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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


सत्रह


नैमिषारण्य सीतापुर हरदोई प्रान्त का पवित्र वन है एवं वहाँ की तीर्थमहिमा असाधारण मानी गई है, यह पढ़ा था। यह भी ज्ञात था कि सूत, शौनक आदि शान्तचित्त यज्ञ करते हुए यहीं तपस्या में लीन रहते थे। यही वह वनश्री थी, जहाँ संस्कृति और साहित्य का संरक्षण एवं संवर्द्धन हुआ था। ऐसी भव्य तीर्थस्थली का वर्णन करना सरल नहीं है। वायुपुराण में कहा गया है कि तीर्थों में धैर्य एवं श्रद्धा के साथ इन्द्रियों को वश में रखने से शुद्धि मिलती है। "तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धानो जितेन्द्रियः," सम्भवतः इसीलिए सूत, शौनक आदि ने यह शान्त पावन श्रीमंडित वनस्थली चुनी होगी। मुझे अनेक तीर्थस्थानों की पावन धूलि ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, किन्तु संक्षिप्त अवधि में भी जो अद्भुत शान्ति का अनुभव मुझे यहाँ हुआ, वह इतिपूर्व नहीं हुआ। चाहे वह कोलाहलपूर्ण ब्रह्मकुंड की गोलाकार परिधि हो, नवीन पुराण मन्दिर की सँकरी गली, दधीचि कुंड का मौलिक एकान्त या हनुमानगढ़ी का भव्य गाम्भीर्य! सर्वोपरि, व्यास गद्दी का वह शान्त वातावरण, जहाँ कोयल की कूक भी मुझे एक भिन्न ही कूक प्रतीत हुई थी, विराट् वृक्ष, उसके नीचे धरी वेदी पर बनी खड़ाऊँ, आसपास धरी चार वृत्ताकार प्रस्तर की बेंचें। जब मैं गई तो द्विप्रहर प्रौढ़ भी नहीं हुई थी, फिर भी लग रहा था, संध्या घनायमान हो आई है। पेड़ों के झुरमुट से दिख रही क्षीणकाया गोमती। लखनऊ की गोमती से कितना भिन्न रूप है इस गोमती का! वह शान्त-गम्भीर नील जलधारा मुझे कनकनन्दी-सी ही महिमामयी लगी, जहाँ स्नाने करने से स्वेच्छाचारी विहंगम भी स्वर्ग प्राप्त करते हैं। विष्णुस्मृति में तीर्थपूत ब्राह्मण को पंक्तिपावन कहा गया है, किन्तु इस तीर्थ में ब्राह्मण को पंक्तिपावनता को कसने के लिए भी एक अनोखी कसौटी है-व्यासतीर्थ की वर्तमान वेदी, जिसे पापी कभी देख नहीं पाता, 'सिद्धैस्तु सेवितः नित्यं दृश्यते नाकृतात्मभिः"। उस युग के जाँच कमीशन क्या इस युग से कुछ कम थे? किन्तु कैसी अद्भुत शक्ति उनमें रही होगी! तपःपूत ऋषि-मुनियों का कैसा अद्भुत तेज रहा होगा कि आज भी वहाँ बैठकर ऐसी विचित्र अनुभूति होती है, जैसे किसी दिव्य पारसमणि ने हृदय को छू लिया हो। किन्तु, वहाँ जाकर आचार्य हजारी प्रसादजी की बहुत पहले कही गई एक बात याद हो आई कि हम अपनी विरासत का भूलते जा रहे हैं, कपूत हो गए हैं। ऐसा दिव्य पावन भूखंड, जहाँ भारतीय संस्कृति और साहित्य की सृष्टि एवं संवर्धन हुआ, उसे क्या हम सामान्य-से प्रयास से अधिक शोभनीय नहीं बना सकते? एक ओर दक्षिण के महाबलिपुरम में विदेशी पर्यटकों के लिए दर्शनीय वातानुकूलित झोंपड़ियाँ बनाने में हमारी सरकार ने लाखों रुपया बहा दिया है (ऐसी नकली झोंपड़ियाँ बना क्या हमने अपनी आदि संस्कृति का खोखला प्रचार ही नहीं किया?) किन्तु जो आडम्बरहीन कुछ ऐसे दिव्य स्थान हैं जो आज भी बिना किसी प्रचार-प्रसार के स्वयं अपने ही प्रभामंडल से देदीप्यमान हैं, उनके संरक्षण के लिए हमारे पास न समय है न धन!

