संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
चौदह
अभी-अभी मेरी दृष्टि मेज पर धरी कुमाऊँ की 'समता' समाचार-पत्रिका की कतरन
पर जाती है तो हँसी भी आती है और दुख भी होता है। हँसी इसलिए कि जिस
उत्तराखण्ड शिल्पकार संघ ने शिवानी की ‘रति विलाप' और 'सुरंगमा' पर प्रतिबन्ध
लगाने की माँग कर गृहमन्त्री चरणसिंह को सुदीर्घ पत्र भेजा है, उसे मेरे ‘रति
विलाप' में 'डोम' या 'डोमनी' शब्द के प्रयोग पर घोर आपत्ति है। स्पष्ट है कि
उक्त संघ ने मेरे उपन्यास को पढ़ा ही नहीं है, क्योंकि 'रति विलाप' में इस
शब्द को प्रयोग में लाने का सौभाग्य कम-से-कम मुझे तो प्राप्त नहीं हुआ। फिर
'सुरंगमा' पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव, वह भी इसी शब्द के प्रयोग के कारण
सचमुच हास्यास्पद प्रतीत होता है। इस उपन्यास में तो मैंने आरम्भ से अन्त तक
अपनी ही जाति का दौर्बल्य अंकित किया है, जबकि एक ब्राह्मण होने के नाते यह
मेरा अक्षम्य अपराध है। ब्रह्माण्ड एवं वायु पुराण के निर्देशानुसार ब्राह्मण
के आचरण के विषय में तर्क करना वर्जित है। बृहदारण्यक उपनिषद में भी ब्राह्मण
की निन्दा करना निषिद्ध है-- 'ब्राह्मणान्ननिन्दते। ब्राह्मण होने से ही कोई
व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता, यह तथ्य मैंने अपनी कई कहानियों में
अंकित किया है, किन्तु आज जब ये पंक्तियाँ पढ़ीं, “लेखिका कुमाऊँ की मूल
निवासिनी है, वह जान-बूझकर इस घृणित शब्द का प्रयोग कर साम्प्रदायिकता उभार
रही है, अतएव उस पर मुकदमा चलाया जाए। कुमाऊँनी भाषा में 'डोम' शब्द है ही
नहीं..." तो शिल्पकार संघ की अल्पज्ञता पर तरस ही अधिक आया। कुमाऊँनी में इस
बहुप्रचलित शब्द पर अनेक पहाड़ी लोकप्रिय मुहावरे भी आधारित हैं, जैसे 'मुख
लगै डुमणि द्वार लैं ठाड़ि'-डुमणी को बहुत मुँह लगाने से वह नित्य द्वार पर
आकर खड़ी हो जाती है, आदि। फिर, जिन्होंने बिना ठीक से पढ़े मेरे उपन्यासों
पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव रखा है, उन्हें क्या विष्णुपुराण, मनुस्मृति,
मत्स्यपुराण पर भी पहले प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए? चारों पुराणों में
उल्लेख है कि,
त्वन्मुखाद ब्राह्मणोस्त्वत्ते, बाहोः क्षत्रमजायत।
वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव परम्यां समुद्गताः।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के उत्पत्ति-स्रोत विष्णु के मुख, बाहु, जंघा तथा चरण हैं। इसमें भी 'शूद्र' शब्द का प्रयोग तथा विष्णु के चरणों से उसकी उत्पत्ति पर भी शिल्पकार संघ को आपत्ति हो सकती है। ऐसे ही चारों पुराणों ने जो स्पष्ट कर दिया है कि स्वकर्मनिरत ब्राह्मण प्राजापत्य लोक के अधिकारी हैं। वे क्षत्रिय जो युद्धभूमि से न भागे, ऐन्द्रलोक के; वैश्य मरुत लोक के एवं शूद्र, जिनका निश्चित कर्तव्य परिचर्या है, गांधर्व लोक को प्राप्त करते हैं। विष्णुपुराण की इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर भी तो आपत्ति की जा सकती है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी साहित्यकार ऐसी छोटी-छोटी बातें ध्यान में रखकर किसी वर्ण-विशेष को आहत करने के लिए कहानी या उपन्यास नहीं लिखता। किसी वर्ण या जाति-विशेष की विसंगतियों की वर्णना करना किसी भी रचनाकार का अभीष्ट नहीं होता, किन्तु उसका कर्तव्य है कि मानव चरित्र की दुर्बलताओं को वह ईमानदारी से उजागर करे। चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मानव हमेशा मानव ही रहेगा। यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण है तो उसका चरित्र एवं आदर्श अनुकरणीय ही होगा या परिचर्यावृत्ति ही शूद्र के लिए यज्ञ-कल्प है। क्योंकि जहाँ एक ओर हमारे पुराणों में प्रत्येक वर्ण के लिए भिन्न-भिन्न व्यवस्था है, वहीं पर वायु एवं ब्रह्मांड पुराणों के अनुसार यदि शूद्र भक्ति करे, शराब न पिए, अपनी इन्द्रियों को संयत रखे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ऐसे ही मनुस्मृति में ऐसे क्षत्रियों का उल्लेख किया गया है जो अपने कर्म के कारण शूद्र हो गए थे।
हमारा चातुर्वर्ण्य विभाजन सामाजिक व्यवस्था का विधायक है। प्रत्येक युग का अवसान होने पर समाज में जो अव्यवस्था आ जाती है, उसी के निवारणार्थ वर्गों का विभाजन किया जाता है। चारों वर्ण अपने-अपने कर्तव्यों से एक-दूसरे को अनुगृहीत करते हैं, 'परस्परमनुब्रताः'। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व, शूद्र से संयुक्त सृष्टि की जिस व्यवस्था को हमारे पुराणों ने शाश्वत घोषित किया है, उसे अपनी ऐसी संकीर्ण विचारधारा से यदि हम दूषित हैं तो दोष हमारा है, वर्ण-व्यवस्था का नहीं। यदि हमारी चरित्रगत दुर्बलताओं या विसंगतियों का कहीं उल्लेख हो तो हममें इतना साहस होना चाहिए कि उस कड़वे घूंट को हम घुटक सकें।
शिल्पकार वर्ग का यह आरोप कि मैं उन्हें नीच, चरित्रहीन, अपमानजनक शब्दों में संस्काररहित दिखाती आ रही हूँ, सर्वथा निर्मूल है। मेरी लेखनी को न कभी ब्रह्म तेज ने सहमाया है, न अन्य किसी वर्ण तेज ने। यदि मुझ,पर भी प्रतिबन्ध लग सकता है तो मुझसे बहुत पहले प्रेमचन्द एवं निराला पर भी प्रतिबन्ध लग सकता था! क्या पता, शायद निराला को भी 'चतुरी चमार का शीर्षक बदलना पड़ता!
