबूझ से वर्षों पूर्व भारत से खदेड़ दिया, यह सत्य आज भले ही हमारे विशुद्ध भारतीय अन्तःकरणों को उल्लसित कर दे, किन्तु शासन की बागडोर स्वहस्तों में समेटकर भी क्या हम उनका अनुशासन या उनकी सहृदय न्यायप्रियता ला पाए हैं? इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने मातहतों के लिए अपनी समस्त खामियों के बावजूद अधिकांश अंग्रेज हाकिमों ने अपने को एक आदर्श हाकिम ही सिद्ध किया। भारतीय मातहतों की ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता एवं निष्ठा को आँककर उसका उचित मल्यचकाने में अंग्रेज कभी कपणता नहीं बरतता था।
नैनीताल में मैं एक बार जिमकारबेट के एक वृद्ध गढ़वाली खानसामा से मिली थी, जिसे विदेश जाने से पूर्व कारबेट अपनी बहुमूल्य क्रौकरी, गलीचा, फर्नीचर दे गए थे। यही नहीं, जब तक जीवित रहे, अफ्रीका से उसकी पेंशन भी नियमित रूप से भेजते रहे।
ऐसे ही एक उच्चपदस्थ विदेशी हाकिम को मैं भी जानती थी, जिन्होंने अपने एक सामान्य-से अविवेकी आचरण का जो हर्जाना मृत्युपर्यन्त चुकाया, उससे बढ़कर गरिमामय प्रायश्चित्त और हो नहीं सकता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मिस्टर हेनरी तब बंगलौर में वार सेक्रेटरी थे, मेरे पिता के अफसर भी थे और अन्तरंग मित्र भी। निःसन्तान दम्पत्ति वहीं के प्रख्यात 'वेस्ट ऐंड' होटल में रहते थे। वेस्ट ऐंड तब आज के किसी भी पंच नक्षत्रखचित होटल से अधिक महिमामय था। अपना टेनिसकोर्ट, अपना पोस्ट ऑफिस, दर्शनीय कमरे, विराट अहाता, बुर्राक बैरे, बटलर और मखमली लान। टोक की चमकती रेलिंगदार सीढ़ियों और चिकने फर्श की दूधिया सुघड़ स्वच्छता छूने से मैली होती थी। तब पूरे बंगलौर में केवल मि. हेनरी के पास ही एकमात्र रोल्स रॉयल गाड़ी थी, जिसे वह हथेली पर उठाए फिरते थे। जब देखो तब लगता था, अभी-अभी खरीदकर लाए हैं और पहली बार बैठकर उन्होंने चाबी घुमाई है। हमें भी उसमें बिठाने से पूर्व मिसेज हेनरी निःसंकोच असंख्य हिदायतें देती थीं। बार-बार हमारा सिर सूंघतीं कि कहीं तेल तो नहीं डाला है। कहीं ऐसा न हो कि सरीती सुन्दर गाड़ी में बैठने का सुख हमारा तेल-सना माथा उनकी गुदगुदी गद्दी से सटकर सत्यानाश कर दे।
फिर उनका अल्पभाषी चालक बिजली, अपनी भुवनमोहिनी विनम्रता से एक पाँव पोंछ हमारे कदमों के सामने डाल देता, जिससे चप्पल पर लगी धूल-गर्द हम बाहर ही झाड़ लें। और फिर कार को अपनी अपूर्व देह-परिमल से सुवासित करती मिसेज हेनरी हमारे साथ पीछे बैठतीं। आगे बैठते मिस्टर हेनरी और बिजली। नाम के ही अनुरूप बिजली का व्यक्तित्व भी था। वही चटक-मटक और तेज, दुबला-पतला पर गजब का फुर्तीला। कसी खाकी जोधपुरी ब्रीचेस में सधी पतली टाँगें, वैसा ही डबल पाकेट का खाकी कोट, बैंजनी, सुनहली किनारी का सफेद साफा जिसका तुर्रा बंगाल के शंखचूड़ा नाग के उद्धत फन-सा तना रहता। गाड़ी चलाता क्या था, हवा में उड़ाता था।
