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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


बारह


प्रायः ही देखा गया है कि एक ही परिवार में यदि अकल्पनीय दैवी प्रतिभा प्रदत्त दो सन्तान जन्मती हैं और उनमें से एक की प्रतिभा यदि अधिक ख्याति प्राप्त कर लेती है तो दूसरी प्रतिभा स्वयं ही दब जाती है।

महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर भी एक ऐसे ही भाग्यशाली जनक थे जिनकी प्रत्येक सन्तान असाधारण प्रतिभाशाली थी, किन्तु रवीन्द्रनाथ ठाकुर उस परिवार के ऐसे देदीप्यमान-ज्योतिष्मान पुंज बनकर चमके कि परिवार के अन्य ज्योतिपुंज उनकी दिव्य आभा में स्वयं ही दिवसधूसर शशि-से म्लान होकर रह गए।

शायद, बहुत कम हिन्दी पाठक जानते होंगे कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बड़ी बहन श्रीमती स्वर्णकुमारी की प्रतिभा भी किसी अंश में अपने भाई से कम नहीं थी। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, उनके एक-दो उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद हुआ था। उनकी जैसी प्रतिभा थी, वैसा ही प्रखर व्यक्तित्व भी था। मैंने जोड़ासाँको में उनका एक विशाल चित्र देखा था, गौर वर्ण, लम्बे काले केश, खड़े होने की भंगिमा में तेजोमय आभिजात्य की दीप्ति, रेशमी गद्दीदार कुर्सी को थामे उस महिमामयी महिला के चेहरे का मुझे उस दिन क्वीन विक्टोरिया के चेहरे से आश्चर्यजनक साम्य लगा था।

गुरुदेव की पौत्री नंदिता कृपलानी ने जब मुझे वह चित्र दिखलाया तो मैंने कहा था, "जूड़े के बदले यदि यह चोटी माँग को घेरकर सँवारी जाती और साड़ी न पहने होती तो एकदम क्वीन विक्टोरिया लगतीं।"

"तुझे पता नहीं है क्या, इन्हें क्वीन विक्टोरिया ही तो कहा जाता था..." सुना, उनका परवर्ती जीवन अनेक दुःख-आघातों से क्षत-विक्षत हुआ किन्तु उस चित्र के चेहरे में, जीवन के युद्धक्षेत्र में डटकर, सतर मोहक ग्रीवा को तानकर खड़े किसी वीर सेनानी का-सा ही दृप्त भाव था। चित्र उनकी प्रौढ़ावस्था का था और तब तक निश्चय ही वह जीवन के अनेक आघातों से शरविद्ध हो चुकी होंगी।

साहित्य एवं संगीत के प्रति स्वर्णकुमारी का बचपन से ही अनोखा लगाव था। उन्हें निरन्तर उत्साहित किया उनके अग्रज ज्योतीन्द्रनाथ ठाकुर ने। अनेक अंग्रेज़ी और फ्रेंच उपन्यासों का अनुवाद कर छोटी बहन को सुनाकर कहते, "जा, अब तू भी एक ऐसी ही सशक्त कहानी लिख डाल।"

ज्योतीन्द्रनाथ उनसे 5-6 वर्ष बड़े थे और उनसे 6 वर्ष छोटे थे रवीन्द्रनाथ। भले ही जीवनकाल में अद्वितीय ख्याति प्राप्त करनेवाले छोटे भाई की प्रतिभा ने स्वर्णकुमारी की प्रतिभा को प्रस्फुटित होने का समुचित सुअवसर न दिया हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि बंगला साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्रों में उनका नाम आज भी उसी आदर से लिया जाता है।

उस युग की जिन दो श्रेष्ठ महिला साहित्यकारों ने अपनी कृतियों से अपना सुनाम प्रतिष्ठित किया, उनमें एक थीं स्वर्णकुमारी, दूसरी शरतकुमारी चौधरानी। इन दो नामों में भी स्वर्णकुमारी अपने नाम की महिमा को सार्थक करती खरे सोने-सी ही चमकीं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि, सशक्त भाषा एवं नारीचरित्रों को जीवन्त बना देने के नैपुण्य ने जहाँ उन्हें एक सफल उपन्यासकार के रूप में ख्याति प्रदान की, वहीं पर तत्कालीन प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'भारती' के 11 वर्षीय सुदीर्घ सुदक्ष सम्पादन ने उन्हें एक ऐसी सफल सम्पादिका के रूप में प्रतिष्ठित किया, जिसने किसी भी अनुभवी पुरुष सम्पादक से कुछ कम दक्षता का परिचय नहीं दिया। 'भारती' उन दिनों की एकमात्र साहित्यिक पत्रिका थी। जिन अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाएँ, उन दिनों इसके पृष्ठों का प्रमुख आकर्षण रहती थीं, उनमें थे श्री रामदास सेन, चन्द्रनाथ बसु, जलधर सेन, दीनेन्द्रकुमार राय और स्वयं रवीन्द्रनाथ।

