संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
उन्नीस
मत्स्यपुराण के अनुसार, आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति है। गुरु को ऐसी आवाहनीय
अग्नि माना गया है, जिसकी उपासना करने से मनुष्य तेजस्वी बनता है, “आचार्यों
ब्रह्मणे मूर्तिः गुरुराहवीनयश्च दीप्यमानः स्ववपुया।" शिष्य में, गुरु के
प्रति सम्मान एवं श्रद्धा की जो भावना गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भी बनी
रहती थी, वह आज हममें नहीं रह गई है और शायद यही कारण है कि वपु को दीप्यमान
बनानेवाला वह तेज भी स्वयं तिरोहित हो गया है।
लखनऊ के ही एक ऐसे विस्मृत गुरु को, जिन्होंने अपने त्यागमय कर्मठ जीवन से गुरु के नाम को पूर्ण रूप से सार्थक किया है, हम उनके जीवनकाल ही में भूलने लगे हैं। यह लखनऊ के संगीत-जगत् के लिए क्या कम लज्जा की बात है?
आज किसी भी उल्लेखनीय संगीतानुष्ठान के सभापतित्व ग्रहण करने या उद्घाटन कराने के लिए हमारे संयोजक या तो मन्त्रियों से करबद्ध प्रार्थना करते हैं या उच्चपदस्थ अफसरों से भले ही मुख्य अतिथि की व्यस्तता उन्हें कुछ विलम्ब से ही वहाँ आने को विवश करे, किन्तु उनकी वह विवशता भी क्षम्य है। उन्हें संगीत का कितना ज्ञान है, उनका सारगर्भित भाषण क्या वास्तव में उपस्थित संगीत-प्रेमियों को उपकृत कर पाएगा, इसकी चिन्ता हमें नहीं रहती। आज के युग में पद की महिमा का महत्त्व रह गया है, गुण की महिमा का नहीं।
आज भी हमारे बीच पंडित गोविन्दनारायण नाटू जैसे प्रख्यात संगीतविद् हैं, जिनकी मुख्य अतिथि रूप में उपस्थिति ही ऐसे अनुष्ठानों के मंडन के लिए पर्याप्त है फिर भी उनसे हम ऐसा आग्रह क्यों नहीं कर पाते? क्या इसलिए कि वह अवकाश ग्रहण कर नेपथ्य में चले गए हैं? किन्तु किसी भी स्वनामधन्य कलाकार के जीवन को अवकाश क्या कभी म्लान करने की धृष्टता कर सकता है? पर हमारा संसारी चित्त इन तर्कों से उलझने में विश्वास नहीं रखता।
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार, गुकार का अर्थ है, अन्धकार और रुकार का अर्थ है, निरोध की क्रिया; अन्धकार का जो निरोध करे वही गुरु है-"अन्धकार निरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते"। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पंडित गोविन्दनारायण नाटू ने केवल गुरु ही नहीं, एक आदर्श गुरु की परिभाषा को सार्थक किया है। भारतखंडे संगीत विद्यालय में पचास वर्ष तक वह पहले प्रोफेसर, फिर वाइस प्रिंसिपल, प्रिंसिपल के पद पर रहे। फिर निपुण के विद्यार्थियों को दस वर्ष तक प्रशिक्षित किया, अनेक सुश्राव्य खयालों की रचना की, जिनका उपयोग कई 'लौंगप्लेइंग' रिकार्डों में किया गया। किन्तु आरम्भ से ही प्रचार-प्रसार या आत्मविज्ञापन की भावना से अछूते रहे, फलतः आज उनकी अनेक दुर्लभ रचनाओं में से केवल मुट्ठी-भर ही प्राप्य हैं।
जन्म हुआ ग्वालियर के संगीत-प्रेमी गृह में। उनके पितामह माधवराव सिंधिया के शिक्षक थे। पंडित नाटू की प्रारम्भिक शिक्षा पिता द्वारा ही हुई। बारह वर्ष की अवस्था में माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया किन्तु उनकी वास्तविक सांगीतिक प्रतिभा प्रस्फुटित हुई राजा भैया पूँछवाले को गुरु रूप में पाने पर। धीरे-धीरे गुणी शिष्य को गुरु अपने साथ संगीतानुष्ठानों में ले जाने लगे। तब ही केवल 19 वर्ष की अवस्था में पिता की आकस्मिक मृत्यु ने पूरे परिवार का बोझ उनके तरुण कन्धों पर डाल दिया। दयालु चतुर पंडित उन्हें लखनऊ ले आए और राय उमानाथ वली की कोठी में उनके रहने की व्यवस्था की गई।
