जीवन कथाएँ >> तरुण संन्यासी तरुण संन्यासीराजेन्द्र मोहन भटनागर
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स्वामी विवेकानन्द पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘तरुण सन्यासी’ स्वामी विवेकानन्द के जीवन
पर आधारित उपन्यास है। परमहंस श्री रामकृष्ण देव के प्रसंग स्वामीजी के
चरित्र विकास में मील का पत्थर कैसे सिद्ध हुए और उनका आज की तरुण पीढ़ी
से क्या संवाद बन पाया ? यह सब इस कृति के कलेवर में समाया हुआ है।
स्वामी विवेकानन्द नरेन्द्रनाथ दत्त ने अपने को विविदिषानंद बनाना चाहा परंतु खेतडी़ के राजा अजितसिंह ने उन्हें विवेकानन्द से पुकारा और वह अमेरिका प्रवास से किंचित पूर्व स्वामी विवेकानन्द होकर शीघ्र ही विश्व की अक्षय निधि सिद्ध हुए। यह गाथा भी इस कृति का उपजीव्य है।
स्वामी जी का वेश विन्यास अर्थात् भगवा साफा और भगवा कमरखी (चोंगा) से पहचान भी राजस्थान ने करवायी—खेतड़ी के राजा ने।
‘कर्म ही उपासना का धर्म है। आनंद ही कर्म का सुफल है’, को उन्होंने अपने सूर्य चरित्र से प्रकट किया और जगत् को अमृत पुत्रों के वैभव से अलंकृत किया।
स्वामीजी के दुद्धर्ष अन्तर्द्वन्द्व, निश्चल व्यवहार और कठोर-तप-साधना वर्तमान और अनागत पीढ़ी के लिए अक्षय संपदा है। वह अदा तरुण रहे—भावों में, विचारों में, कार्यों में और जीवन शैली सम्पादन में।
उनकी महती साधना-यात्रा इस कृति का आशीर्वाद बन सकी और तरुण पीढ़ी के संघर्ष-संधान का मेरुदंड—यही इसका कृतित्व है।
स्वामी विवेकानन्द नरेन्द्रनाथ दत्त ने अपने को विविदिषानंद बनाना चाहा परंतु खेतडी़ के राजा अजितसिंह ने उन्हें विवेकानन्द से पुकारा और वह अमेरिका प्रवास से किंचित पूर्व स्वामी विवेकानन्द होकर शीघ्र ही विश्व की अक्षय निधि सिद्ध हुए। यह गाथा भी इस कृति का उपजीव्य है।
स्वामी जी का वेश विन्यास अर्थात् भगवा साफा और भगवा कमरखी (चोंगा) से पहचान भी राजस्थान ने करवायी—खेतड़ी के राजा ने।
‘कर्म ही उपासना का धर्म है। आनंद ही कर्म का सुफल है’, को उन्होंने अपने सूर्य चरित्र से प्रकट किया और जगत् को अमृत पुत्रों के वैभव से अलंकृत किया।
स्वामीजी के दुद्धर्ष अन्तर्द्वन्द्व, निश्चल व्यवहार और कठोर-तप-साधना वर्तमान और अनागत पीढ़ी के लिए अक्षय संपदा है। वह अदा तरुण रहे—भावों में, विचारों में, कार्यों में और जीवन शैली सम्पादन में।
उनकी महती साधना-यात्रा इस कृति का आशीर्वाद बन सकी और तरुण पीढ़ी के संघर्ष-संधान का मेरुदंड—यही इसका कृतित्व है।
पुरोवाक्
मित्रों,
बहुत दिनों से सोच रहा था कि नया क्या लिखूँ जो नई पीढ़ी का मन बाँध सके और भ्रांति अथवा मायाजाल की धुँधलिका से अपने को मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ सके। इससे मेरा आशय कतई यह नहीं है कि मैं उन्हें उपदेश देना चाहता हूँ। दरअसल मेरी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा स्कूल-कॉलिज से सम्बद्ध रहा है। पब्लिक स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक मैंने पाया है कि उगती पीढ़ी दिन पर दिन अकेली पड़ती जा रही है। उसके पास विश्वसनीय मित्र नहीं हैं। वह अकेलेपन से घबरा कर बाहर आना चाहती है और आनन-फानन में आना चाहती है। उसके इस रूप को पुरानी पीढ़ी विद्रोह मानती है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। कोई भी दोषी नहीं है, फिर भी एक दूसरे को दोषी करार करने की जद्दोजहद जारी है।
मुझे सुकून मिल गया। मैं उगती पीढ़ी से लेकर जवान हो रही पीढ़ी के साथ हो लिया। उसको समझने का यत्न करने लगा। वो भी सोच रही है। उसकी सोच अपने से लेकर अपने समाज तक होती हुई देश की सीमा पर पहुँचकर जा ठहरती है। उसकी सोच में कल्पना है जो उसे यथार्थ से दूर ले जाना चाहती है या वह कल्पना को यथार्थ बन कर जी लेने की इच्छुक है। दरअसल वह उम्र भरमाने की है। उसमें मिथीय आकाश होता है और ज़मीन से ऊपर उड़ने की चाह उसे घेरे रहती है।
मैं सोचता हूँ कि गाँधी, आइन्स्टीन, ‘निराला’, ‘जवाहर’, सुभाष, विवेकानंद, भगतसिंह, आजाद, मदर टेरेसा, मीरा बेन, अरुणा आसफ अली, आदि सभी जवान हुए थे लेकिन उनके स्वप्न लोक की ओर आज किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता है ?
