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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


बीस


गांधीजी के शब्दों में, 'धर्म' का सीधा-सादा अर्थ है नैतिक आचरण। मेरे लिए सत्य से परे कोई धर्म नहीं है और अहिंसा से बढ़कर कोई परम कर्त्तव्य नहीं। 'सत्य और अहिंसा' को गांधीजी ने सर्वोच्च महत्त्व दिया था, इसी से जब जनता के नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों ने अपनी सरकार बनाने से पूर्व राजघाट में गांधीजी की समाधि के सामने शपथ ली थी कि 'वे सदा गांधीमार्ग पर चलेंगे' तो जनता जनार्दन ने चैन की साँस ली थी। हमें लगा था कि अब हमारे दुर्दिनों का अन्त सन्निकट है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषणरहित समाज अब शीघ्र ही राम-राज्य में परिणत हो उठेगा, किन्तु जनता शासन के पन्द्रह ही महीने में सत्ता की डगमगाहट ने आज हमारे मुँह का स्वाद कड़वा कर दिया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शपथ लेनेवालों के मन में तब आन्तरिक शुद्धता नहीं थी और वह केवल एक नाटक मात्र था। उस समय के वातावरण के ईमानदार उत्साह को भी आज नकारा नहीं जा सकता। किन्तु उस समय भी हम शायद गांधीजी के कठिन आह्वान के वास्तविक सत्य को नहीं समझ पाए थे। गांधीजी का आह्वान कुछ-कुछ कबीरी आह्वान का-सा था, 'जो घर फूँकै आपना, चलै हमारे साथ,' जो स्वयं अपने हाथों अपने भोग-सत्तालोलुप चित्त अश्व की लगाम खींच सके, वही इस गांधीमार्ग पर चल सकता है।

कारण जो भी रहा हो, घोड़ा कमजोर रहा हो या सवार, इतना हमें स्वीकार करना ही होगा कि हम उस गांधीमार्ग से छिटककर बहुत दूर चले गए हैं और यदि कभी प्राणांतक चेष्टा से पश्चात्तापी मुद्रा में सिर झुकाए उस मानव मार्ग पर लौट भी आएँ, तो हमारे उस अकड़ से तने तेजोमय सवार का रूप, अब वह रूप नहीं रह सकता। एक बार गिरकर हम अपने कलेवर धूलि-धूसरित कर अपने अनाडी सवार होने का परिचय जनता को दे चुके हैं।

समाचार-पत्रों के सिर अब यह दोष मढ़ना कि घटनाओं का विकृत विवरण प्रकाशित कर वे जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं, हमारी आईन-कानून-व्यवस्था या अपराध-स्थिति कदापि ऐसी अधःपतित नहीं हुई है कि जनता उद्विग्न होकर धैर्यच्युत हो उठे, यह उचित प्रतीत नहीं होता, अपितु हास्यास्पद भी लगता है। अपनी इस बहुत बड़ी असफलता को शासन को अब ईमानदारी से स्वीकार कर सामान्य जनजीवन को निरापद बनाने के लिए सक्षम प्रयास करना चाहिए। वह छात्र विक्षोभ हो या राजनीतिक दलों का संघर्ष, शहर में हुई दिन-दोपहर में घटी युवा नौकरानी की हत्या हो या कैंटोनमेंट जैसी सजग सड़क पर खींची गई किसी महिला के गले की चेन, प्रत्येक का विवरण एवं उस दिशा में उठाया गया प्रशासनिक ठोस कदम, दोनों ही का लेखा-जोखा माँगने का जनता को पूर्ण अधिकार है।

आखिर क्या कारण है कि अपराधों की वन्या में हम असहाय तिनके बने बहे जा रहे हैं? एक बार इसी की चर्चा मैंने अपने एक निकटस्थ आत्मीय से की जो आज स्वयं केन्द्रीय सत्ता के नवनक्षत्र खचित व्योम-मण्डल के एक जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र हैं, तो बोले, "आश्चर्य होता है कि आप भी ऐसी बचकानी बातें करने लगी हैं। अपराध कब नहीं हुए और कब नहीं होते? अन्तर इतना है कि इमरजेन्सी में उनका ब्योरा आप लोगों को अख़बारों में पढ़ने को नहीं मिलता था, अब हमारे औदार्य से मिलने लगा है। अब आप लोगों को इसी में आपत्ति होने लगी। अरे भई, हम क्या जनता से कुछ छिपाते हैं"?