भाई-बहनों में धरा की इस उड़ान का सुख सर्वाधिक मुझे ही प्राप्त था क्योंकि मिसेज हेनरी का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था, विशेषकर दो अवसरों पर मेरी पुकार अवश्य होती। एक तो जब वे दर्जी से अपने किसी बाल के लिए नया गाउन सिलाने निकलती या फिर जिस दिन उनका मिष्टदन्त जलेबी की फरमाइश करता।
साउथ परेड में एक ही दरजी था, जो उनकी परिमार्जित रुचि के साथ पूर्ण न्याय करने में समर्थ था और उनके आँख के एक-एक इशारे को समझ हूबहू गाउन में उतारने में सुई तोड़कर रख देता था।
मलमल में लपेटे रेशमी आलपाके की फसरफसर समेटे वे मेरी प्रतीक्षा में बैठी रहतीं जिससे अवसर पड़ने पर मैं उनकी बताई गई चुन्नट-तुरपनों की दुभानिया बन सकूँ।
बिजली अपनी फौजी सैल्यूट दागकर मुझे सूचित करता, "मेम साहब ने सलाम भेजा है, ठीक दस बजे साउथ परेड जाएँगी। पन्द्रह को मास्क बॉल है, नया गौन सिलेगा।" और फिर उस गाउन की सन्दर्भ सहित व्याख्या में कभी घंटों लग जाते-कैसी लेग ऑफ मटन स्लीव बनेगी, “कमरा में एकदम फिट माँगता, लूज नहीं।" वे अपनी कमर की विराट परिधि को अपने गुदगुदे गोरे हाथों में थामकर टेलर मास्टर को हिदायतें देती।
“ओ ऐलीना, 'कमरा' इज़ रूम, से 'कमर'।" मि. हेनरी कहते और फिर परिहास-प्रवण साहब की नीली आँखों में चुहल की सहस्र तरंगें तरंगायित हो उठती- “हे, व्हट डू यू से गौरा, इट इजंट ऐज बिग ऐज कमरा।"
फिर किसी रविवार को बिजली सैल्यूट दागकर मुझे बुलाने आ पहुँचता, "हजूर, मेम साहब ने सलाम भेजा है, जलेबी आई हैं।
जलेबी क्या आती कि पूरे कमरे में बहार आ जाती। जाकर देखती, गले में बड़ा-सा दुग्ध धवल नैपकिन लटकाए, पायरेक्स के डोंगे में गर्म जलेबियों को क्षुधातुरलोलुप अधीर दृष्टि से ही निगलती मिसेज हेनरी बैठी हैं।
"देयर शी इज़, हेनरी डियर, अब मैं नहीं रुक सकती, लाओ अपनी-अपनी प्लेट।" जल्दी-जल्दी हमारा हिस्सा परस वह जलेबियों पर शत्रु की निर्ममता से टूट पड़तीं। उन्हें जलेबी खाना देखना स्वयं में एक तृप्तिदायक पर्व प्रतीत होता। पूरी जलेबी मुँह में भर वह तुरन्त बत्तीसी जमा देतीं और टपाटप रस चूता उनके उत्तुंग वक्षक्षितिज को भिगोने लगता, परितृप्त आँखें मूंद जाती, पतले खानदानी नथुने फड़कने लगते, लाल-लाल गाल और लाल हो उठते, हाथ सन जाते पर वह एक के बाद एक जलेबी दागे चली जाती।
"ओ ऐलीना, यू आर वर्स दैन ए चाइल्ड।" मिस्टर हेनरी लपककर पत्नी के चिबुक पर बहती अशिष्ट रसधार को पोंछकर कहते।
पर वहाँ किसे चिन्ता थी। इसी मेज पर सर सुल्तान अहमद, सर मिर्जा इस्माइल, निजाम की रूपसी पुत्रवधुओं नीलोफर और दुरेशवार के साथ उन्हें कठोर मेज़ी अदब-कायदों की परम्परा निभाते भी मैंने देखा था और उसी मेज पर उनकी वह नितान्त स्वाभाविक भारतीय मुद्रा।
"देखो, हेनरी, तुम मुझे खाते वक्त मत रोका करो, क्या मजेदार हिन्दुस्तानी चीज है! इसे ऐसे ही चटखारे लेकर खाया जाता है। क्यों, है ना?" वह मेरी ओर मुस्कराकर देखतीं और चट से दूसरी जलेबी मुँह में धर लेतीं।
