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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


तेरह


अभी तीन दिन पूर्व, मेरी एक परिचिता मिलने आईं। पास ही में घटी एक अप्रीतिकर घटना ने उन्हें बहुत चिन्तित कर दिया था। घटना ऐसी थी कि उनका चिन्तित होना स्वाभाविक भी था। वही नहीं, उनके स्थान पर कोई भी सयानी पुत्री की जननी होती तो उसे भी वह घटना भयत्रस्त अवश्य कर जाती। फिर उन्होंने उस घटना का ब्यौरा इधर-उधर की बतकही से नहीं बटोरा था, स्वयं घटना से सम्बद्ध गृहिणी के मुख से सुनकर आई थीं। संध्या को लगभग सात बजे उनका पुत्र अपनी चचेरी बहन को लिवाकर घर आ रहा था। बहन रिक्शा में थी, अंगरक्षक बना भाई रिक्शा के पीछे-पीछे साइकिल पर था। सहसा सड़क पर रुकी एक फिएट से एक लड़का उतरा और बड़ी दुःसाहसिक धृष्टता से किशोरी की चेन खींचने लगा। वह बेचारी जोर-जोर से चीखने लगी, क्योंकि गाड़ी में तीन-चार लड़के और भी बैठे थे। इतने ही में लपककर भाई घटनास्थल पर पहुँच गया। उसे देखते ही दुःसाहसी आरोही नौ-दो ग्यारह हो गए। किन्तु फिएट के अदृश्य होने के पूर्व भाई की प्रत्युत्पन्नमति कार का नम्बर नोट कर चुकी थी। जैसाकि प्रायः ऐसे अवसरों पर होता है, डिसाइफर करने पर कार के नम्बरों के स्थान पर मानस की वही चिरपरिचित पंक्ति उभर आई, जो प्रायः कानून के सशक्त हाथ को भी जकड़ उसे विवश बना देती है, 'समरथ को नहिं दोष गोसाईं।

यह सचमुच ही हमारे अभिशप्त देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ 'असमरथ' से 'समरथों की संख्या बहुत बड़ी है। संध्या सात बजे ही जो महाअशोभनीय घटना किसी सम्भ्रान्त गृहस्थ की पुत्री के साथ घटी है, वह कल स्वयं हमारी पुत्री के साथ भी घट सकती है, उस कटु सत्य को हमारा विशुद्ध-उदार, क्षमाशील भारतीय चित्त कभी उदरस्थ नहीं कर सकता। हमारे विवेक की रसलोलुप भारतीय जिह्वा को मीठे नुक्ती के लड्ड ही पसन्द हैं, कड़वी नीमकौड़ी नहीं, भले ही उसमें रोगों की मृत्युंजया शक्ति निहित हो! 'फलाँ हमारा मित्र है, या 'फलाँ से व्यर्थ का बैर मोल लेकर क्या लाभ?' या 'हमारा क्या, यह घटना क्या हमारी पुत्री के साथ घटी थी?' सच, कभी-कभी भारत के गौरवमय अतीत के वे दिन याद करती हूँ तो चित्त खिन्न हो उठता है, जब किसी भी गाँव की बेटी, किसी एक की बेटी न होकर पूरे गाँव की बेटी होती थी। जबकि उसकी लज्जा, उसका अपमान समग्र ग्राम की लज्जा एवं समस्त ग्राम का अपमान होता था।

'अब भई तुम्हीं सोचो, हमारे मित्र हैं, हम क्या एक्शन लें,' या 'व्यर्थ बैर मोल लेकर क्या लाभ,' आदि ऐसे निर्वीर्य-स्वार्थी अकाट्य कुतर्क आज हमारी भारतीय रक्त-मज्जा में रस-बस गए हैं। यह ठीक है कि कानून की मर्यादा का हम आज भी आदर करते हैं, किन्तु कानून के विचारकों तक पहुँचने में और पहुँचने पर भी उनके परिचित इष्ट-मित्रों के दायरे को अपने अभियोग की गुलेल के पत्थर से बचाने में एक आहत नागरिक को जैसी मर्मान्तक व्यथा का अनुभव होता है, उसे देख, फिर वह कभी न्याय या सुविचार की कामना भी नहीं करता। "सबसे भली चुप' में ही स्वयं अपनी जटिल समस्या का समाधान पा सोंठ खींच लेता है।