श्री रतनजनकर, श्री नाटू एवं पाठक की ह्रस्व शिक्षक मंडली ने ही नवीन संगीत विद्यालय का कार्यभार ग्रहण किया, फिर धीरे-धीरे छोटे मुन्नेखाँ (गायन), अहमद खाँ (गायन), आबिद हुसेन (तबला), सखावत हुसेन (सरोद), हामिद हुसेन (सितार), सखाराम (पखावज), आदि आए। छात्र मंडली में थे केवल तीस-चालीस शिष्य, जिनमें से अधिकांश सम्भ्रान्त परिवारों के संगीत-प्रेमी ऐसे प्रौढ़ छात्र थे, जिनमें कुछ को उनका उत्कट संगीत-प्रेम वहाँ खींच लाया था और कुछ युवा पीढ़ी के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत कर उनमें सांगीतिक चेतना प्रस्फुटित करना चाहते थे। उनमें थे सान्याल बन्धु डी.एन. सान्याल एवं पहाड़ी सान्याल, राय बन्धु एच.एल. राय एवं सुप्रसिद्ध गायिका मालविका कानन के पिता रवीन्द्रलाल राय। लखनऊ के अनेक संगीत-प्रेमी काश्मीरी डॉ. हुकू, डॉ. अटल, ब्रज मुल्ला, श्री चक आदि। तब शिक्षक मंडली में दो शिक्षिकाएँ भी थीं, श्रीमती वाडेकर एवं कुमारी खुर्शीद, जिन्हें श्री भारतखंडे ने बम्बई गायन मंडली में विशेष रूप से प्रशिक्षित किया था। इस बीच संगीत विद्यालय का स्थान परिवर्तित किया गया, जहाँ वह आज भी स्थित है। इस बार अपेक्षाकृत अल्पवयसी छात्रों ने प्रवेश लिया। कुछ पिता, सन्तान सहित छात्र बने-डॉ. भावे, उनकी पुत्री शान्ता; डॉ. साने, उनकी पुत्री मालती; चिन्मय लाहिड़ी, समर बहादुर सिंह, सुनिल बसु आदि।
पंडित नाटू आज भी अपनी उस छात्र मंडली के दुर्लभ चित्र को यल से सँजोए हैं। किन्तु वे भी शायद जानते हैं कि जीर्ण चित्र में धुंधले पड़ते चित्रों के समान ही मानव स्मृति भी धुंधली पड़ जाती है। उन चित्रों के अनेक चेहरे इस समर्पित गुरु के अनेक प्राक्तन छात्र आज संगीत-जगत् में पूर्ण रूप से
प्रतिष्ठित हैं।
इस सन्दर्भ में मुझे वर्षों पूर्व इलाहाबाद में श्री निगम से सुनी एक रोचक घटना का स्मरण हो आता है। श्री निगम तब उच्चपदस्थ आई.सी.एस. अधिकारी थे एवं किसी महत्त्वपूर्ण विभाग में सचिव के पद पर थे। पब्लिक सर्विस कमीशन में विभागीय हेड मास्टर के पद का चुनाव चल रहा था 1 श्री निगम भी निर्णायकों में से एक थे। चेयरमैन थे एक अन्य वरिष्ठ सिविल सर्विस के अंग्रेज अफसर। सहसा जिस व्यक्ति को वहाँ पहले परीक्षार्थ बुलाया गया, उसे देख निगम अप्रस्तुत हो गए, वह थे उनके बहुत पुराने स्कूल के अध्यापक जिन्होंने उन्हें कभी ग्राम के स्कूल में पढ़ाया था। आज वही अपने छात्र के सम्मुख हेडमास्टर के पद की परीक्षा के छात्र बने खड़े थे। दोनों की मुखमुद्रा देख, चतुर विदेशी अफसर समझ गए कि शायद दोनों का पूर्व परिचय रह चुका है।
"क्यों, क्या आप इन्हें जानते हैं?" उसने श्री निगम से पूछा।
“जी हाँ,” श्री निगम उठकर जाने लगे, "मेरा निर्णायक रूप में यहाँ रहना उचित नहीं होगा। यह मेरे अध्यापक रह चुके हैं, इन्होंने मुझे स्कूल में पढ़ाया है।"
“आप बैठिए," अफसर ने उन्हें बिठा दिया, “इन्होंने आपको पढ़ाया है, इतना ही पर्याप्त है, मुझे अब इनसे कुछ नहीं पूछना है, आप जा सकते हैं।" तत्काल उनके गुरु को चुन लिया गया था, जिसका शिष्य आज आई.सी.एस. बन स्वयं गुरु बन गया है, फिर उसकी कैसी परीक्षा?