द्वार पर सन्तरी की मुद्रा में बिजली द्वारपाल बना खड़ा रहता कि कहीं मेम साहब की छोटा हाजरी के नन्दन-कानन में विघ्न डालने होटल का कोई बैरा आकर उनका यह अनाड़ी जलेबी-पर्व न देख ले। बिजली पर उनका अनन्य स्नेह था और स्वयं उसकी स्वामिभक्ति भी अपने में एक अनोखी मिसाल थी। मजाल है कि रात-आधी रात कभी भी साहब एक हाँक दें और वह उठकर न आ जाए। रियासत में रह चुका था, रियासती अदब-कायदे उसके जिह्वाग्र पर थे। मेरे पिता जब रामपुर में गृहमन्त्री थे, तब वह वहाँ था। उन्होंने उसे यहाँ बुला भेजा था, इसी से वह हमारे परिवार के प्रति भी अत्यन्त कृतज्ञ था। वह कृतज्ञता भले ही कभी उसके जिह्मग्र पर न आई हो, हमें देखते ही वह कृतज्ञता उसके पोर-पोर से टपकने लगती और फिर अचानक एक दुर्घटना ने उसे हमारे और निकट ला दिया।
एक बार अपने पिता के साथ मैं मिस्टर हेनरी की कार में एक डिनर पार्टी में जा रही थी। गाड़ी हमारे घर से निकली ही थी कि कभी न चूकनेवाले बिजली के हाथ विचलित हो गए। एक झटके के साथ खम्भे से टक्कर खा गई गाड़ी अचल हुई। मिस्टर हेनरी तत्काल कार की क्षति देखने उतर पड़े, साथ ही उतरा अपराधी चालक। मडगार्ड पर एक सामान्य-सा डिंग ही पिचका था किन्तु मेम साहब नीचे गिर पड़ती और कुहनी टूट जाती तब भी शायद मिस्टर हेनरी इतने विचलित नहीं होते। देखते ही वे आपे से बाहर हो गए। आव देखा न ताव, तडातड़ बिजली के गाल पर दो-तीन करारे तमाचे जड़ दिए। मेरे पिता ने उसी क्षण उतरकर उनका हाथ थाम लिया, "हेनरी, दिस इज वेरी अनब्रिटिश ऑफ यू।"
उनकी उस ह्रस्व भर्त्सना का एक-एक शब्द मुझे आज भी याद है। और उसी क्षण मिस्टर हेनरी ने सिर झुकाकर अपना खिसियाया हाथ बिजली की ओर बढ़ा दिया, “आई ऐम वैरी सॉरी बिजली," भरी भीड़ के सम्मुख उस उच्च विदेशी अधिकारी को अपने अपराधी चालक से क्षमा माँगने में रंचमात्र भी संकोच नहीं हुआ था। उन्होंने उससे हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठ गए।
जब हम लौटने लगे तो मिस्टर हेनरी ने मेरे पिता से कहा था, “पांडे, तुमने मुझे याद दिला दिया कि हम ब्रिटिश अफसरों के लिए भारतीय हृदय में जो सहृदय अफसर होने का आदर्श अंकित है, उसे अपने क्षणिक आवेश में मैं स्वयं मिटाने की मूर्खता कर बैठा था। मैं तुम्हारी सीख आजन्म गाँठ से बाँधकर रखूगा।"
उन्होंने उस सीख को आजन्म गाँठ से बाँधकर ही नहीं रखा, कब्र में जाने तक अपनी उस भूल का स्मरणीय प्रायश्चित्त किया। पिता की मृत्यु के अनेक वर्षों बाद मुरादाबाद के स्टेशन पर वृद्ध बिजली मुझे फिर मिला। पहचानते ही उसकी आँखें चमक उठीं, "खुदा बाबू साहब को जन्नत बख्शे! उन्होंने तो साहब को उस दिन समझाया था। विलायत चले गए पर बराबर 200 रुपया हर महीना हमें भेजते रहे। पाँच-पाँच बेटियों की शादियाँ कीं, हर बार खत भेजा तो बदस्तूर दो-दो हजार का चेक हमें भेजते रहे। जवानी-भर रियासत के मुलाजिम रहे। अपने हिन्दुस्तानी हाकिमों के न जाने कितने घूसे-थप्पड़ खाए पर वे तो उसे अपना हक समझते थे और हम अपनी बदकिस्मती। एक अंग्रेज हाकिम ने हाथ भी उठाया तो कब्र में जाने तक हर्जाना भरा। साहब नहीं, फरिश्ता था हुजूर।"
आज दीया लेकर ढूँढ़ने पर भी क्या हम अपने हाकिमों में ऐसे फरिश्ते ढूँढ़ पाएंगे?
