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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


अट्ठारह


दो सप्ताह वातायन के पट न खुलने पर मुझे इस बीच अनेक स्नेही पाठकों ने पत्र एवं फोन से एक ही प्रश्न पूछा है-क्या मैं अस्वस्थ हूँ? जहाँ तक शारीरिक अस्वस्थता का प्रश्न है, मैंने इतिपूर्व अस्वस्थ होने पर भी नियमित रूप से यह स्तम्भ लिखा है, किन्तु वातायन के पट खोलने का आनन्द तब ही है जब स्वच्छ हवा का झोंका तन-मन को समान रूप से पुलकित कर दे। यदि खिड़की खोलते ही किसी दिगंतव्यापी दुर्गन्ध का भभाका धृष्ट दस्यु-सा कमरे में सने लगे तो फिर स्वयं ही हाथ हड़बड़ाकर खिड़की बन्द कर देने को व्याकुल हो उठते हैं। कुछ समय पूर्व भारतीय राजनीति की नाड़ी जिस उत्साह एवं कौतूहल के नवीन स्पन्दन से फड़की थी, आज वह स्वयं ही शिथिल होकर निस्पन्द-सी हो चली है।

हितैषी सरकार की सद्भावना एवं जनसाधारण के बीच एक विराट विच्छिन्नता की खाई को हम स्वाधीनता के सुदीर्घ तीस वर्षों में भी नहीं पाट पाए हैं। भले ही नवीन राजनीतिक बृहत् परिकल्पना या आदर्शों में हमने कोई त्रुटि न रहने दी हो, किन्तु जब तक देश के साधारण मनुष्य एवं सरकार के मध्य अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित नहीं होता, जब तक हमारे नेता जनता का पूर्ण विश्वास प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक गणतन्त्र को हम मानव जीवन के गूढ़ सत्य के रूप में कदापि स्वीकार नहीं कर सकते।

देश में आज सर्वत्र, जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, अभियोग की गुनगुनाहट प्रतिक्षण बड़े दुःसाहस से प्रखर होती जा रही है। अपराधी, वह भी जघन्य अपराधी, आज के जनजीवन की अवांछनीय अनिवार्यता बनकर स्थायी रूप से प्रतिष्ठित होकर हमारे धैर्य को चुनौती देने लगे हैं। विराट भारत की कोटि-कोटि जनसंख्या स्वयं अपने ही भावी घातक विस्फोट की आशंका से त्रस्त थरथर काँपने लगी है। परिवार नियोजन का केवल नाम परिवर्तन कर परिवार कल्याण परिकल्पना कहने से या इन्द्रिय-निग्रह, ब्रह्मचर्य का उपदेश देने से हम जनसंख्या-विस्फोट की निश्चित सम्भावना को नहीं नकार सकते, भले ही हम इस ओर निष्क्रिय न हुए हों, उदासीन तो हो ही गए हैं। उस पर विभागीय उच्च अधिकारियों का मनोबल भी क्षीण-क्षीणतर होता अब प्रायः सम्पूर्ण रूप से विनष्ट हो चुका है। वे मानते हैं कि आज का उत्साह उन्हें भविष्य में महँगा पड़ सकता है।

अब 'कोउ नृप होय हमें का हानी' का युग नहीं रह गया। आज काप्रत्येक सजग, व्यवहार-कुशल सरकारी अधिकारी जानता है कि वह कैसी ही स्वतन्त्र विचारधारा का प्रवर्तक क्यों न हो, प्रत्येक नवीन नृप के साथ उसकी ललाट-रेखा सदा संलग्न रहेगी। इसी से भविष्य की प्रचंड भर्त्सना से बचने का एक ही उपाय है-सम्पूर्ण निष्क्रियता, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहिए, केवल इतना ध्यान रखिए कि आपका भार वहन करने आपकी कुर्सी बनी रहे और हाथ में लगाम। फिर शासन का घोड़ा जिधर चले चलने दीजिए, जिधर मुँह मारे मारने दीजिए। यह आदर्शहीन अफसरी निष्क्रियता हमारा जो स्थायी अहित कर रही है, उसे हम अभी नहीं समझ पा रहे हैं, और यही हमारा दुर्भाग्य है।

मवाद बहाकर फूट जानेवाले दुर्गन्धमय फोड़े से घातक विष उस बन्द फोड़े का होता है, जिसका घेरा ही घेरा दिखता है, मुख नहीं। एक दिन भीतरही-भीतर जहर फैलाता वह विषव्यापी प्राणघातक फोड़ा बन उठता है। आज हम इस निष्क्रियता के विष को भले ही न देख पाएँ, घेरे का हमने देख लिया है। उसकी टपकन को हममें से प्रत्येक स्पष्ट रूप से अनुभव कर रहा है, चाहे वह मुँह फाड़े बढ़ती चली आ रही महार्धता हो या अपहरण, डाकेजनी, बलात्कार हो या बूढ़ी मालगाड़ी के स्थैर्य से घिसटती हमारी मेलगाड़ियाँ हों।

न हमारे जीवन में आदर्शों का कोई मूल्य रह गया है न किसी आचार संहिता का महत्त्व। नियमों को चाहने पर हम लचीले बेंत-सा तोड़-मरोड़कर झुकाना भी सीख गए हैं, तानना भी, अर्थात् जब चाहे उसी नियम को किसी रोगी के लिए पथ्य बना दें और किसी के लिए कुपथ्य। आज के वैद्य को रोगी के हित-अहित से अपने हित की अधिक चिन्ता है।

आवास आवंटन में पगड़ी के अस्तित्व की चर्चा उतनी वेदनादायक नहीं लगती, जितनी उस पगड़ी के उछाले जाने की चर्चा। हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारा आचरण अपनी ऐतिहासिक गरिमा एकदम ही खो बैठा है। चरित्रहनन का चूरन जैसे देश के अपच अजीर्ण के लिए अनिवार्य हो उठा है। जिसे चाहें कपड़े उतारकर चौराहे पर नंगा खड़ा कर दीजिए, मजाल है जो देखनेवाले आँख फेर लें!