आखिर कब तक हम अपने दोषों के लिए दूसरों को दोषी ठहराने की मुहिम जारी रख सकेंगे ? हम कहाँ हैं ? क्या हैं ? समय कितना कम है कि जवान होने वाली पीढ़ी को पता ही नहीं चल पाता कि वह कब पुरानी पीढ़ी में प्रवेश कर गई ? हालात ही कुछ ऐसे हैं कि स्वप्न खरीदने वाले स्वप्न ही बेच डालते हैं। स्वप्न बिकने के बाद बचता ही क्या है ? क्या रह जाता है जीने के लिए ? दरअसल उनको तो यह भी बहुत बाद में जाकर मालूम पड़ता है कि उनके स्वप्न बिक चुके हैं और खरीददार अदृश्य है। तिल-तिल कर खुदकुशी का दौर दबे पाँव प्रवेश कर जाता है।
मैं ऐन वक्त पर दस्तक देना चाहता हूँ। मध्यांतर से बहुत पहले, जहाँ से जवान होने की शुरुआत होने वाली होती है। मध्यांतर तक पहुँचते-पहुँचते जवान बूढ़ा होने लग जाता है या बूढ़े होने की दहलीज की ओर बढ़ने लगता है।
लेकिन सब कुछ ऐसा नहीं है। यह जानकर मुझे बहुत सुकून मिला है कि मेरे नकारात्मक सोच को पलट देने वाली ताकत उनमें भी है जो जवानी की दहलीज में पहुँचने वाले हैं अथवा उस पर आ खड़े हुए हैं। वे हालात से लड़ रहे हैं। उनमें हालात बदलने के इरादे हैं। परन्तु कैसे ? यहीं से मुझे इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा मिली है और मैं उसे लेकर सामने आया हूँ।
मेरी दृष्टि स्वामी विवेकानंद पर जा टिकती है और मैं बैलूर मठ में जा पहुँचता हूँ। पावन गंगा का तट, निर्मल वातावरण और कुटी का सुदामा वैभव। गंगा पार परमहंस श्री रामकृष्ण देव का दक्षिणेश्वर। सब भाया। चित्त में समाया। ऐसा समाया कि वह चित्त ही हो गया। मैं अपने को भूल गया।
अनायास भारतीय संस्कृति संसद (कलकत्ता) से निमंत्रण मिला। श्रेष्ठि संत श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला का आग्रह बना कि मैं उनसे मिलता हुआ कलकत्ते जाऊँ। इस सबका हेतु था मेरा ‘दिल्ली चलो’ उपन्यास, जिसने मेरे कई व्याख्यान करवाये और नेताजी सुभाष की अक्षय संपदा को बाँटने का मौका दिया।
श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला ने ‘दिल्ली चलो’ पर गंभीर अध्ययन किया था। उनकी पारखी दृष्टि पैनी थी। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व-कृतित्व में उन्होंने स्वामी विवेकानंद को पाया था। यह सिलसिला संसद में भी उभरा और श्रेष्ठि अरुणजी चूड़ीवाल के निवास पर भी।
दूसरी बार भाई श्री झुनझुनवाला के निवास पर स्वामी विवेकानंद का प्रसंग उठा। उन्होंने बहुत कहा, उसे भारत के भविष्य से जोड़ा और तरुण पीढ़ी के लिए उसे अनिवार्य बताया। तब दबी जुबान में मैंने कह भी दिया कि मैं स्वामीजी को लेकर कुछ काम कर रहा हूँ। बातचीत उठी और विराम पा गई।
सन् ’ 91 में यही प्रसंग मैंने विस्तार से भाई श्री गोकुलप्रसाद जी शर्मा, मैनेजर, बंबई अस्पताल, मुंबई के सामने उठाया था। वह तो स्वामीजी के परम भक्त हैं। उन्होंने अपने पिता श्री झाबरमल्ल शर्मा रचित ‘राजस्थान में स्वामी विवेकानंद’ पुस्तक भेंट की और साथ में एक पुस्तिका भी। निस्संदेह वह पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध हुई।
मैं स्वामीजी पर एक के बाद एक पुस्तक पढ़ता गया। अनेक प्रसंग-संवादों से जुड़ता गया। जिज्ञासा बढ़ती गई। लगा, जो पुस्तकों में नहीं है, वह भी बहुत सारा जानने के लिए है। नरेन्द्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद तक की यात्रा मेरे मन को उद्वेलित कर रही थी। मुझे परामर्श दिया गया कि स्वामी विवेकानंद पर नरेन्द्र कोहली का चर्चित उपन्यास पढ़ूँ। परन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। पूर्व में भी कभी ऐसा नहीं किया कि जिस ऐतिहासिक उपन्यास को लिखने जा रहा हूँ उस पर प्रकाशित उपन्यास पढ़ूँ।