विदेशियों को हमने अपने ही साहस एवं सूझबूझ से वर्षों पूर्व भारत से खदेड़ दिया, यह सत्य आज भले ही हमारे विशुद्ध भारतीय अन्तःकरणों को उल्लसित कर दे, किन्तु शासन की बागडोर स्वहस्तों में समेटकर भी क्या हम उनका अनुशासन या उनकी सहृदय न्यायप्रियता ला पाए हैं? इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने मातहतों के लिए अपनी समस्त खामियों के बावजूद अधिकांश अंग्रेज हाकिमों ने अपने को एक आदर्श हाकिम ही सिद्ध किया। भारतीय मातहतों की ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता एवं निष्ठा को आँककर उसका उचित मल्यचकाने में अंग्रेज कभी कपणता नहीं बरतता था।
नैनीताल में मैं एक बार जिमकारबेट के एक वृद्ध गढ़वाली खानसामा से मिली थी, जिसे विदेश जाने से पूर्व कारबेट अपनी बहुमूल्य क्रौकरी, गलीचा, फर्नीचर दे गए थे। यही नहीं, जब तक जीवित रहे, अफ्रीका से उसकी पेंशन भी नियमित रूप से भेजते रहे।
ऐसे ही एक उच्चपदस्थ विदेशी हाकिम को मैं भी जानती थी, जिन्होंने अपने एक सामान्य-से अविवेकी आचरण का जो हर्जाना मृत्युपर्यन्त चुकाया, उससे बढ़कर गरिमामय प्रायश्चित्त और हो नहीं सकता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मिस्टर हेनरी तब बंगलौर में वार सेक्रेटरी थे, मेरे पिता के अफसर भी थे और अन्तरंग मित्र भी। निःसन्तान दम्पत्ति वहीं के प्रख्यात 'वेस्ट ऐंड' होटल में रहते थे। वेस्ट ऐंड तब आज के किसी भी पंच नक्षत्रखचित होटल से अधिक महिमामय था। अपना टेनिसकोर्ट, अपना पोस्ट ऑफिस, दर्शनीय कमरे, विराट अहाता, बुर्राक बैरे, बटलर और मखमली लान। टोक की चमकती रेलिंगदार सीढ़ियों और चिकने फर्श की दूधिया सुघड़ स्वच्छता छूने से मैली होती थी। तब पूरे बंगलौर में केवल मि. हेनरी के पास ही एकमात्र रोल्स रॉयल गाड़ी थी, जिसे वह हथेली पर उठाए फिरते थे। जब देखो तब लगता था, अभी-अभी खरीदकर लाए हैं और पहली बार बैठकर उन्होंने चाबी घुमाई है। हमें भी उसमें बिठाने से पूर्व मिसेज हेनरी निःसंकोच असंख्य हिदायतें देती थीं। बार-बार हमारा सिर सूंघतीं कि कहीं तेल तो नहीं डाला है। कहीं ऐसा न हो कि सरीती सुन्दर गाड़ी में बैठने का सुख हमारा तेल-सना माथा उनकी गुदगुदी गद्दी से सटकर सत्यानाश कर दे।
फिर उनका अल्पभाषी चालक बिजली, अपनी भुवनमोहिनी विनम्रता से एक पाँव पोंछ हमारे कदमों के सामने डाल देता, जिससे चप्पल पर लगी धूल-गर्द हम बाहर ही झाड़ लें। और फिर कार को अपनी अपूर्व देह-परिमल से सुवासित करती मिसेज हेनरी हमारे साथ पीछे बैठतीं। आगे बैठते मिस्टर हेनरी और बिजली। नाम के ही अनुरूप बिजली का व्यक्तित्व भी था। वही चटक-मटक और तेज, दुबला-पतला पर गजब का फुर्तीला। कसी खाकी जोधपुरी ब्रीचेस में सधी पतली टाँगें, वैसा ही डबल पाकेट का खाकी कोट, बैंजनी, सुनहली किनारी का सफेद साफा जिसका तुर्रा बंगाल के शंखचूड़ा नाग के उद्धत फन-सा तना रहता। गाड़ी चलाता क्या था, हवा में उड़ाता था।