श्री नाटू केवल एक सुयोग्य गुरु ही नहीं, अपने समय के सुप्रतिष्ठित सुगायक भी थे। इलाहाबाद, मेरठ, कानपुर, बनारस, बम्बई की अनेक कान्फ्रेसों में प्रायः ही गायन प्रस्तुत कर उन्होंने प्रभूत प्रशंसा अर्जित की, पंडित रतनजनकर के साथ उनकी युगलबन्दी उन दिनों प्रचुर ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। कभी-कभी उनकी शिष्यमंडली भी उसमें योगदान देती, जिनमें रहते चिदानन्द रागारकर, दिनकर कैंकणी आदि।
तत्कालीन छात्र डॉ. सुशीला मिश्रा के शब्दों में, “उन अद्भुत संगीत गोष्ठियों में हमें खयाल बड़हत की अपूर्व स्वर-व्यंजना सुनने को मिलती। कूट तानें, बोलतान, ग्वालियर, आगरा और जयपुर घराने की कैसी अद्भुत स्वर छटा!"
संगीत के क्षेत्र में उनका एक उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके संगीत के सोने में साहित्यिक सोहागा मिलाने का सर्वथा नवीन मौलिक प्रयोग, जिसकी छटा उनके 'विलासखानी', 'बसन्त मुखारी' एवं 'देसी' में प्रखर होकर उभरी है। यही नहीं, भटियार', 'पंचम', 'ललित पंचम', 'रागेश्री', 'श्याम कल्याण' में निबद्ध उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, किन्तु आज कितने लोग उस लोकप्रियता के उत्स से परिचित हैं?
ऐसे गुणी गुरु को, जिनकी विशद छात्रमंडली आज भारत में यथेष्ट ख्याति एवं प्रशस्ति प्राप्त कर चुकी है और कर रही है, मैं जब लखनऊ के किसी सांगीतिक अनुष्ठान में एक अपरिचित अनजान-नगण्य अतिथि की भाँति किसी पिछली पंक्ति की कुर्सी में बैठा देखती हूँ तो मेरा मस्तक लज्जा से नत हो जाता है।
अपने इस त्यागमय जीवन की म्लान गोधूलि में उन्हें न किसी से शिकायत है, न शिकवा, न उन्हें किसी अभिनन्दन की आकांक्षा है, न किसी आर्थिक सहायता की अभिलाषा। ठीक भी है, 'हीरा मुख से ना कहे लाख टका मेरो मोल', उसका मूल्य आँकना तो परखनेवाले जौहरियों का काम है। एक जन्मजात कलाकार के आत्मसम्मान से इस वयस में भी उनकी तनी ग्रीवा उतनी ही सतर है, किन्तु मानव-स्मृति की क्षणभंगुरता इसी वयस में कभी पैनी खंजर की तेजी से कलेजा फाड़कर रख देती है।
वह घाव दिखता नहीं, न दिखाया जा सकता है, वह केवल रिसता है, और वह पीड़ा असह्य होकर सालने लगती है, जब परिचित चेहरे, अतीत की स्मृतियाँ उसे कुरेदने लगती हैं।
जिसने लखनऊ की सांगीतिक चेतना का अभ्युदय करने में समस्त जीवन लगा दिया, बड़ी चेष्टा से किसी अंतेवासी दुर्बल नवजातक-से संगीत शिशु को पाला, पोसा, बड़ा किया, वही यदि आज उन्हें देख मुँह फेर ले तो यह दुर्भाग्य उनका नहीं, दुर्भाग्य लखनऊ के संगीत-जगत् का है।
लखनऊ के ही एक ऐसे विस्मृत गुरु को, जिन्होंने अपने त्यागमय कर्मठ जीवन से गुरु के नाम को पूर्ण रूप से सार्थक किया है, हम उनके जीवनकाल ही में भूलने लगे हैं। यह लखनऊ के संगीत-जगत् के लिए क्या कम लज्जा की बात है?