बहुत पूर्व सन् 1957 में ही जिस जिलाधिकारी ने वहाँ का सामान्य सौन्दर्गीकरण किया था, उनका नाम एक संगमरमरी शिला में अंकित है। क्या ऐसे तीर्थस्थलों पर भी अपने नाम की महिमा अंकित करना शोभनीय लगता है? भले ही वह शिलान्यास अत्यन्त महिमामय करों से ही हुआ हो। व्यास वेदी के सम्मुख किसी मानव नाम की महिमा कम-से-कम मुझे तो असंगत लगी। वहाँ की दीर्घदेही हनुमान की विराट् मूर्ति भी दर्शनीय है। पहले केवल मूर्ति थी, अब रोटरी क्लब में एक चिकनी संगमरमरी शिला का प्रांगण भी बना दिया है। उसकी भी एक रोचक कहानी सुनी। ठेकेदार ने मजदूर को आदेश दिया था कि मोजेइक फर्श बनाया जाए, किन्तु जब बनकर तैयार हुई तो उस चित्रांकित प्रांगण के अतिरिक्त व्यय का लेखा-जोखा उसी बनानेवाले से माँगा गया। उसने हाथ बाँधकर कहा, "मैं क्या करता हुजूर, जब बनाने जाता था, हनुमानजी स्वयं आकर खड़े हो जाते और कहते, यह भी बनेगा, वह भी।"

मिश्रित नैमिष में दर्शनीय स्थान है दधीचि कुंड-भगवती का मन्दिर। वह स्थान जहाँ दधीचि मुनि ने अपने शरीर में दही एवं हल्दी लगा गायों से चटवा शरीर त्यागा और अपनी अस्थियाँ इन्द्र को समर्पित की।

महर्षि दधीचि ऋग्वैदिक कालीन ऋषि थे। दधिमती अर्थात् लक्ष्मी के आशीर्वाद से उनका नाम पड़ा दधीचि। शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव के वरदान से उनका शरीर वज्रमय हो गया। उनके विषय में एक कहानी और भी है कि काशी में तपस्यारत दधीचि जब स्नान कर रहे थे, तब उन्होंने खखारकर जल में ही थूक दिया। वहीं एक तपस्विनी गन्धर्व कन्या भी नहा रही थी, अज्ञानवश उसने उसी जल का आचमन किया और पी गई। उसी खखार से वह गर्भवती हो गई। पता चलने पर क्रुद्ध होकर उसने शाप दिया, "जिसकी खखार ने मेरा सर्वनाश किया है, वह कुष्टरोगी हो।"

अभिशप्त दधीचि उसी कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने इस तीर्थ में आए। इसी समय त्विष्टा के यज्ञकुंड से मन्त्रों के मल उच्चारण से महाबली दैत्य वृत्रासुर का जन्म हुआ। उसके अत्याचारों से पीड़ित देवगणों को ब्रह्माजी ने दधीचि की वज्रमय अस्थियों से अस्त्र बनाने का सुझाव दिया। महर्षि अस्थि देने को तैयार तो हो गए किन्तु एक शर्त पर। पहले समस्त तीर्थों का भ्रमण करेंगे और तब देह त्यागेंगे। असम्भव को भी सम्भव करनेवाले देवगणों ने कहा, “महाराज, आप वहाँ नहीं जाएँगे, तीर्थ यहाँ आएँगे। समय बहुत कम है, तीर्थभ्रमण में समय लगेगा।" इस प्रकार आश्रम के समीप ही सब तीर्थों का आह्वान कर महर्षि की इच्छापूर्ति कर दी गई और लोककल्याण हेतु महर्षि ने फाल्गुनी पूर्णिमा की पुण्यतिथि को गउओं से शरीर चटवा अपनी अस्थि देवताओं को अर्पित कर दी। वहीं इस तीर्थ का अभ्युदय हुआ-मिश्रित तीर्थ। विश्वकर्मा उष्ना ने अस्थियों से वज्र आदि अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कियागांडीव अर्जुन के पास गया, राम-विवाह पर तोड़ा गया पिनाक बना और सारंग विष्णु के करकमलों में शोभित हुआ।

वज्र शक्ति से वृत्रासुर को परमपद प्राप्त हुआ। इन्द्र ने इस वज्र से केवल उसी को नहीं, उसके 810 साथियों को भी समाप्त किया। इसी से, जो वित्ताभाव से, समयाभाव से भारत के सम्पूर्ण तीर्थों का भ्रमण करने में असमर्थ हैं, आज भी उन दिव्य अस्थियों की वह स्मृतिस्थली उन्हें उसी पुण्य का भागी बनाने में समर्थ मानी जाती है जो समस्त तीर्थों का भ्रमण करने से प्राप्त होता है।

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