संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
इक्कीस
भारतीय इतिहास में हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ एक ही विद्वान ने
अनेक विषयों पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। आज जब विज्ञान के इस
युग में अतीत के युग की अपेक्षा अनेक शिक्षा सुविधाएँ हमें उपलब्ध हैं, शायद
ही हमें कोई ऐसा दुर्लभ व्यक्तित्व दृष्टिगत होगा, जिसने साहित्य एवं
चिकित्सा के क्षेत्र में समान रूप से ख्याति प्राप्त की हो। किन्तु भारतीय
इतिहास में ऐसे अनेक आचार्य हुए हैं, उदाहरणार्थ शार्ङ्गधर, हेमाद्रि, जो
एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी थे, साथ ही उन्होंने 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि'
और 'आयुर्वेद रसायनव्याख्या' जैसे ग्रन्थों की रचना की। केशव के पुत्र बोपदेव
'मुग्धबोध व्याकरण' के रचयिता थे, साथ ही 'हृदय दीपक' जैसे ग्रन्थों के
प्रणेता। महेश्वर एक ख्याति प्राप्त कोशकार थे। 'विश्वप्रकाश' जैसा ग्रन्थ भी
उन्होंने लिखा, जिसके प्रारम्भ में ही लिखा है-
'वैद्यराज चक्र मुक्ता शेखरस्य गद्यपद्य विद्यानिधे
श्री महेश्वरस्यकृते विश्वप्रकाशे।'
भट्टार एक सिद्धहस्त गद्यकवि ही नहीं, कुशल वैद्य एवं वैद्यक ग्रन्थों के प्रणेता भी थे। वाग्भट के 'अष्टांगहृदय' ग्रन्थ की लोकप्रियता एवं उपादेयता से प्रभावित हो चीनी यात्री इत्सिंग ने इस ग्रन्थ का चीनी भाषा में अनुवाद किया, बाद में यह ग्रन्थ अरबी भाषा में भी अनूदित हुआ।
महाकवि कालिदास ने जिस प्रकार तत्कालीन संस्कृति का पूर्ण प्रतिनिधित्व कर परम्परा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा भी सम्पादित की, उसी प्रकार वाग्भट भी गुप्तकाल के प्रतिनिधि निर्माता रहे। वे शब्दों के शिल्पी थे, नुस्खे की छन्दयोजना में भी उनकी विशिष्ट शैली थी कि श्लोक के अन्तिम चरण में छन्द का नाम अर्थ को सार्थक करता उल्लिखित रहता था, जैसे द्रुतविलम्बित में बद्ध यह श्लोक-
'सहचरं सुरदारु सुनागरं
ववथितमम्भसि तैलावमिश्रितं
पवन पीड़ित देह गतिः पिवन,
द्रुतविलम्बित गोभवतीच्छया।
किसी भी साहित्य रसमर्मज्ञ वायु-विकार पीड़ित की व्यथा क्या इसे पढ़ते ही नहीं चली जाएगी? आज के चिकित्सा-विशेषज्ञों को साहित्य के लिए तो दूर, अपने परिवार के लिए ही समय नहीं मिलता, उस पर ख्याति हमारे अधिकांश विशेषज्ञों को और भी मदान्ध एवं धनलोलुप बना देती है। मैं कुछ विशेषज्ञों को भी जानती हूँ, जिनकी ऊँची फीस ही नहीं, शहर के बाहर जाकर मरीज देखने की यात्रा-फीस भी पूर्वनिर्धारित रहती है। वे केवल हवाई यात्रा पर ही जाएँगे। मरीज देखकर वैसे ही गगनचारी बनकर उनका प्रत्यावर्तन भी होगा। खर्चा उठाएगा मरीज का परिवार। किन्तु आज से कोई सत्तर वर्ष पूर्व, कैसा ही ख्यातिप्राप्त चिकित्सक क्यों न हो, मुँह खोलकर कभी अपनी फीस नहीं माँगता था। फिर भी तब रोगी को रोगमुक्त करने पर बिन माँगे ही उसे कैसे खरे मोती मिलते थे, इसका रोचक विवरण अपनी माँ से सुनने को मिला।