आज किसी भी उल्लेखनीय संगीतानुष्ठान के सभापतित्व ग्रहण करने या उद्घाटन कराने के लिए हमारे संयोजक या तो मन्त्रियों से करबद्ध प्रार्थना करते हैं या उच्चपदस्थ अफसरों से भले ही मुख्य अतिथि की व्यस्तता उन्हें कुछ विलम्ब से ही वहाँ आने को विवश करे, किन्तु उनकी वह विवशता भी क्षम्य है। उन्हें संगीत का कितना ज्ञान है, उनका सारगर्भित भाषण क्या वास्तव में उपस्थित संगीत-प्रेमियों को उपकृत कर पाएगा, इसकी चिन्ता हमें नहीं रहती। आज के युग में पद की महिमा का महत्त्व रह गया है, गुण की महिमा का नहीं।
आज भी हमारे बीच पंडित गोविन्दनारायण नाटू जैसे प्रख्यात संगीतविद् हैं, जिनकी मुख्य अतिथि रूप में उपस्थिति ही ऐसे अनुष्ठानों के मंडन के लिए पर्याप्त है फिर भी उनसे हम ऐसा आग्रह क्यों नहीं कर पाते? क्या इसलिए कि वह अवकाश ग्रहण कर नेपथ्य में चले गए हैं? किन्तु किसी भी स्वनामधन्य कलाकार के जीवन को अवकाश क्या कभी म्लान करने की धृष्टता कर सकता है? पर हमारा संसारी चित्त इन तर्कों से उलझने में विश्वास नहीं रखता।
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार, गुकार का अर्थ है, अन्धकार और रुकार का अर्थ है, निरोध की क्रिया; अन्धकार का जो निरोध करे वही गुरु है-"अन्धकार निरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते"। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पंडित गोविन्दनारायण नाटू ने केवल गुरु ही नहीं, एक आदर्श गुरु की परिभाषा को सार्थक किया है। भारतखंडे संगीत विद्यालय में पचास वर्ष तक वह पहले प्रोफेसर, फिर वाइस प्रिंसिपल, प्रिंसिपल के पद पर रहे। फिर निपुण के विद्यार्थियों को दस वर्ष तक प्रशिक्षित किया, अनेक सुश्राव्य खयालों की रचना की, जिनका उपयोग कई 'लौंगप्लेइंग' रिकार्डों में किया गया। किन्तु आरम्भ से ही प्रचार-प्रसार या आत्मविज्ञापन की भावना से अछूते रहे, फलतः आज उनकी अनेक दुर्लभ रचनाओं में से केवल मुट्ठी-भर ही प्राप्य हैं।
जन्म हुआ ग्वालियर के संगीत-प्रेमी गृह में। उनके पितामह माधवराव सिंधिया के शिक्षक थे। पंडित नाटू की प्रारम्भिक शिक्षा पिता द्वारा ही हुई। बारह वर्ष की अवस्था में माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया किन्तु उनकी वास्तविक सांगीतिक प्रतिभा प्रस्फुटित हुई राजा भैया पूँछवाले को गुरु रूप में पाने पर। धीरे-धीरे गुणी शिष्य को गुरु अपने साथ संगीतानुष्ठानों में ले जाने लगे। तब ही केवल 19 वर्ष की अवस्था में पिता की आकस्मिक मृत्यु ने पूरे परिवार का बोझ उनके तरुण कन्धों पर डाल दिया। दयालु चतुर पंडित उन्हें लखनऊ ले आए और राय उमानाथ वली की कोठी में उनके रहने की व्यवस्था की गई।