इसी सप्ताह के 'देश' के सम्पादकीय में भी सम्पादक ने ऐसी ही आशंका व्यक्त की है। सम्पादक ने लिखा है कि जनजीवन की सुरक्षा के लिए सर्वसुलभ न्याय-व्यवस्था का अत्यन्त महत्त्व है। 25 दिसम्बर की 'आनन्द बाजार पत्रिका' में प्रकाशित पाँच एडवोकेटों के अभियोग के एक सम्मिलित पत्र का उल्लेख कर उन्होंने लिखा है कि यह पत्र जनजीवन की दुर्भाग्यमय अदृष्ट लिपि का एक अंश है। न्याय विचार एवं विचारनिष्ठा की कैसी भयानक आदर्शच्युति सम्भव हो सकती है, इसी का उस पत्र में स्पष्ट संकेत है। विशेषकर ये पंक्तियाँ, “सियालदह पुलिस कोर्ट में घूस का खुल्लमखुल्ला बोलबाला है। किसी-किसी हाकिम की घूस की राशि दस रुपए तक उतर आई है। बिना घूस के निकल पाना कल्पनातीत है। हाकिम के दिव्य चक्षुओं के सामने, कोर्ट के दरवाजे से लेकर, कोर्ट रूम तक दलालों एवं प्रतारकों का अबाध राजत्व चल रहा है।" यानी कोर्ट न हो, कोठा हो गया। ऐसे एक अन्य समाचार में, जज, वकील एवं मामलादार व्यक्ति, तीन पक्षों का एकसाथ बैठकर मधपान का भी उल्लेख किया गया है। इस सम्मिलित मद्यपान में क्या विवेक एवं न्याय, दोनों के भी मदालस होने का भय नहीं बना रहता?

आज जब जनता ही स्वयं राजा है और जनता ही प्रजा, तो उसे अपने कर्तव्यबोध, अपनी सामाजिक निष्ठा के प्रति सदैव सजग, सचेत रहना होगा। शासन यदि अनाचारग्रस्त है तो दोषी कुछ अंश में स्वयं हम भी हैं। अपराधी को चीन्हकर भी छोड़ देना भला हमारा कैसा पराक्रम है? उसे दंडित न कर पाना क्या स्वयं हमारी बुजदिली नहीं है? रवीन्द्रनाथ ने अन्याय करनेवाले को दोषी नहीं ठहराया है, उनकी विवेकशील अनुभवी दृष्टि में, चुपचाप अन्याय सहनेवाले का ही दोष अधिक है। आज हमारी कायरता ही हमारा सबसे अधिक अहित कर रही है। 'देश' के सम्पादकीय की समापन पंक्तियों के उद्धरण का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूँ। "प्रख्यात चीनी दार्शनिक कनफ्यूशियस ने एक दिन देखा कि एक जनशून्य पार्वत्य अंचल में श्वापद संकुल एक निर्जन अरण्य में पत्रों की झोंपड़ी बनाकर एक वृद्धा बैठी है। विस्मित कनफ्यूशियस ने पूछा, 'आप ऐसे भयावह बघहे जंगल में झोंपड़ी बनाकर क्यों बैठी हैं?' वृद्धा ने कहा, 'यहाँ बाघ अवश्य है, किन्तु कोई राजा नहीं है, इससे निरापद स्थान और मुझे कहाँ मिल सकता है?' " इस कहानी में शासन-दंड के प्रति कैसी गूढ व्यंग्योक्ति है! प्रजा के जीवन में जो राजा नाम का विग्रह शान्ति के विधायक रूप में विवेचित है, वही क्या अब प्रजा के लिए भय का विग्रह बन गया है? उसी के हाथ से अनाचारग्रस्त शासन के प्रतीक राजदंड की भाँति, हमारे देश का 'रूल ऑफ ला' भी यदि उसी. हीनदशा का प्रतीक बन गया तो हमारे जीवन का अवलम्ब ही क्या रह जाएगा?"

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