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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


सोलह


आज इस नैराश्यजनक सत्य को हमें मानना ही पड़ेगा कि देश की आईन-व्यवस्था दिन-प्रतिदिन भयावह वेग से गिर रही अपराध वन्या को रोकने में एक प्रकार से असमर्थ हो उठी है। जब तूफान मेल जैसी वेगवती रेलगाड़ी के तूफानी वेग को भी पराजित कर प्रथम श्रेणी के यात्रियों को लूटपाट दुःसाहसी अपराधी मनचाहे अरण्य में उतर सदा-सदा के लिए कानून की गिरफ्त को अँगूठा दिखा सकते हैं तो सामान्य राहजनी या दुःसाहसी अशिष्ट व्यवहार को दंडित करने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है?

चलती रिक्शा रोक किसी महिला का बटुआ छीना जाना या गले की चेन खींच लेना हमारे लिए छींक-खाँसी जैसी ऐसी सामान्य व्याधियाँ बन गई हैं, जिनके उपचार के लिए अनुभवी डॉक्टर, वैद्य, हकीम को बुलाने भागना अब हमारी मूर्खता ही कही जाएगी। ऐसी व्याधियों के लिए घरेलू उपचार करना ही हमारे लिए वांछनीय है, यह हम समझने लगे हैं। ऐसी घटना यदि हमारे साथ घटती है तो सार्वजनिक सहानुभूति की आशा करना भी व्यर्थ है, उल्टा लोग हमें ही फटकार सकते हैं कि "बटुआ लेकर जाने की या सोने की चेन पहनने की मूर्खता ही क्यों की? गले में चेन है तो जरूर खींची जाएगी या हाथ में बटुआ है तो बुद्धिमान छीननेवाला जरूर छीनेगा!" अर्थात् चेन पहनने की नारीसुलभ इतनी ही प्रबल इच्छा है, तो पहले चेनसहित गला काटकर घर पर ही रख आइए! बटुआ हाथ में झुलाना ही है तो खाली बटुआ झुलाइए!

स्वामी विवेकानन्द जैसे दिग्गज मनस्वी ने अपने कर्मकांड के मूल सूत्र का उल्लेख इन शब्दों में किया है, "मैं मानव की सेवा कर सकूँ, यही मेरा एकमात्र काम्य है, शक्ति और साहसिकता ही धर्म है, दुर्बलता और कापुरुषता पाप।" किन्तु आज शक्ति और साहसिकता दोनों ही शब्द शब्दकोष में ही सिमटकर रह गए हैं। वास्तविक जीवन में इनका निर्वाह कितना कठिन हो उठा है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मुझे स्वयं कुछ दिन पूर्व मिल गया। हम ढोल-दमामे बजाकर नारी-वर्ष भले ही मना लें, भारत की नारी आज भी उतनी ही असहाय है, उतनी ही विवश।

मैं नियमित रूप से प्रातः घूमने निकलती रही हूँ। प्रायः साथ में मेरी नौकरानी की लड़की भी रहती थी। इधर, जब भी मैं उसे लेकर निकलती, कालोनी के ही दो नौकरों को मैं संदिग्धपूर्ण ढंग से उसका पीछा करते देखती। दो दिन तो मैं चुप रही, तीसरे दिन मैंने पलटकर उन्हें बुरी तरह फटकारा। सौभाग्य से घूमने निकले दो बुजुर्गों ने भी उन्हें उनकी इस हरकत के लिए लताड़ा। मैं दूसरे दिन से अकेली ही जाने लगी, अन्तर इतना ही था कि अब साथ में लड़की के बदले एक थानेदारी डंडा अवश्य रख लिया। तीसरे दिन जब मैं लौट रही थी तो देखा, निर्जन सड़क घेरे सात नौकर, वर्तुलाकार पंक्ति में खड़े हैं, जिनमें दो वे ही उदंड छोकरे थे, जिन्हें मैंने दो दिन पूर्व फटकारा था। मुझे देखकर उन्होंने शायद सोचा, मैं घबराकर लौट जाऊँगी, पर जब बढ़ती ही गई तो घेरा स्वयं बिखर गया और उनमें से एक जिस आक्रामक मुद्रा में भन्नाकर निकला, मुझे लगा, शायद मेरे गले की चेन खींचने आ रहा है। पर फिर शायद मेरी कठोर मुद्रा देख वह स्वयं खिसक गया। मैं आगे बढ़ी तो उस छोकरे ने मुझे रोक दिया, जिसे मैंने डाँटा था, “सुनिए, आपने हमें उस दिन डाँटा क्यों?" उसकी चोरी और सीनाजोरी देखकर मैं स्तब्ध रह गई। इस कॉलोनी में विगत दस वर्षों से रहती आई हूँ, और इतिपूर्व किसी भृत्य का ऐसा दुःसाहस देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। "बड़े बदतमीज हो, सड़क पर ऐसे बात करने की हिम्मत तुम्हें कैसे हुई?" मैंने कहा तो क्रोध से मेरी कनपटियाँ फड़क रही थीं।

"बदतमीज आप हैं, आपने भी तो हमें सड़क पर डाँटा।" और फिर वह उसी उइंड अबाध्यता से मार्ग अवरुद्ध कर खड़ा हो गया।