भाई-बहनों में धरा की इस उड़ान का सुख सर्वाधिक मुझे ही प्राप्त था क्योंकि मिसेज हेनरी का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था, विशेषकर दो अवसरों पर मेरी पुकार अवश्य होती। एक तो जब वे दर्जी से अपने किसी बाल के लिए नया गाउन सिलाने निकलती या फिर जिस दिन उनका मिष्टदन्त जलेबी की फरमाइश करता।
साउथ परेड में एक ही दरजी था, जो उनकी परिमार्जित रुचि के साथ पूर्ण न्याय करने में समर्थ था और उनके आँख के एक-एक इशारे को समझ हूबहू गाउन में उतारने में सुई तोड़कर रख देता था।
मलमल में लपेटे रेशमी आलपाके की फसरफसर समेटे वे मेरी प्रतीक्षा में बैठी रहतीं जिससे अवसर पड़ने पर मैं उनकी बताई गई चुन्नट-तुरपनों की दुभानिया बन सकूँ।
बिजली अपनी फौजी सैल्यूट दागकर मुझे सूचित करता, "मेम साहब ने सलाम भेजा है, ठीक दस बजे साउथ परेड जाएँगी। पन्द्रह को मास्क बॉल है, नया गौन सिलेगा।" और फिर उस गाउन की सन्दर्भ सहित व्याख्या में कभी घंटों लग जाते-कैसी लेग ऑफ मटन स्लीव बनेगी, “कमरा में एकदम फिट माँगता, लूज नहीं।" वे अपनी कमर की विराट परिधि को अपने गुदगुदे गोरे हाथों में थामकर टेलर मास्टर को हिदायतें देती।
“ओ ऐलीना, 'कमरा' इज़ रूम, से 'कमर'।" मि. हेनरी कहते और फिर परिहास-प्रवण साहब की नीली आँखों में चुहल की सहस्र तरंगें तरंगायित हो उठती- “हे, व्हट डू यू से गौरा, इट इजंट ऐज बिग ऐज कमरा।"
फिर किसी रविवार को बिजली सैल्यूट दागकर मुझे बुलाने आ पहुँचता, "हजूर, मेम साहब ने सलाम भेजा है, जलेबी आई हैं।
जलेबी क्या आती कि पूरे कमरे में बहार आ जाती। जाकर देखती, गले में बड़ा-सा दुग्ध धवल नैपकिन लटकाए, पायरेक्स के डोंगे में गर्म जलेबियों को क्षुधातुरलोलुप अधीर दृष्टि से ही निगलती मिसेज हेनरी बैठी हैं।
"देयर शी इज़, हेनरी डियर, अब मैं नहीं रुक सकती, लाओ अपनी-अपनी प्लेट।" जल्दी-जल्दी हमारा हिस्सा परस वह जलेबियों पर शत्रु की निर्ममता से टूट पड़तीं। उन्हें जलेबी खाना देखना स्वयं में एक तृप्तिदायक पर्व प्रतीत होता। पूरी जलेबी मुँह में भर वह तुरन्त बत्तीसी जमा देतीं और टपाटप रस चूता उनके उत्तुंग वक्षक्षितिज को भिगोने लगता, परितृप्त आँखें मूंद जाती, पतले खानदानी नथुने फड़कने लगते, लाल-लाल गाल और लाल हो उठते, हाथ सन जाते पर वह एक के बाद एक जलेबी दागे चली जाती।
"ओ ऐलीना, यू आर वर्स दैन ए चाइल्ड।" मिस्टर हेनरी लपककर पत्नी के चिबुक पर बहती अशिष्ट रसधार को पोंछकर कहते।
पर वहाँ किसे चिन्ता थी। इसी मेज पर सर सुल्तान अहमद, सर मिर्जा इस्माइल, निजाम की रूपसी पुत्रवधुओं नीलोफर और दुरेशवार के साथ उन्हें कठोर मेज़ी अदब-कायदों की परम्परा निभाते भी मैंने देखा था और उसी मेज पर उनकी वह नितान्त स्वाभाविक भारतीय मुद्रा।
"देखो, हेनरी, तुम मुझे खाते वक्त मत रोका करो, क्या मजेदार हिन्दुस्तानी चीज है! इसे ऐसे ही चटखारे लेकर खाया जाता है। क्यों, है ना?" वह मेरी ओर मुस्कराकर देखतीं और चट से दूसरी जलेबी मुँह में धर लेतीं।