हम आज यह भूलते जा रहे हैं कि किसी की भी बुराई करने में स्वयं हममें भी उस बुराई का कुछ-न-कुछ अंश अवश्य उतर ही आता है। वास्तव में अपने नैतिक स्तर की अधःपतित अवस्था से सामान्य जनजीवन आज स्वयं स्तब्ध है। किन्तु जनता इस अवनति के प्रकोप के लिए केवल अपने ही को दोषी मानने को तैयार नहीं है। उसे इस संकटापन्न स्थिति से मुक्ति दिलाने के लिए देश के कर्णधार क्या कर रहे हैं, यह वह स्पष्ट शब्दों में सुनना चाहती है। केवल कर्णप्रिय मीठे आश्वासन अब उसे सन्तुष्ट नहीं कर सकते। अतिरंजित वक्तव्यों की मरीचिका में आज का प्रबुद्ध मानव अब नहीं भटक सकता। अपनी प्रत्येक ईमानदार शंका की ईमानदार कैफियत तलब करने का उसे पूर्ण अधिकार है।

ऐसी ही एक कैफियत का प्रश्न सम्प्रति मेरे सम्मुख भी आया है जिसके रूक्ष आघात ने ही मुझे वातायन के पट मूंदने को बाध्य किया। मैं यह स्तम्भ विगत चार वर्षों से नियमित रूप से लिखती आ रही हूँ। इस स्तम्भ लेखन ने मुझे जहाँ पाठकों का अनन्य स्नेह एवं प्रभूत प्रशंसा प्रदान की, वहीं उत्तर प्रदेश प्रेस मान्यता समिति ने मुझे अस्थायी मान्यता भी प्रदत्त की थी। मैं निरन्तर लिख रही थी एवं मुझे पारिश्रमिक भी मिलता था, इसी से मान्यता समाप्त किए जाने का प्रश्न उठ भी नहीं सकता था। किन्तु जब इसके नवीनीकरण का प्रश्न उठा तो राज्य सूचना विभाग ने परमौदार्य से मुझे सूचित किया है कि मैं उक्त पत्र से अंशकालिक रूप से सम्बद्ध हूँ, इसी से मेरी पूर्वप्रदत्त मान्यता समाप्त कर दी गई है।

जिस दिन मुझे यह कृपापत्र प्राप्त हुआ, उस दिन मेरी एक मित्र बम्बई मेरे पास आई थीं। वह स्वयं एक सुख्यात विदुषी लेखिका हैं एवं भारत सरकार के फ़िल्म डिविजन की अधिकांश पटकथाएँ लिखती हैं।

उन्होंने वह पत्र देखा तो कहा, “आश्चर्य है, आपके साथ यह हुआ! महाराष्ट्र सरकार तो अस्थायी प्रेस मान्यता केवल 'पुलिस वैरिफिकेशन' की औपचारिकता के बाद ही स्थायी कर देती है।"

मैं उनसे कैसे कहती कि इसी राज्य सरकार ने मेरे इसी 'वातायन' के संकलन पर गत वर्ष मुझे रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित किया था। हो सकता है, पुलिस वैरिफिकेशन के बाद मुझे बिल्ला या रंगाखुश की श्रेणी में रख दिया गया हो। हमारा प्रदेश जिस उत्साह से ताजपोशी करता है, उसी उत्साह से ताज उतारना भी जानता है। मैं जानती हूँ कि इस स्तम्भ के माध्यम से मैंने सामाजिक, राजनीतिक एवं मानवीय विकृतियों को निर्भीक लेखनी से चित्रित करने की धृष्टता कर अनेक मित्रों को शत्रु बनाया है। अनेक आत्मीय स्वजनों से वैर मोल लिया है, किन्तु व्यक्तिगत द्वेष या प्रतिशोध की भावना ने मुझे कभी प्रेरित नहीं किया न मिथ्या चाटुकारिता को ही मैंने कभी प्रश्रय दिया। रुद्रट, कल्हण और विल्हण की उक्तियाँ आज भी प्रत्येक साहित्यकार के स्वाभिमान को ऊँचा उठाने में समर्थ हैं। उनका कहना है कि राजाओं के बनाए देव मन्दिर नष्ट हो गए, उन राजाओं का नाम भला किस माध्यम से शेष रहता यदि उनकी यशगाथा लिखनेवाले न होते! जिन महान विक्रमशाली राजाओं के भुज वन-रूपी वृक्षों की छाया सेवन कर समुद्र की करधनी पहने यह पृथ्वी निर्भय बनी रही, वे राजा भी जिसके अनुग्रह के बिना वरण नहीं किए जाते, प्रकृष्ट कवि की महती उस कवि-कर्म को हम प्रणाम करते हैं-

"भुजवन तरु छायांयेषानिषेधब्य महौजसां
जलधिरशन मेदिन्यासीदसावकतोभया।
स्मृतमपि न ते यान्तिक्ष्मापाबिना यदनुग्रह
प्रकृति महते कुर्मस्तस्मै नमः कविकर्मणे।"

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