श्री रतनजनकर, श्री नाटू एवं पाठक की ह्रस्व शिक्षक मंडली ने ही नवीन संगीत विद्यालय का कार्यभार ग्रहण किया, फिर धीरे-धीरे छोटे मुन्नेखाँ (गायन), अहमद खाँ (गायन), आबिद हुसेन (तबला), सखावत हुसेन (सरोद), हामिद हुसेन (सितार), सखाराम (पखावज), आदि आए। छात्र मंडली में थे केवल तीस-चालीस शिष्य, जिनमें से अधिकांश सम्भ्रान्त परिवारों के संगीत-प्रेमी ऐसे प्रौढ़ छात्र थे, जिनमें कुछ को उनका उत्कट संगीत-प्रेम वहाँ खींच लाया था और कुछ युवा पीढ़ी के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत कर उनमें सांगीतिक चेतना प्रस्फुटित करना चाहते थे। उनमें थे सान्याल बन्धु डी.एन. सान्याल एवं पहाड़ी सान्याल, राय बन्धु एच.एल. राय एवं सुप्रसिद्ध गायिका मालविका कानन के पिता रवीन्द्रलाल राय। लखनऊ के अनेक संगीत-प्रेमी काश्मीरी डॉ. हुकू, डॉ. अटल, ब्रज मुल्ला, श्री चक आदि। तब शिक्षक मंडली में दो शिक्षिकाएँ भी थीं, श्रीमती वाडेकर एवं कुमारी खुर्शीद, जिन्हें श्री भारतखंडे ने बम्बई गायन मंडली में विशेष रूप से प्रशिक्षित किया था। इस बीच संगीत विद्यालय का स्थान परिवर्तित किया गया, जहाँ वह आज भी स्थित है। इस बार अपेक्षाकृत अल्पवयसी छात्रों ने प्रवेश लिया। कुछ पिता, सन्तान सहित छात्र बने-डॉ. भावे, उनकी पुत्री शान्ता; डॉ. साने, उनकी पुत्री मालती; चिन्मय लाहिड़ी, समर बहादुर सिंह, सुनिल बसु आदि।
पंडित नाटू आज भी अपनी उस छात्र मंडली के दुर्लभ चित्र को यल से सँजोए हैं। किन्तु वे भी शायद जानते हैं कि जीर्ण चित्र में धुंधले पड़ते चित्रों के समान ही मानव स्मृति भी धुंधली पड़ जाती है। उन चित्रों के अनेक चेहरे इस समर्पित गुरु के अनेक प्राक्तन छात्र आज संगीत-जगत् में पूर्ण रूप से
प्रतिष्ठित हैं।
इस सन्दर्भ में मुझे वर्षों पूर्व इलाहाबाद में श्री निगम से सुनी एक रोचक घटना का स्मरण हो आता है। श्री निगम तब उच्चपदस्थ आई.सी.एस. अधिकारी थे एवं किसी महत्त्वपूर्ण विभाग में सचिव के पद पर थे। पब्लिक सर्विस कमीशन में विभागीय हेड मास्टर के पद का चुनाव चल रहा था 1 श्री निगम भी निर्णायकों में से एक थे। चेयरमैन थे एक अन्य वरिष्ठ सिविल सर्विस के अंग्रेज अफसर। सहसा जिस व्यक्ति को वहाँ पहले परीक्षार्थ बुलाया गया, उसे देख निगम अप्रस्तुत हो गए, वह थे उनके बहुत पुराने स्कूल के अध्यापक जिन्होंने उन्हें कभी ग्राम के स्कूल में पढ़ाया था। आज वही अपने छात्र के सम्मुख हेडमास्टर के पद की परीक्षा के छात्र बने खड़े थे। दोनों की मुखमुद्रा देख, चतुर विदेशी अफसर समझ गए कि शायद दोनों का पूर्व परिचय रह चुका है।
"क्यों, क्या आप इन्हें जानते हैं?" उसने श्री निगम से पूछा।
“जी हाँ,” श्री निगम उठकर जाने लगे, "मेरा निर्णायक रूप में यहाँ रहना उचित नहीं होगा। यह मेरे अध्यापक रह चुके हैं, इन्होंने मुझे स्कूल में पढ़ाया है।"
“आप बैठिए," अफसर ने उन्हें बिठा दिया, “इन्होंने आपको पढ़ाया है, इतना ही पर्याप्त है, मुझे अब इनसे कुछ नहीं पूछना है, आप जा सकते हैं।" तत्काल उनके गुरु को चुन लिया गया था, जिसका शिष्य आज आई.सी.एस. बन स्वयं गुरु बन गया है, फिर उसकी कैसी परीक्षा?