मेरे नाना डॉ. हरदत्त पंत लखनऊ के तत्कालीन ख्यातिप्राप्त सिविल सर्जन थे। अवध की लगभग सम्पूर्ण ताल्लुकेदारों की नाड़ियाँ तब उनकी मुट्ठी में बन्द थीं। ऐसे ही उनके एक समृद्ध यजमान संडीला के राजा साहब बीमार पड़े तो उन्हें बुलाया गया। साथ में पूरे परिवार को भी आमन्त्रित किया गया, जिससे डॉक्टर साहब तब तक परिवार की चिन्ता से मुक्त रहें जब तक राजा साहब पूर्ण रूप से स्वास्थ्य-लाभ न कर लें। चार महीने वहाँ रहकर उन्होंने राजा साहब को रोगमुक्त कर दिया। तब शाही विदाई का अवसर आया। भारी-भारी गहनों से विभूषित हाथी की सुसज्जित अंबारी पर उन्हें बिठाकर पहले उनकी सवारी निकाली गई। तब रजवाड़ों में किसी भी चिकित्सक के सफल होने पर ऐसे ही सवारी निकाल उसे हाथी भेंट किए जाने की प्रथा थी। यह अनुग्रह और सम्मानसूचक प्रथा सम्भवतः बहुत पुरानी चली आई थी। वाग्भट ने भी सर्वार्थ सिद्ध अंजन विधान में ऐसी शोभा यात्रा का वर्णन किया है।
किन्तु मेरे नाना को वह सवारी कुछ महँगी पड़ी। राजकीय आदेश था कि हाथी चूँकि राजा साहब का मुँहलगा हाथी रह चुका है, उसे सुबह नाश्ते में नित्य 5 सेर जलेबी खाने का अभ्यास है। खाने में दिन-भर मन-भर आटे की रोटी, जिन्हें भट्ठी में पकवाया जाता है। एक सप्ताह तक तो हाथी मेरे ननिहाल में बँधा नित्य 5 सेर जलेबी और मन-भर आटा उदरस्थ करता रहा। "तब ऐसी कोई बड़ी बात भी नहीं थी।" अम्माँ ने कहा, "1 रुपए का 36 सेर गेहूँ तुलता था और चवन्नी सेर जलेबी, पर फिर हमारी माँ ने कहा, 'या तो यह मुआ हाथी ही पाल लो या परिवार।"
हारकर पचास हजार में हाथी बेच दिया गया और उसके गहने बैंक में धर दिए गए। फिर दलीपपुर के नवाब साहब बीमार पड़े। इस बार नानाजी को गहनों से लदी-कँदी नचनिया घोड़ी मिली, जिसके नखरे किसी यौवनमदमत्ता बाईजी से कम नहीं थे। शादी-बारातों में ऐसा गजब नाचती थी कि पूरे लखनऊ में उसकी ख्याति फैल गई। किन्तु नृत्य-कुशला घोड़ी ऐसी नकचढ़ी निकली कि ऐसी-वैसी बारातों में नाचना तो दूर, पैर भी उठाकर नहीं देती थी। बहरहाल उसे भी वहीं विदा कर दिया गया।
तीसरी बार, हाथी-घोड़ी की फीस से ऊबकर नानाजी ने अपने एक समृद्ध मरीज से अभिनव फीस मुँह खोलकर माँगी थी। ऐसे कठिन रोग से ग्रस्त होकर महाराज कुमार ने उन्हें बुला भेजा था, जिसे गोपनीय रखना उनके सुनाम एवं सुख्याति के लिए अनिवार्य हो उठा था। उधर मेरे नाना को इसी कुख्यात रोग का दुर्लभ नुस्खा ज्ञात था, जिसका प्रतिदान वे कभी आर्थिक रूप में ग्रहण नहीं करते थे। सुदीर्घ इलाज के पश्चात् महाराज कुमार रोगमुक्त हुए और तब ही नानाजी ने कहा, 'मुझे यह सब नहीं चाहिए, मुझे छेदीलाल की धर्मशाला खरीदकर दे दीजिए, मेरी और मेरे मित्र रमेशचन्द्र दत्त की इच्छा है कि लखनऊ में लड़कियों का कोई स्कूल नहीं है, वहाँ पहली कन्या पाठशाला बने।"
इसी प्रकार उस धर्मशाला में ही लखनऊ की पहली कन्या पाठशाला बनी जो आज महिला कालेज का रूप ले चुकी है। मेरी माँ के साथ पाँच अन्य छात्राओं ने वहाँ पहले प्रवेश लिया था।