किन्तु, इस औदार्य का हम स्तुति-उपार्जन कैसे करें? यह भी क्या गहना कि गर्दन ही तोड़कर रख दे! यह ठीक है कि आप कुछ नहीं छिपाते पर आप इसके समाधान के लिए क्या कर रहे हैं? आपातकालीन स्थिति में कम से कम औसत अपढ़ नागरिक भी इस तथ्य से आश्वस्त था कि गुंडे सीना तानकर अपनी सतर मूंछे ऐंठते नहीं घूम सकते, सब सींकचों में बन्द हैं। उन्हीं में से अधिकांश आज सरकारी निर्देश से विचाराधीन होने पर भी मुक्ति पा गए हैं।

कलकत्ता हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का एक प्रस्ताव बहुमत से समर्थित एवं गृहीत होकर, सम्प्रति यही शंका प्रकाशित कर गया है कि विचाराधीन अपराधी एवं दंडित व्यक्ति को यदि किन्हीं राजनैतिक कारणों से मुक्त कर दिया गया तो सामान्य जनजीवन एक दिन दुर्वह हो उठेगा। किन्तु, राष्ट्रिक कारण से मक्ति हमारे कानुनी शब्दकोश का एक गहीत शब्द बन गया है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि अपराधों में वृद्धि तब ही होती है, जब खुराँट अपराधी यह समझने लगता है कि उसके औद्धत्य दमन करने की शक्ति अब सत्ता में भी नहीं रही।

पुलिस, जिसकी ऐतिहासिक लाल पगड़ी कभी अपने दमदार तुर्रे, ऐंठ और कर्मठता-निष्ठा दमन की प्रतीक थी, आज स्वयं धूसर हो उठी है। जब तक पुलिस अपनी वह पूर्व प्रतिष्ठा, निष्ठा, जो कि आज उसके व्यक्तित्व एवं अन्तर दोनों से लगभग अन्तर्हित हो चली है, फिर नहीं पा लेती, स्वेच्छाचारी निरंकुश अपराधी निगरगंड घूमते रहेंगे।

भारतीय इतिहास में ठगी-दमन में जिस विदेशी का नाम एवं कृतित्व आज तक स्मरण किया जाता है, उस कर्नल स्लीमैन ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है, "पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा जितनी कठोर होगी, अपराधों की संख्या स्वयं म्रियमाण हो उठेगी..." घाघ से घाघ समाजद्रोही, अपराधी भी पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा से घबड़ाता है किन्तु स्वयं पुलिस ही यदि अपने हाथों अपनी मूंछे नीची कर ले एवं उत्कोच-लोलुप बनकर अलस हो उठे तो फिर अपराधी को किसका भय हो सकता है?

अभी कुछ दिन पूर्व मेरे पिछवाड़े रहनेवाली एक काम करनेवाली रोतीबिलखती मेरे पास आई। फलाँ साहब के नौकर ने उसकी घड़ी और रेडियो चुरा लिया है। रेडियो वह स्वयं उसके पास देख आई, जब लेने पहुंची तो उसे पीटकर भगा दिया। साहब ने कहा, "हम बावन जिला के मालिक हैं, पुलिस हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।" अपना फटा ब्लाउज और कटा होंठ दिखाकर वह गिड़गिड़ाई, “सरकार, आप गवाही दे दें, आप तो अख़बार में लिखती हैं।" मैंने उसे समझाया कि केवल कटा होंठ और फटा ब्लाउज देखकर ही तो गवाही नहीं दी जा सकती। वह जाकर थाने में रपट लिखा आई। पुलिस आकर औपचारिक परिक्रमा भी कर गई, पर आज एक लम्बी साँस खींचकर वह मुझसे फिर कह गई, “साहिब, पैसे की माँ ही पहाड़ चढ़ती है, खूब भर दिहिस पुलिस की टेंट। न हमार रेडियो' मिला न घड़ी।"

मेरी इसी कॉलोनी में एक-डेढ़ साल की अवधि में छः-सात साइकिलें दिवंगत हुईं, जिनमें एक मेरी बदनसीब बूढ़ी साइकिल भी थी, एक मोटरसाइकिल और एक परिचित प्रतिवेशिनी लेडी डॉक्टर की कार की बैटरी! पुलिस बड़ी तत्परता से आई, रिपोर्ट भी दर्ज की गई किन्तु अपराधी मूंछों ही मूंछों में मुस्कराता न जाने किस क्षितिज में विलीन हो गया।

दुरवस्था सर्वत्र एक-सी है। अभी 'देश' के सम्पादकीय में याज्ञवल्क्य संहिता से, जनजीवन की निरापदता के समर्थन में एक सत्य रूपक घटना का वर्णन था। “सालंकारा सुन्दरी एकाकिनी युवती स्वगृह से बहिर्गत होकर रात्रि में किसी भी वृक्ष तले निश्चिन्त मन से जिस दिन निद्रायापन करेगी, वही दिन इस सत्य को प्रमाणित करेगा कि राजा एवं राज्य शासन, उभय की प्रकृति कर्तव्यनिष्ठा के पुण्य से अभिषिक्त है, निरापद नागरिक जीवन, शासन एवं जाति दोनों ही का गौरव..."

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