एक बार तो जी में आया, डंडे के एक ही प्रहार से उसका मुँह उत्तर से दक्षिण को मोड़ दूं किन्तु इसी बीच वहाँ पर खड़े कुछ साहसी लड़कों ने उसका अशिष्ट स्वर सुन लिया और फिर मेरे लाख मना करने पर भी उसे और उसके साथियों को लड़कों ने उसी भाषा में खूब समझा दिया, जिस एकमात्र भाषा को यह अशिक्षित वर्ग समझता है।

जिस बात से चित्त अत्यधिक खिन्न हुआ, वह यह थी कि यह घटना कॉलोनी की ही मुखर सड़क पर घटी और जब सात-सात ऐसे अवांछनीय तत्त्वों के चक्रव्यूह में अकेली अभिमन्यु बनी मैं खड़ी थी तो केवल कुछ साहसी लड़कों के और एक प्रतिवेशी परिवार के कोई भी बाहर नहीं निकला, जबकि पर्दो की दरार से झाँकते अनेक कौतूहली, परिचित चेहरों को मैं पहचान रही थी। जिनके उदंड भृत्यों ने इस चरम अशिष्ट व्यवहार का परिचय दिया था, उनके स्वामियों को भी मैं जानती थी। केवल औपचारिक क्षमा याचना के उनमें से एक को छोड़ किसी ने भी अब उन असामाजिक तत्त्वों के दुखते दाढ़ों को जड़ से उखाड़ने का सामान्य-सा आश्वासन भी नहीं दिया। शायद इसलिए कि उनमें से अधिकांश सरकारी नौकर हैं, और सरकारी मुलाजिम नाज-नखरों में दुहेजू बीवी और बादशाह की घोड़ी से कुछ कम नहीं होते अर्थात् जितना ही कूदे, उतना थोड़ी!

इन निरंकुश स्वेच्छाचारी सम्राटों पर किसी प्रकार का अंकुश लगाना न उनके प्रभुओं के लिए वांछनीय है न सम्भव, क्योंकि न जाने कब उग्र तुरुप लगाकर साहब ही को ढेर कर दें। "साहब, घर का काम करवाते हैं।" इसी से वे आधी-आधी रात तक फ्लैटों के बाहर बनी बेंचों पर तालियाँ बजा सकते हैं, अश्लील सीटियों में सीना फुला सकते हैं, निरीह गरीब लड़कियों को अकारण छेड़ सकते हैं और आप उन्हें फटकारिए तो फुफकारते विषधरों की भाँति आप ही को इंसने रास्ता रोककर पसर भी सकते हैं। किन्तु, जो आज किन्हीं गरीब लड़कियों को छेड़ सकता है, वह कल हमारी सयानी लड़कियों पर भी बुरी नजर डाल सकता है। स्वयं हमारा भी मार्ग अवरुद्ध कर, हमें अशिष्टता से दग्ध कर सकता है। यह सत्य हम स्वार्थवश स्वीकार नहीं करना चाहते।

आज, हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता यह वर्ग जान गया है कि हम आधुनिक गृहिणियों को आधुनिकता के मोह ने स्वयं ही गृहस्थी की मोहक परिधि से बहुत दूर ठेल दिया है। हम नौकरों पर निर्भर होते-होते उनके हाथ ही कठपुतली मात्र बन गए हैं। नौकर दो दिन की छुट्टी पर जाता है या बीमार पड़ जाता है तो हमारे प्राण कंठागत हो जाते हैं। वह जानता है कि उसके से ठसकेदार मेम साहब के प्राण भी आज उसकी मुट्ठी में बन्द हैं। जब चाहे साहब से अपनी नौकरी स्थायी करवा ले और एक बार वह कनफर्म हुआ तो उसी क्षण उसे गृह की पटरानी का ओहदा मिल गया। रात-भर की अड्डेबाजी, ट्रांजिस्टर की सस्ती फ़िल्मी धुनें, आधी रात के सिनेमा शो, और फिर रही-सही कसर साहब का टेलीविजन पूरी कर देता है, इसी से आज प्रायः प्रत्येक समृद्ध गृह का भृत्य ईदी अमीन बन गया है।

“आप चिन्ता न करें, अब वह सहम गया है।" एक स्वामिनी ने मुझसे कहा, "वैसे मुझे भी वह कभी-कभी मुँह में जवाब दे देता है।" मैं उन्हें वह सीख देना चाहती थी, जो कभी मेरे एक उदंड पहाड़ी छोकरे नौकर की अशिष्टता को परम औदार्य से उदरस्थ कर उसे न निकालने पर मेरी माँ ने मुझे दो पंक्तियाँ सुनाकर दी थी-

दुष्टा भार्या, शठं मित्रम्
भृत्यश्चोत्तरदायकः।
सस च गृहेवासः
मृत्युरेव न संशयः।।

दुष्टा पत्नी, शठ मित्र, मुँह में जवाब देनेवाला नौकर घर में बसे साँप की भाँति कभी भी प्राण ले सकता है, इसमें कोई संशय नहीं।

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