तब चिकित्सकों को धन के प्रति आसक्ति नहीं थी। शायद इसीलिए उनके हाथ में यश था एवं रोग को पकड़ने की ऐसी सूक्ष्म दृष्टि भी थी। ऐसा ही एक रोचक संस्मरण अम्माँ से और सुना।
मेरे पिता जब जूनागढ़ नवाब के एडवाइजर थे। बिरावल के एक प्रसिद्ध बौने हकीम साहब थे-मामू हकीम, प्रसिद्ध हकीम, अजमल खाँ के मामू। मेरी बड़ी बहन को उन्होंने कठिन हृदयरोग से मुक्त किया था। अम्माँ बताती हैं कि “जीर्ण पाजामा पहन बित्ते-भर के मामू को देखा तो दिल डूब गया। फटी दरी पर डेस्क लगाए बैठे थे। कमरे की बल्लियाँ नीचे झूल रही थीं। मैंने सोचा, जो अपना फटा पाजामा नहीं सी सकता, वह मेरी लड़की का क्या इलाज करेगा? पर नाड़ी देखी तो उसका पूरा रोग उगल दिया। फिर फटी दरी के नीचे हाथ डाल एक थैली निकाली, दवा घोंटी और कहा, 'मलमल के टुकड़े को बकरी के दूध में भिगोकर, छत पर रखो। रखते ही सूख जाएगा। ऐसा करते-करते जब पाव भर दूध सूख जाए तब बकरी के दूध से ही यह पुड़िया खिला दो। इंशाअल्ला, फिर यहाँ नहीं आना पड़ेगा।' वही हुआ, जिस असाध्य रोग को विदेश के प्रख्यात डॉक्टर भी नहीं जीत पाए थे, उसे मामू हकीम की बीस पुड़ियों ने जीत लिया।"
इसी से जब जूनागढ़ की बेगम साहिबा बीमार पड़ी तो मेरे पिता ने उन्हीं हकीम साहब की चर्चा की। एक तो जूनागढ़ की रियासत उन दिनों सौराष्ट्र की रियासतों में सिरमौर, उस पर स्वयं बेगम की बीमारी, कुछ उल्टा-सीधा हो बैठता तो मेरे पिताजी की जान पर भी बीत सकती थी।
हकीम साहब आए पर वे तो दर्शन-स्पर्शन से ही रोगी की परीक्षा करते थे या फिर मूत्र-परीक्षा से, किन्तु उस पर भी नवाब साहब के मुसाहिबों को घोर आपत्ति थी। इतनी बड़ी रियासत की बेगम साहिबा का 'कारुरा' भला परीक्षा के लिए कैसे जाएगा? अन्त में हकीम साहब ने ही एक मार्ग ढूँढ़ निकाला। बेगम साहिबा पर्दे के पीछे आराम फर्माएँ। एक पतला सूत उनकी नाड़ी में बाँध दूसरा सिरा उन्हें थमा दिया जाए। वह उसी क्षीण सूत्र के माध्यम से रोग दस्यु को पकड़ लेंगे। यही किया गया और उन्होंने रोग एवं रोगिणी का जैसा वर्णन किया, उसे देख सब दंग रह गए। दवा दी, पथ्य बतलाया और कह गए. आठवें दिन फिर आकर देखेंगे।
इसी बीच, कुछ जलनेवालों ने भाँजी मार दी, "हुजूर, बित्ते-भर का हकीम भला क्या इलाज करेगा! एक से एक हकीम आपकी रियाया हैं, पर उसने जो रोग एवं रोगिणी का आवेहूब नक्शा खींचकर रख दिया था। किसी बाँदी को मिला लिया होगा।" बस, नवाब भड़क गए।
आठवें दिन फिर मामू हकीम आए तो नवाब बोले, "हमने सोच लिया है अभी पता लग जाता है, कितने गहरे पानी में हैं मियाँ।"
हकीम साहब बैठे। पर्दे की आड़ से सूत का सिरा उन्हें थमाया गया। पर उधर चल रही थी सरासर बेईमानी। नवाब ने अपनी प्यारी पालतू बिल्ली के गले से इस बार सूत का एक सिरा बाँध दिया था, बेगम की नाड़ी पर नहीं। हकीम साहब बड़ी देर तक डोरा हाथ में लिए बैठे रहे, फिर थामा, फिर आँखें बन्द की, फिर सुना और चेहरा अजीब हो गया।
"क्या बात है हकीम साहब, चुप क्यों हैं?" नवाब ने पूछा।
“हुजूर, गुस्ताखी माफ हो तो कुछ अर्ज करूँ..."