श्री नाटू केवल एक सुयोग्य गुरु ही नहीं, अपने समय के सुप्रतिष्ठित सुगायक भी थे। इलाहाबाद, मेरठ, कानपुर, बनारस, बम्बई की अनेक कान्फ्रेसों में प्रायः ही गायन प्रस्तुत कर उन्होंने प्रभूत प्रशंसा अर्जित की, पंडित रतनजनकर के साथ उनकी युगलबन्दी उन दिनों प्रचुर ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। कभी-कभी उनकी शिष्यमंडली भी उसमें योगदान देती, जिनमें रहते चिदानन्द रागारकर, दिनकर कैंकणी आदि।
तत्कालीन छात्र डॉ. सुशीला मिश्रा के शब्दों में, “उन अद्भुत संगीत गोष्ठियों में हमें खयाल बड़हत की अपूर्व स्वर-व्यंजना सुनने को मिलती। कूट तानें, बोलतान, ग्वालियर, आगरा और जयपुर घराने की कैसी अद्भुत स्वर छटा!"
संगीत के क्षेत्र में उनका एक उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके संगीत के सोने में साहित्यिक सोहागा मिलाने का सर्वथा नवीन मौलिक प्रयोग, जिसकी छटा उनके 'विलासखानी', 'बसन्त मुखारी' एवं 'देसी' में प्रखर होकर उभरी है। यही नहीं, भटियार', 'पंचम', 'ललित पंचम', 'रागेश्री', 'श्याम कल्याण' में निबद्ध उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, किन्तु आज कितने लोग उस लोकप्रियता के उत्स से परिचित हैं?
ऐसे गुणी गुरु को, जिनकी विशद छात्रमंडली आज भारत में यथेष्ट ख्याति एवं प्रशस्ति प्राप्त कर चुकी है और कर रही है, मैं जब लखनऊ के किसी सांगीतिक अनुष्ठान में एक अपरिचित अनजान-नगण्य अतिथि की भाँति किसी पिछली पंक्ति की कुर्सी में बैठा देखती हूँ तो मेरा मस्तक लज्जा से नत हो जाता है।
अपने इस त्यागमय जीवन की म्लान गोधूलि में उन्हें न किसी से शिकायत है, न शिकवा, न उन्हें किसी अभिनन्दन की आकांक्षा है, न किसी आर्थिक सहायता की अभिलाषा। ठीक भी है, 'हीरा मुख से ना कहे लाख टका मेरो मोल', उसका मूल्य आँकना तो परखनेवाले जौहरियों का काम है। एक जन्मजात कलाकार के आत्मसम्मान से इस वयस में भी उनकी तनी ग्रीवा उतनी ही सतर है, किन्तु मानव-स्मृति की क्षणभंगुरता इसी वयस में कभी पैनी खंजर की तेजी से कलेजा फाड़कर रख देती है।
वह घाव दिखता नहीं, न दिखाया जा सकता है, वह केवल रिसता है, और वह पीड़ा असह्य होकर सालने लगती है, जब परिचित चेहरे, अतीत की स्मृतियाँ उसे कुरेदने लगती हैं।
जिसने लखनऊ की सांगीतिक चेतना का अभ्युदय करने में समस्त जीवन लगा दिया, बड़ी चेष्टा से किसी अंतेवासी दुर्बल नवजातक-से संगीत शिशु को पाला, पोसा, बड़ा किया, वही यदि आज उन्हें देख मुँह फेर ले तो यह दुर्भाग्य उनका नहीं, दुर्भाग्य लखनऊ के संगीत-जगत् का है।
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