संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
पन्द्रह
हमारे प्रदेश में नवीन सत्तारूढ़ सरकार ने अपना प्रथम जन्मदिन मना लिया है,
किन्तु चेष्टा करने पर भी आज शासित जनता हृदय से अपनी शुभकामनाओं के ये
पारम्परिक उद्गार नहीं निकाल पा रही है कि ईश्वर करे, यह दिन बारबार आए। जनता
और शासक वर्ग के बीच की खाई पटने के स्थान पर और भी गम्भीर हो उठी है। कानून
और व्यवस्था की स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि गुरुतर अपराधों को भी हम अब
गुरुतर अपराध नहीं मानते। यात्रा चाहे वह कितनी ही आवश्यक क्यों न हो, हमें
यात्रापूर्व ही सहमाकर अधमरा करने लगती है। प्रदर्शन, हड़तालों ने जहाँ एक ओर
सामान्य जन-जीवन ठप्प कर दिया है, वहीं पर सत्तारूढ़ जनता सरकार का
स्वार्थपरता का मोतियाबिन्द उसके विवेक-चक्षुओं को लगभग दृष्टिहीन बना चुका
है।
कहते हैं कि अप्रिय सत्य कभी नहीं कहना चाहिए किन्तु अनिश्चय एवं अस्थिरता के विषम ज्वर ने इसमें से अधिकांश को सन्निपातीय अवस्था में पहुँचा दिया है। एक ओर जनता सरकार अपने ही अन्तर्द्वन्द्वों में उलझ दिनप्रतिदिन अपनी कार्यक्षमता, अपनी कर्मठता, अपनी शक्ति और सर्वोपरि जनता का विश्वास खो रही है, दूसरी ओर उसकी भोगजन्य विलासी प्रवृत्ति दानवी गति से बढ़ रही है।
अभीइसी सप्ताह एक अंग्रेजी साप्ताहिक में कोवलम समुद्रतट स्थित एक ऐसे सुख्यात होटल का विवरण छपा था, जहाँ के एक मालिश कक्ष में जाकर पटु कर्मचारियों द्वारा किसी आयुर्वेदिक तेल की मालिश के लिए मन्त्री, एम.पी. आदि अन्तहीन क्यू में सदैव खड़े रहते हैं। वहाँ पुरुष अतिथियों के लिए पुरुष मालिश करनेवालों की एवं नारी अतिथियों के लिए नारी परिचारिकाओं की विशेष सुविधा रहती है। कुछ दिन पूर्व उस ख्याति से आकर्षित हो कुछ सांवादिक भी वहाँ गए और मालिश की इच्छा प्रकट की किन्तु उन्हें खेद सहित सूचित किया गया कि कुछ ही क्षणों में एक केन्द्रीय। मन्त्री वहाँ काफिले सहित मालिश करवाने के लिए पधार रहे हैं, अतएव उन्हें अपनी दुखती रगें लिए ही निराश लौटना पड़ेगा। थोड़ी ही देर में पैंसठ वर्षीय वार्धक्य-जर्जरित मन्त्री पधारे। पीछे-पीछे थी मोटरों की लम्बी बरात। बड़ी तत्परता से मन्त्रीप्रवर की मालिश हुई। यही नहीं, चलते-चलते उन्हें उस दिव्य औषधियुक्त मालिश तेल की दो शीशियाँ भी भेंट की गईं। यदि होटल प्रबन्धकों को जरा भी सांसारिक दिशाज्ञान होता तो उन्हें सांवादिकों को भी अपने मालिश-कलाप से सन्तुष्ट कर लेना चाहिए था, पर बेचारे सम्भवतः नहीं जानते थे कि किसी असन्तुष्ट सांवादिक की दुखती रगें और चरमराती क्लान्त हड्डियाँ कभी भी वज्र बनकर उन पर बरस सकती हैं।