''कहिए, कहिए..."
"लगता है, आज मेरी बताई मूंग की दाल के पानी के बदले कुछ" कहकर मामू चुप हो गए।
“कहिए, कहिए... कुछ और खा लिया है क्या?" नवाब ने पूछा।
"जी हाँ, उसी सकते में तो हूँ। लगता है, सरकार गलती से चूहा खा गई हैं।" और मामू हकीम उठकर भन्नाते हुए बाहर निकल गए थे।
'वैद्यराज चक्र मुक्ता शेखरस्य गद्यपद्य विद्यानिधे
श्री महेश्वरस्यकृते विश्वप्रकाशे।'
भट्टार एक सिद्धहस्त गद्यकवि ही नहीं, कुशल वैद्य एवं वैद्यक ग्रन्थों के प्रणेता भी थे। वाग्भट के 'अष्टांगहृदय' ग्रन्थ की लोकप्रियता एवं उपादेयता से प्रभावित हो चीनी यात्री इत्सिंग ने इस ग्रन्थ का चीनी भाषा में अनुवाद किया, बाद में यह ग्रन्थ अरबी भाषा में भी अनूदित हुआ।
महाकवि कालिदास ने जिस प्रकार तत्कालीन संस्कृति का पूर्ण प्रतिनिधित्व कर परम्परा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा भी सम्पादित की, उसी प्रकार वाग्भट भी गुप्तकाल के प्रतिनिधि निर्माता रहे। वे शब्दों के शिल्पी थे, नुस्खे की छन्दयोजना में भी उनकी विशिष्ट शैली थी कि श्लोक के अन्तिम चरण में छन्द का नाम अर्थ को सार्थक करता उल्लिखित रहता था, जैसे द्रुतविलम्बित में बद्ध यह श्लोक-
'सहचरं सुरदारु सुनागरं
ववथितमम्भसि तैलावमिश्रितं
पवन पीड़ित देह गतिः पिवन,
द्रुतविलम्बित गोभवतीच्छया।
किसी भी साहित्य रसमर्मज्ञ वायु-विकार पीड़ित की व्यथा क्या इसे पढ़ते ही नहीं चली जाएगी? आज के चिकित्सा-विशेषज्ञों को साहित्य के लिए तो दूर, अपने परिवार के लिए ही समय नहीं मिलता, उस पर ख्याति हमारे अधिकांश विशेषज्ञों को और भी मदान्ध एवं धनलोलुप बना देती है। मैं कुछ विशेषज्ञों को भी जानती हूँ, जिनकी ऊँची फीस ही नहीं, शहर के बाहर जाकर मरीज देखने की यात्रा-फीस भी पूर्वनिर्धारित रहती है। वे केवल हवाई यात्रा पर ही जाएँगे। मरीज देखकर वैसे ही गगनचारी बनकर उनका प्रत्यावर्तन भी होगा। खर्चा उठाएगा मरीज का परिवार। किन्तु आज से कोई सत्तर वर्ष पूर्व, कैसा ही ख्यातिप्राप्त चिकित्सक क्यों न हो, मुँह खोलकर कभी अपनी फीस नहीं माँगता था। फिर भी तब रोगी को रोगमुक्त करने पर बिन माँगे ही उसे कैसे खरे मोती मिलते थे, इसका रोचक विवरण अपनी माँ से सुनने को मिला।
मेरे नाना डॉ. हरदत्त पंत लखनऊ के तत्कालीन ख्यातिप्राप्त सिविल सर्जन थे। अवध की लगभग सम्पूर्ण ताल्लुकेदारों की नाड़ियाँ तब उनकी मुट्ठी में बन्द थीं। ऐसे ही उनके एक समृद्ध यजमान संडीला के राजा साहब बीमार पड़े तो उन्हें बुलाया गया। साथ में पूरे परिवार को भी आमन्त्रित किया गया, जिससे डॉक्टर साहब तब तक परिवार की चिन्ता से मुक्त रहें जब तक राजा साहब पूर्ण रूप से स्वास्थ्य-लाभ न कर लें। चार महीने वहाँ रहकर उन्होंने राजा साहब को रोगमुक्त कर दिया। तब शाही विदाई का अवसर आया। भारी-भारी गहनों से विभूषित हाथी की सुसज्जित अंबारी पर उन्हें बिठाकर पहले उनकी सवारी निकाली गई। तब रजवाड़ों में किसी भी चिकित्सक के सफल होने पर ऐसे ही सवारी निकाल उसे हाथी भेंट किए जाने की प्रथा थी। यह अनुग्रह और सम्मानसूचक प्रथा सम्भवतः बहुत पुरानी चली आई थी। वाग्भट ने भी सर्वार्थ सिद्ध अंजन विधान में ऐसी शोभा यात्रा का वर्णन किया है।