द्वार पर सन्तरी की मुद्रा में बिजली द्वारपाल बना खड़ा रहता कि कहीं मेम साहब की छोटा हाजरी के नन्दन-कानन में विघ्न डालने होटल का कोई बैरा आकर उनका यह अनाड़ी जलेबी-पर्व न देख ले। बिजली पर उनका अनन्य स्नेह था और स्वयं उसकी स्वामिभक्ति भी अपने में एक अनोखी मिसाल थी। मजाल है कि रात-आधी रात कभी भी साहब एक हाँक दें और वह उठकर न आ जाए। रियासत में रह चुका था, रियासती अदब-कायदे उसके जिह्वाग्र पर थे। मेरे पिता जब रामपुर में गृहमन्त्री थे, तब वह वहाँ था। उन्होंने उसे यहाँ बुला भेजा था, इसी से वह हमारे परिवार के प्रति भी अत्यन्त कृतज्ञ था। वह कृतज्ञता भले ही कभी उसके जिह्मग्र पर न आई हो, हमें देखते ही वह कृतज्ञता उसके पोर-पोर से टपकने लगती और फिर अचानक एक दुर्घटना ने उसे हमारे और निकट ला दिया।
एक बार अपने पिता के साथ मैं मिस्टर हेनरी की कार में एक डिनर पार्टी में जा रही थी। गाड़ी हमारे घर से निकली ही थी कि कभी न चूकनेवाले बिजली के हाथ विचलित हो गए। एक झटके के साथ खम्भे से टक्कर खा गई गाड़ी अचल हुई। मिस्टर हेनरी तत्काल कार की क्षति देखने उतर पड़े, साथ ही उतरा अपराधी चालक। मडगार्ड पर एक सामान्य-सा डिंग ही पिचका था किन्तु मेम साहब नीचे गिर पड़ती और कुहनी टूट जाती तब भी शायद मिस्टर हेनरी इतने विचलित नहीं होते। देखते ही वे आपे से बाहर हो गए। आव देखा न ताव, तडातड़ बिजली के गाल पर दो-तीन करारे तमाचे जड़ दिए। मेरे पिता ने उसी क्षण उतरकर उनका हाथ थाम लिया, "हेनरी, दिस इज वेरी अनब्रिटिश ऑफ यू।"
उनकी उस ह्रस्व भर्त्सना का एक-एक शब्द मुझे आज भी याद है। और उसी क्षण मिस्टर हेनरी ने सिर झुकाकर अपना खिसियाया हाथ बिजली की ओर बढ़ा दिया, “आई ऐम वैरी सॉरी बिजली," भरी भीड़ के सम्मुख उस उच्च विदेशी अधिकारी को अपने अपराधी चालक से क्षमा माँगने में रंचमात्र भी संकोच नहीं हुआ था। उन्होंने उससे हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठ गए।
जब हम लौटने लगे तो मिस्टर हेनरी ने मेरे पिता से कहा था, “पांडे, तुमने मुझे याद दिला दिया कि हम ब्रिटिश अफसरों के लिए भारतीय हृदय में जो सहृदय अफसर होने का आदर्श अंकित है, उसे अपने क्षणिक आवेश में मैं स्वयं मिटाने की मूर्खता कर बैठा था। मैं तुम्हारी सीख आजन्म गाँठ से बाँधकर रखूगा।"
उन्होंने उस सीख को आजन्म गाँठ से बाँधकर ही नहीं रखा, कब्र में जाने तक अपनी उस भूल का स्मरणीय प्रायश्चित्त किया। पिता की मृत्यु के अनेक वर्षों बाद मुरादाबाद के स्टेशन पर वृद्ध बिजली मुझे फिर मिला। पहचानते ही उसकी आँखें चमक उठीं, "खुदा बाबू साहब को जन्नत बख्शे! उन्होंने तो साहब को उस दिन समझाया था। विलायत चले गए पर बराबर 200 रुपया हर महीना हमें भेजते रहे। पाँच-पाँच बेटियों की शादियाँ कीं, हर बार खत भेजा तो बदस्तूर दो-दो हजार का चेक हमें भेजते रहे। जवानी-भर रियासत के मुलाजिम रहे। अपने हिन्दुस्तानी हाकिमों के न जाने कितने घूसे-थप्पड़ खाए पर वे तो उसे अपना हक समझते थे और हम अपनी बदकिस्मती। एक अंग्रेज हाकिम ने हाथ भी उठाया तो कब्र में जाने तक हर्जाना भरा। साहब नहीं, फरिश्ता था हुजूर।"
आज दीया लेकर ढूँढ़ने पर भी क्या हम अपने हाकिमों में ऐसे फरिश्ते ढूँढ़ पाएंगे?
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