त्वन्मुखाद ब्राह्मणोस्त्वत्ते, बाहोः क्षत्रमजायत।
वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव परम्यां समुद्गताः।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के उत्पत्ति-स्रोत विष्णु के मुख, बाहु, जंघा तथा चरण हैं। इसमें भी 'शूद्र' शब्द का प्रयोग तथा विष्णु के चरणों से उसकी उत्पत्ति पर भी शिल्पकार संघ को आपत्ति हो सकती है। ऐसे ही चारों पुराणों ने जो स्पष्ट कर दिया है कि स्वकर्मनिरत ब्राह्मण प्राजापत्य लोक के अधिकारी हैं। वे क्षत्रिय जो युद्धभूमि से न भागे, ऐन्द्रलोक के; वैश्य मरुत लोक के एवं शूद्र, जिनका निश्चित कर्तव्य परिचर्या है, गांधर्व लोक को प्राप्त करते हैं। विष्णुपुराण की इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर भी तो आपत्ति की जा सकती है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी साहित्यकार ऐसी छोटी-छोटी बातें ध्यान में रखकर किसी वर्ण-विशेष को आहत करने के लिए कहानी या उपन्यास नहीं लिखता। किसी वर्ण या जाति-विशेष की विसंगतियों की वर्णना करना किसी भी रचनाकार का अभीष्ट नहीं होता, किन्तु उसका कर्तव्य है कि मानव चरित्र की दुर्बलताओं को वह ईमानदारी से उजागर करे। चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मानव हमेशा मानव ही रहेगा। यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण है तो उसका चरित्र एवं आदर्श अनुकरणीय ही होगा या परिचर्यावृत्ति ही शूद्र के लिए यज्ञ-कल्प है। क्योंकि जहाँ एक ओर हमारे पुराणों में प्रत्येक वर्ण के लिए भिन्न-भिन्न व्यवस्था है, वहीं पर वायु एवं ब्रह्मांड पुराणों के अनुसार यदि शूद्र भक्ति करे, शराब न पिए, अपनी इन्द्रियों को संयत रखे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ऐसे ही मनुस्मृति में ऐसे क्षत्रियों का उल्लेख किया गया है जो अपने कर्म के कारण शूद्र हो गए थे।
हमारा चातुर्वर्ण्य विभाजन सामाजिक व्यवस्था का विधायक है। प्रत्येक युग का अवसान होने पर समाज में जो अव्यवस्था आ जाती है, उसी के निवारणार्थ वर्गों का विभाजन किया जाता है। चारों वर्ण अपने-अपने कर्तव्यों से एक-दूसरे को अनुगृहीत करते हैं, 'परस्परमनुब्रताः'। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व, शूद्र से संयुक्त सृष्टि की जिस व्यवस्था को हमारे पुराणों ने शाश्वत घोषित किया है, उसे अपनी ऐसी संकीर्ण विचारधारा से यदि हम दूषित हैं तो दोष हमारा है, वर्ण-व्यवस्था का नहीं। यदि हमारी चरित्रगत दुर्बलताओं या विसंगतियों का कहीं उल्लेख हो तो हममें इतना साहस होना चाहिए कि उस कड़वे घूंट को हम घुटक सकें।
शिल्पकार वर्ग का यह आरोप कि मैं उन्हें नीच, चरित्रहीन, अपमानजनक शब्दों में संस्काररहित दिखाती आ रही हूँ, सर्वथा निर्मूल है। मेरी लेखनी को न कभी ब्रह्म तेज ने सहमाया है, न अन्य किसी वर्ण तेज ने। यदि मुझ,पर भी प्रतिबन्ध लग सकता है तो मुझसे बहुत पहले प्रेमचन्द एवं निराला पर भी प्रतिबन्ध लग सकता था! क्या पता, शायद निराला को भी 'चतुरी चमार का शीर्षक बदलना पड़ता!
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