नगेन्द्रनाथ गुप्त ने उन दिनों 'भारती' के माध्यम से सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त की। मुझे भी उनके ऐसे अनेक रोमांटिक उपन्यासों के जादू ने बाँधा है। छात्रावास में वार्डन की दृष्टि बचा, मोमबत्ती के क्षीण प्रकाश में उनके उपन्यास पढ़ते-पढ़ते कभी-कभी सारी रात बीत जाती। एक मैं ही नहीं, बंगाल की अधिकांश किशोरियाँ तब उनकी लेखनी के मोहजाल में बँधी थीं। अँधेरे में घिरी जमींदार अट्टालिका. रहस्यमय चरित्र कौशल से बना गया परिस्थितियों का जटिल जाल। रोमांस का ऐसा रम्य रूप तब शायद ही किसी अन्य बंगला लेखक ने दिया होगा। वैसे, उनके उपन्यास उन्हें ही अच्छे लग सकते थे, जिन्होंने पहले बंकिम की लेखनी का लोहा माना हो। जलधर सेन की ख्याति 'भारतवर्ष के सम्पादक-रूप में ही अधिक है किन्तु उनकी यात्रा-कथाएँ भी अनूठी होती थीं। यात्रा-साहित्य के रूप में उन्होंने बंगला साहित्य के लिए जो विराट् वाङ्मय ऐश्वर्य की विरासत छोड़ी है, वह परवर्ती साहित्यकारों को सदा उनकी ऋणी रखेगी। मुझे उनके दर्शन का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है। तब वह बहुत बूढ़े हो चुके थे किन्तु कहानी-किस्से सुनाने लगते तो हमारे ही हमउम्र बन उठते। आज भी उनकी हस्तलिपि में लिखा आशीर्वाद मेरे पास सुरक्षित है। जननी, पत्नी एवं पुत्री की मृत्यु ने उन्हें भरी जवानी में ही संन्यासी पर्यटक बना दिया था। वर्षों हिमालय की गहन वन-कन्दराओं में घूमते रहे। लौटने पर उन्होंने अपनी इसी भ्रमण-कहानी का प्रथमांश 'भारती' में छपने भेजा, प्रेरणा दी थी स्वयं सम्पादिका स्वर्णकुमारी ने। इसके पश्चात् उनकी उस सहज शैली में लिखी गई वह भ्रमण-कहानी इतनी लोकप्रिय हुई कि महीनों तक अपनी मोहक धारावाहिक किस्तों में पाठकों को बाँधती रही।

दीनानाथ राय का सम्भवतः बँगला का प्रथम जासूसी उपन्यास 'अजीत सिंहेरकुठी' भी पहले 'भारती' में ही 'पट' नाम से छपा। स्वयं स्वर्णकुमारी का सम्पादकीय ही 'भारती' का प्रमुख आकर्षण रहता। उनके प्रथम प्रयास की ही अनुभवी सच्ची बानगी देखिए-

"आज पूजनीय श्री द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर वर्तमान वत्सर में 'भारती' के सम्पादकीय भार से अवसर ग्रहण कर रहे हैं, इसके परिवर्तन में हमने आज यह भार ग्रहण किया है। 'भारती' आज तक जिस उत्कृष्ट रूप में सम्पादित होती रही, उससे अधिक उत्कृष्ट रूप उसे दे पाना हमारे लिए दुर्घट है, इसी से ऐसी आशा का स्वप्न न देख हम केवल इसी आशा के वशवर्ती रहेंगे कि इसकी पूर्व प्रतिष्ठा पर कभी आँच न आने पाए। एक बार यह भी स्थिर हुआ था कि इसका प्रकाशन बन्द कर दिया जाए, हमारे देश की एवं बँगला भाषा की वर्तमान दुरवस्था में 'भारती' जैसी पत्रिका की अकाल मृत्यु हम सबके लिए बड़ी कष्टकर होती, इसी से इसकी अकाल मृत्यु से रक्षा करने की इच्छा ने ही हमें इसका सम्पादन-भार ग्रहण करने को विवश किया। माता, पिता, आत्मीय स्वजन छोड़कर जब कन्या श्वसुरालय जाती है तो गम्भीर दुख से अश्रुजल की वन्या बहा उठती है।