किन्तु मेरे नाना को वह सवारी कुछ महँगी पड़ी। राजकीय आदेश था कि हाथी चूँकि राजा साहब का मुँहलगा हाथी रह चुका है, उसे सुबह नाश्ते में नित्य 5 सेर जलेबी खाने का अभ्यास है। खाने में दिन-भर मन-भर आटे की रोटी, जिन्हें भट्ठी में पकवाया जाता है। एक सप्ताह तक तो हाथी मेरे ननिहाल में बँधा नित्य 5 सेर जलेबी और मन-भर आटा उदरस्थ करता रहा। "तब ऐसी कोई बड़ी बात भी नहीं थी।" अम्माँ ने कहा, "1 रुपए का 36 सेर गेहूँ तुलता था और चवन्नी सेर जलेबी, पर फिर हमारी माँ ने कहा, 'या तो यह मुआ हाथी ही पाल लो या परिवार।"
हारकर पचास हजार में हाथी बेच दिया गया और उसके गहने बैंक में धर दिए गए। फिर दलीपपुर के नवाब साहब बीमार पड़े। इस बार नानाजी को गहनों से लदी-कँदी नचनिया घोड़ी मिली, जिसके नखरे किसी यौवनमदमत्ता बाईजी से कम नहीं थे। शादी-बारातों में ऐसा गजब नाचती थी कि पूरे लखनऊ में उसकी ख्याति फैल गई। किन्तु नृत्य-कुशला घोड़ी ऐसी नकचढ़ी निकली कि ऐसी-वैसी बारातों में नाचना तो दूर, पैर भी उठाकर नहीं देती थी। बहरहाल उसे भी वहीं विदा कर दिया गया।
तीसरी बार, हाथी-घोड़ी की फीस से ऊबकर नानाजी ने अपने एक समृद्ध मरीज से अभिनव फीस मुँह खोलकर माँगी थी। ऐसे कठिन रोग से ग्रस्त होकर महाराज कुमार ने उन्हें बुला भेजा था, जिसे गोपनीय रखना उनके सुनाम एवं सुख्याति के लिए अनिवार्य हो उठा था। उधर मेरे नाना को इसी कुख्यात रोग का दुर्लभ नुस्खा ज्ञात था, जिसका प्रतिदान वे कभी आर्थिक रूप में ग्रहण नहीं करते थे। सुदीर्घ इलाज के पश्चात् महाराज कुमार रोगमुक्त हुए और तब ही नानाजी ने कहा, 'मुझे यह सब नहीं चाहिए, मुझे छेदीलाल की धर्मशाला खरीदकर दे दीजिए, मेरी और मेरे मित्र रमेशचन्द्र दत्त की इच्छा है कि लखनऊ में लड़कियों का कोई स्कूल नहीं है, वहाँ पहली कन्या पाठशाला बने।"
इसी प्रकार उस धर्मशाला में ही लखनऊ की पहली कन्या पाठशाला बनी जो आज महिला कालेज का रूप ले चुकी है। मेरी माँ के साथ पाँच अन्य छात्राओं ने वहाँ पहले प्रवेश लिया था।
तब चिकित्सकों को धन के प्रति आसक्ति नहीं थी। शायद इसीलिए उनके हाथ में यश था एवं रोग को पकड़ने की ऐसी सूक्ष्म दृष्टि भी थी। ऐसा ही एक रोचक संस्मरण अम्माँ से और सुना।
