बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
''उनकी चेतावनी को यूं ही मत टालिए।'' सीता बोलीं, ''वे ठीक ही कह रहे हैं। व्यक्ति जब निर्बाध सत्ता का भोग करता है, तो वह अपनी साधारण-से-साधारण इच्छा को सम्पन्न करने के लिए साम्राज्यों को झोंक देता है; और यहां तो राम को प्राप्त करने की बात है-जो अपने-आप में ही बड़े-से-बड़े साम्राज्य से अधिक मूल्यवान है...।''
राम पुनः उच्च स्वर में हंसे, ''आज मेरी पत्नी को क्या हुआ है?'' सीता ने अपना सिर, राम के कंधे से टिका दिया, ''मुझे बताओ, शूर्पणखा देखने में कैसी है?''
''बडा कठिन है।'' राम बोले, ''मैं ठीक से देख नहीं सका।''
''क्यों? आंखें चौंधिया गयी थीं?''
''नहीं।'' राम हंसे, ''उसके प्रसाधन-लेपों के मुखौटे के नीचे उसका रूप कैसा था, यह बताना कठिन है।''
''इतना श्रृंगार किया था उसने?''
''कोई रोम बिना रंगे नहीं छोड़ा था।''
''रंगी सियार!'' सीता सशब्द हंसी।
शूर्पणखा अपने प्रासाद में लौटी। उसकी उग्रता चरम सीमा पर थी। मन हाथ में खड्ग लेकर सम्मुख आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का मुंड रुंड से पृथक् कर देने को तड़प रहा था। शूर्पणखा की मनोकामना पूरी नहीं हो सकती, तो किसी को भी अपनी इच्छानुसार जीने नहीं देगी। मन पुकार-पुकारकर कह रहा था कि वह अपने सैनिकों को आशा दे कि जो पति-पत्नी, जो प्रेमी-प्रेमिका उनको एक साथ दिखाई पड़े उनकी हत्या कर दें। किसी भी स्त्री-पुरुष को अपनी इच्छा के स्त्री-पुरुष के निकट जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जीवन में भोग के नाम पर केवल बलात्कार होगा, जो चाहे बल से, जिसका चाहे भोग कर ले।
सहसा उसका मन रोने-रोने को हो आया-जब शूर्पणखा पुरुषों के मन को विगलित कर सकती थी, जब उसे देखकर पुरुषों के मन का रक्त उफनने लगता था, जिसकी आंखें उसे देख लेतीं, उसी का वक्ष फटने लगता था-तब रावण ने उसके प्रेमी को अपने फरसे से दो टुकडे कर डाला, और आज उसकी इतनी दुर्दशा हो गयी है कि अपने प्रिय के सम्मुख जाने के लिए उसे लंका के श्रृंगार-शिल्पियों की प्रतीक्षा करनी पडती है, उनकी सहायता के बिना, वह अपने प्रिय के सामने प्रकट होने का साहस नहीं कर सकती...और जब प्रकट होती भी है, तो वह उसके रूप पर रीझता नहीं, उसके चरणों में लोटता नहीं; उल्टे उसके प्रसाधनों के लेप के नीचे से भी उसके वय को देख लेता है और उसे ठोकर मारकर चल देता है...
क्या लाभ है ऐसे श्रृंगार-शिल्पियों का? उन्हें तो अंधकूप में डलवा देना चाहिए...''द्वार पर कौन है?''
''स्वामिनी!'' रक्षिका प्रकट हुई।
''अंगरक्षकों से कहो कि लंका से आए हुए श्रृंगार-शिल्पियों...'' शूर्पणखा सोच में पड़ गई... अभी राम उसे मिला नहीं है। कल फिर प्रयत्न करना होगा। तो श्रृंगार-शिल्पी...
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