कोवलम का अत्यन्त लुभावना समुद्रतट-अपने सौन्दर्यमात्र से ही किसी भी क्लान्त पर्यटक की दुखती रगों की क्लान्ति हरने में सक्षम है, यह मैं देख चुकी हूँ, फिर यह व्यर्थ के चोंचलों का बाजार कैसा? क्या जब नगरों और ग्रामों में सामान्य जनजीवन अपने को ऐसा अरक्षित अनुभव कर रहा है, जैसा इतिपूर्व उसने कभी नहीं किया, जब प्रदर्शन, हड़ताल, मजदूरों का असन्तोष और सर्वोपरि स्वयं सत्तारूढ़ जनता सरकार का अन्तर्द्वन्द्व, प्राणिमात्र को क्षुब्ध कर विद्रोही बना रहा है, तब सुदूर कोवलम तट स्थित मालिश-कक्ष में जाकर मालिश द्वारा ऐसे व्यर्थ कायाकल्प की ऐयाशी क्या हमें शोभा देती है? हमारे देश में मानव की यह चौथेपन की अवस्था वानप्रस्थी अवस्था कहलाती है, जब भोगैषणा, वित्तैषणा का मानव के लिए कोई मूल्य नहीं रहता। किन्तु अब इस अवस्था में भी बिना वायुयान के हमें यात्रा नहीं सुहाती, पृथ्वी को छोड़ हमारे पैर सामान्य-सी यात्रा का आह्वान पाने पर ही स्वयं गगन की ओर उठने लगते हैं। प्रथम श्रेणी की यात्रा भी सत्तारूढ़ शासकों को सन्तोष नहीं दे पाती। वातानुकूलित कक्ष न मिले तो उनकी तनी भृकुटियों का विलास देखिए। यह सब भी शायद हम घुटक लेते, यदि उनकी कुछ ठोस उपलब्धियों का सशक्त प्रमाण हमारी मुट्ठी में होता।
विश्वविद्यालयों में आज व्यापक छात्र अशान्ति है, श्रमिक असन्तोष अपनी चरम पराकाष्ठा पर है, महार्घता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, आरक्षण की नीति हमारा अनिष्ट ही अधिक कर रही है। इस सब गन्दगी का टोकरा सिर पर लादे हम मालिश करवाने जा रहे हैं कोवलम समुद्रतट पर! मुझे वर्षों पूर्व नैनीताल की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर सिर पर मल-भरी बाल्टी का दुर्गन्धमय बोझा धारण किए एक जमादार कर बरबस स्मरण हो आता है। (तब, और कहीं-कहीं अब भी पहाड़ों में मल ऐसे ही बाल्टियों में भर, सिर पर धरकर ढोने की लज्जाजनक कुव्यवस्था है।) सिर पर वह दुर्गन्धमय बाल्टी थी और वाहक मस्त स्वर में गा रहा था-
'हर फूल में खुशबू है
हर पत्ता 'खोस खोस है।
(खुश-खुश है।)
भले ही हम भी ऐसा ही गाना गाकर अपने अशान्त चित्त को स्वयं भरमाने की चेष्टा करें किन्तु एक-न-एक दिन यह दुर्गन्ध असह्य हो उठेगी और हम मलपूरित बाल्टी स्वयं पटक देंगे।
कहते हैं कि अप्रिय सत्य कभी नहीं कहना चाहिए किन्तु अनिश्चय एवं अस्थिरता के विषम ज्वर ने इसमें से अधिकांश को सन्निपातीय अवस्था में पहुँचा दिया है। एक ओर जनता सरकार अपने ही अन्तर्द्वन्द्वों में उलझ दिनप्रतिदिन अपनी कार्यक्षमता, अपनी कर्मठता, अपनी शक्ति और सर्वोपरि जनता का विश्वास खो रही है, दूसरी ओर उसकी भोगजन्य विलासी प्रवृत्ति दानवी गति से बढ़ रही है।
अभीइसी सप्ताह एक अंग्रेजी साप्ताहिक में कोवलम समुद्रतट स्थित एक ऐसे सुख्यात होटल का विवरण छपा था, जहाँ के एक मालिश कक्ष में जाकर पटु कर्मचारियों द्वारा किसी आयुर्वेदिक तेल की मालिश के लिए मन्त्री, एम.