मेरे पिता जब जूनागढ़ नवाब के एडवाइजर थे। बिरावल के एक प्रसिद्ध बौने हकीम साहब थे-मामू हकीम, प्रसिद्ध हकीम, अजमल खाँ के मामू। मेरी बड़ी बहन को उन्होंने कठिन हृदयरोग से मुक्त किया था। अम्माँ बताती हैं कि “जीर्ण पाजामा पहन बित्ते-भर के मामू को देखा तो दिल डूब गया। फटी दरी पर डेस्क लगाए बैठे थे। कमरे की बल्लियाँ नीचे झूल रही थीं। मैंने सोचा, जो अपना फटा पाजामा नहीं सी सकता, वह मेरी लड़की का क्या इलाज करेगा? पर नाड़ी देखी तो उसका पूरा रोग उगल दिया। फिर फटी दरी के नीचे हाथ डाल एक थैली निकाली, दवा घोंटी और कहा, 'मलमल के टुकड़े को बकरी के दूध में भिगोकर, छत पर रखो। रखते ही सूख जाएगा। ऐसा करते-करते जब पाव भर दूध सूख जाए तब बकरी के दूध से ही यह पुड़िया खिला दो। इंशाअल्ला, फिर यहाँ नहीं आना पड़ेगा।' वही हुआ, जिस असाध्य रोग को विदेश के प्रख्यात डॉक्टर भी नहीं जीत पाए थे, उसे मामू हकीम की बीस पुड़ियों ने जीत लिया।"
इसी से जब जूनागढ़ की बेगम साहिबा बीमार पड़ी तो मेरे पिता ने उन्हीं हकीम साहब की चर्चा की। एक तो जूनागढ़ की रियासत उन दिनों सौराष्ट्र की रियासतों में सिरमौर, उस पर स्वयं बेगम की बीमारी, कुछ उल्टा-सीधा हो बैठता तो मेरे पिताजी की जान पर भी बीत सकती थी।
हकीम साहब आए पर वे तो दर्शन-स्पर्शन से ही रोगी की परीक्षा करते थे या फिर मूत्र-परीक्षा से, किन्तु उस पर भी नवाब साहब के मुसाहिबों को घोर आपत्ति थी। इतनी बड़ी रियासत की बेगम साहिबा का 'कारुरा' भला परीक्षा के लिए कैसे जाएगा? अन्त में हकीम साहब ने ही एक मार्ग ढूँढ़ निकाला। बेगम साहिबा पर्दे के पीछे आराम फर्माएँ। एक पतला सूत उनकी नाड़ी में बाँध दूसरा सिरा उन्हें थमा दिया जाए। वह उसी क्षीण सूत्र के माध्यम से रोग दस्यु को पकड़ लेंगे। यही किया गया और उन्होंने रोग एवं रोगिणी का जैसा वर्णन किया, उसे देख सब दंग रह गए। दवा दी, पथ्य बतलाया और कह गए. आठवें दिन फिर आकर देखेंगे।
इसी बीच, कुछ जलनेवालों ने भाँजी मार दी, "हुजूर, बित्ते-भर का हकीम भला क्या इलाज करेगा! एक से एक हकीम आपकी रियाया हैं, पर उसने जो रोग एवं रोगिणी का आवेहूब नक्शा खींचकर रख दिया था। किसी बाँदी को मिला लिया होगा।" बस, नवाब भड़क गए।
आठवें दिन फिर मामू हकीम आए तो नवाब बोले, "हमने सोच लिया है अभी पता लग जाता है, कितने गहरे पानी में हैं मियाँ।"
हकीम साहब बैठे। पर्दे की आड़ से सूत का सिरा उन्हें थमाया गया। पर उधर चल रही थी सरासर बेईमानी। नवाब ने अपनी प्यारी पालतू बिल्ली के गले से इस बार सूत का एक सिरा बाँध दिया था, बेगम की नाड़ी पर नहीं। हकीम साहब बड़ी देर तक डोरा हाथ में लिए बैठे रहे, फिर थामा, फिर आँखें बन्द की, फिर सुना और चेहरा अजीब हो गया।
"क्या बात है हकीम साहब, चुप क्यों हैं?" नवाब ने पूछा।
“हुजूर, गुस्ताखी माफ हो तो कुछ अर्ज करूँ..."
''कहिए, कहिए..."
"लगता है, आज मेरी बताई मूंग की दाल के पानी के बदले कुछ" कहकर मामू चुप हो गए।
“कहिए, कहिए... कुछ और खा लिया है क्या?" नवाब ने पूछा।
"जी हाँ, उसी सकते में तो हूँ। लगता है, सरकार गलती से चूहा खा गई हैं।" और मामू हकीम उठकर भन्नाते हुए बाहर निकल गए थे।
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