“उसके माता-पिता भी दुख से अभिभूत हो उठते हैं कि उनकी साध की प्रतिमा आज पराये गृह में प्रतिष्ठित होने जा रही है। उनका-सा दुलार-यत्न क्या वे उनकी कन्या को दे पाएँगे? किन्तु वहाँ जाने पर जब कन्या देखती है कि वहाँ भी उसे वही आदर-यत्न देनेवाले स्नेही जन हैं तो फिर उसका वह सुख माता-पिता का भी सुख बन जाता है। 'भारती' के सम्बन्ध में भी हमें इसके सहृदय पाठकों से विनीत भाव से यही कहना है कि 'भारती' हमारे हाथों में भी वही स्नेह-आदर-यत्न पाएगी। इसके पूर्वतन बन्धुगण उसके मंगल निमित्त जैसा श्रम करते थे, वैसा ही हम भी करेंगे। और एक बात, कन्या के ससुराल जाने पर भी उसके माता-पिता कभी पराए नहीं बनते, उनका स्नेह पूर्ववत् बना रहता है, इसी प्रकार 'भारती' के हस्तांतरित होने पर भी अपने पूर्वतन बन्धुगणों से स्नेह की डोर कभी शिथिल नहीं होगी। इसी से निवेदन है कि यह आज पराये गृह में भले ही जा रही हो, आज भी अपने पाठकों के लिए वही 'भारती' है और सदा रहेगी।"

सचमुच ही ससुराल जाकर 'भारती' और निखर आई। एक दिन इसके सम्पादक बने स्वयं विश्वकवि रवीन्द्रनाथ। किन्तु उनके पास समय था ही कहाँ? एक वर्ष पश्चात् उनके विदा-ग्रहण के दीर्घ वक्तव्य की एक-एक पंक्ति पठनीय है।

"मैंने एक वर्ष तक सम्पादन किया, इस बीच अनेक त्रुटियाँ हुईं और उन त्रुटियों की एकाएक कैफियत व्यक्तिगत है। सांसारिक चिन्ता, चेष्टा, आधिव्याधि, क्रिया-कर्म ने सम्पादक के साथ-साथ 'भारती' को भी समय-समय पर विक्षिप्त किया है। निरुद्विग्न अवकाश के अभाव में जहाँ एक ओर अपने पाठकों को निराश किया, वहीं अपने सम्पादकीय कर्तव्यादर्श को भी स्वयं खंडित किया। किसी भी पत्र या पत्रिका को अपने मन के अनुसार निकालना तब ही सम्भव है, जब सम्पादक अनन्य कर्मा बन स्वयं उसका एकच्छत्र कर्णधार बने, किन्तु प्रकृत पक्ष में हमारे देश के सम्पादक का पत्र-सम्पादन कुछ-कुछ उस क्लान्त गाय के दूहने-सा है, जिसे दिन-भर हल में जोता जाए, सारा दिन खेत में जुती कृशकाया उस धेनु के रसावशेष में प्रचुर मात्रा में जल मिला ग्राहकों को देने पर एक-न-एक दिन परम धैर्यवान उस जन्तु का प्राणान्त अवश्यम्भावी है। उधर भोक्ता भी जलमिश्रित सामग्री को देख भुनभुना उठते कि हमारे तीन रुपए वार्षिक चन्दे के बदले में यह पानी!

“धनिकों की बस्ती में रहनेवाले दरिद्र का आचरण कभी ठीक नहीं रह सकता; उसका व्यय एवं व्यवहार बड़ी जल्दी उसकी औकात से बाहर छिटक जाते हैं। यूरोपीय पत्र-पत्रिकाओं के आदर्श पर हम अपने देश के पत्र-पत्रिकाओं को चलाना चाहते हैं, अथवा हमारी अवस्था है विपरीत! हमारी सहाय सम्पदा अर्थ-बल, लोक-बल, लेखक-बल, पाठक-बल सब ही स्वल्प है, पर हमारी चाल है एकदम विलायती, नियम है अत्यन्त कठोर। इसी विभ्राट में एक न एक दिन या तो पत्रिका मरती है या बेचारा सम्पादक।"

एक ही वर्ष तक इसका सम्पादन कर जहाँ रवीन्द्रनाथ ने धैर्यच्युत होकर हाथ धो लिए, वहीं पर स्वर्णकुमारी ने ग्यारह वर्ष तक इसकी सुदक्ष सम्पादना कर यह सिद्ध कर दिया कि असामान्य धैर्य एवं अध्यक्साय में नारी पुरुष से दो कदम पीछे नहीं, दो कदम आगे ही निकलने में पूर्ण रूप से समर्थ है।

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