पी. आदि अन्तहीन क्यू में सदैव खड़े रहते हैं। वहाँ पुरुष अतिथियों के लिए पुरुष मालिश करनेवालों की एवं नारी अतिथियों के लिए नारी परिचारिकाओं की विशेष सुविधा रहती है। कुछ दिन पूर्व उस ख्याति से आकर्षित हो कुछ सांवादिक भी वहाँ गए और मालिश की इच्छा प्रकट की किन्तु उन्हें खेद सहित सूचित किया गया कि कुछ ही क्षणों में एक केन्द्रीय। मन्त्री वहाँ काफिले सहित मालिश करवाने के लिए पधार रहे हैं, अतएव उन्हें अपनी दुखती रगें लिए ही निराश लौटना पड़ेगा। थोड़ी ही देर में पैंसठ वर्षीय वार्धक्य-जर्जरित मन्त्री पधारे। पीछे-पीछे थी मोटरों की लम्बी बरात। बड़ी तत्परता से मन्त्रीप्रवर की मालिश हुई। यही नहीं, चलते-चलते उन्हें उस दिव्य औषधियुक्त मालिश तेल की दो शीशियाँ भी भेंट की गईं। यदि होटल प्रबन्धकों को जरा भी सांसारिक दिशाज्ञान होता तो उन्हें सांवादिकों को भी अपने मालिश-कलाप से सन्तुष्ट कर लेना चाहिए था, पर बेचारे सम्भवतः नहीं जानते थे कि किसी असन्तुष्ट सांवादिक की दुखती रगें और चरमराती क्लान्त हड्डियाँ कभी भी वज्र बनकर उन पर बरस सकती हैं।
कोवलम का अत्यन्त लुभावना समुद्रतट-अपने सौन्दर्यमात्र से ही किसी भी क्लान्त पर्यटक की दुखती रगों की क्लान्ति हरने में सक्षम है, यह मैं देख चुकी हूँ, फिर यह व्यर्थ के चोंचलों का बाजार कैसा? क्या जब नगरों और ग्रामों में सामान्य जनजीवन अपने को ऐसा अरक्षित अनुभव कर रहा है, जैसा इतिपूर्व उसने कभी नहीं किया, जब प्रदर्शन, हड़ताल, मजदूरों का असन्तोष और सर्वोपरि स्वयं सत्तारूढ़ जनता सरकार का अन्तर्द्वन्द्व, प्राणिमात्र को क्षुब्ध कर विद्रोही बना रहा है, तब सुदूर कोवलम तट स्थित मालिश-कक्ष में जाकर मालिश द्वारा ऐसे व्यर्थ कायाकल्प की ऐयाशी क्या हमें शोभा देती है? हमारे देश में मानव की यह चौथेपन की अवस्था वानप्रस्थी अवस्था कहलाती है, जब भोगैषणा, वित्तैषणा का मानव के लिए कोई मूल्य नहीं रहता। किन्तु अब इस अवस्था में भी बिना वायुयान के हमें यात्रा नहीं सुहाती, पृथ्वी को छोड़ हमारे पैर सामान्य-सी यात्रा का आह्वान पाने पर ही स्वयं गगन की ओर उठने लगते हैं। प्रथम श्रेणी की यात्रा भी सत्तारूढ़ शासकों को सन्तोष नहीं दे पाती। वातानुकूलित कक्ष न मिले तो उनकी तनी भृकुटियों का विलास देखिए। यह सब भी शायद हम घुटक लेते, यदि उनकी कुछ ठोस उपलब्धियों का सशक्त प्रमाण हमारी मुट्ठी में होता।
विश्वविद्यालयों में आज व्यापक छात्र अशान्ति है, श्रमिक असन्तोष अपनी चरम पराकाष्ठा पर है, महार्घता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, आरक्षण की नीति हमारा अनिष्ट ही अधिक कर रही है। इस सब गन्दगी का टोकरा सिर पर लादे हम मालिश करवाने जा रहे हैं कोवलम समुद्रतट पर! मुझे वर्षों पूर्व नैनीताल की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर सिर पर मल-भरी बाल्टी का दुर्गन्धमय बोझा धारण किए एक जमादार कर बरबस स्मरण हो आता है। (तब, और कहीं-कहीं अब भी पहाड़ों में मल ऐसे ही बाल्टियों में भर, सिर पर धरकर ढोने की लज्जाजनक कुव्यवस्था है।) सिर पर वह दुर्गन्धमय बाल्टी थी और वाहक मस्त स्वर में गा रहा था-
'हर फूल में खुशबू है
हर पत्ता 'खोस खोस है।
(खुश-खुश है।)
भले ही हम भी ऐसा ही गाना गाकर अपने अशान्त चित्त को स्वयं भरमाने की चेष्टा करें किन्तु एक-न-एक दिन यह दुर्गन्ध असह्य हो उठेगी और हम मलपूरित बाल्टी स्वयं पटक देंगे।
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