मेरे में संवाद उठने लगे। मेरे सामने कन्याकुमारी की वह शिला साकार हो उठी जिसे देखकर स्वामीजी का चित्त अभिभूत हुआ था और जहाँ से उनकी चेतना को तोष मिला था, आनंद मिला था और अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित होने वाली विश्व-धर्म सभा की अदृश्य झलक मिली थी। उन्होंने ऐसा कभी नहीं सोचा था। वह प्रसंग कभी उनकी कल्पना में भी नहीं उभरा था। संभावना का सेतु कैसे बनता है ? निराकार आकार कैसे ग्रहण करता है ? ऐसे संदर्भ-प्रसंगों में मन रमने लगा। पता नहीं कहाँ से टी.वी. सीरियल वाले आ जुड़े ? उन्होंने मेरे अभ्यास को कृति मान लिया। उसे पत्रिका में भी छाप दिया। यह मेरी लंबी यात्रा का पहला पड़ाव था, जिसे मेरे शुभचिंतकों ने पुस्तककार रूप में सामने लाने का आग्रह किया। मैंने भाई श्री पुरुषोत्तमदास मोदी को पत्र लिखा। वह मान गए। फिर भी, मैंने लंबे समय तक यह उपन्यास छपने नहीं भेजा। मुझे लगा कि उसमें कुछ और करना शेष है। धीरे-धीरे मैं उसे देखता सँवारता गया और आज वह आपके हाथों में है।
अंततः मैं उन सबका हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने इस लघु यात्रा में मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया। विशेषकर श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला, श्री गोकलप्रसादजी शर्मा, श्री अरुण चूड़ीवाल, डॉ. सविता डे, प्रो. कुमुद बैनर्जी, महात्मा दिव्यानंद, स्वामी शारदानंद और डॉ. करीम सिद्दिकी। मुझे आशा है कि मेरे प्रिय और सहृदय पाठक भी इसे अपना स्नेह-प्रेम प्रदान कर अपनाएँगे।
बहुत दिनों से सोच रहा था कि नया क्या लिखूँ जो नई पीढ़ी का मन बाँध सके और भ्रांति अथवा मायाजाल की धुँधलिका से अपने को मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ सके। इससे मेरा आशय कतई यह नहीं है कि मैं उन्हें उपदेश देना चाहता हूँ। दरअसल मेरी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा स्कूल-कॉलिज से सम्बद्ध रहा है। पब्लिक स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक मैंने पाया है कि उगती पीढ़ी दिन पर दिन अकेली पड़ती जा रही है। उसके पास विश्वसनीय मित्र नहीं हैं। वह अकेलेपन से घबरा कर बाहर आना चाहती है और आनन-फानन में आना चाहती है। उसके इस रूप को पुरानी पीढ़ी विद्रोह मानती है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। कोई भी दोषी नहीं है, फिर भी एक दूसरे को दोषी करार करने की जद्दोजहद जारी है।
मुझे सुकून मिल गया। मैं उगती पीढ़ी से लेकर जवान हो रही पीढ़ी के साथ हो लिया। उसको समझने का यत्न करने लगा। वो भी सोच रही है। उसकी सोच अपने से लेकर अपने समाज तक होती हुई देश की सीमा पर पहुँचकर जा ठहरती है। उसकी सोच में कल्पना है जो उसे यथार्थ से दूर ले जाना चाहती है या वह कल्पना को यथार्थ बन कर जी लेने की इच्छुक है। दरअसल वह उम्र भरमाने की है। उसमें मिथीय आकाश होता है और ज़मीन से ऊपर उड़ने की चाह उसे घेरे रहती है।
मैं सोचता हूँ कि गाँधी, आइन्स्टीन, ‘निराला’, ‘जवाहर’, सुभाष, विवेकानंद, भगतसिंह, आजाद, मदर टेरेसा, मीरा बेन, अरुणा आसफ अली, आदि सभी जवान हुए थे लेकिन उनके स्वप्न लोक की ओर आज किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता है ?
आखिर कब तक हम अपने दोषों के लिए दूसरों को दोषी ठहराने की मुहिम जारी रख सकेंगे ? हम कहाँ हैं ? क्या हैं ? समय कितना कम है कि जवान होने वाली पीढ़ी को पता ही नहीं चल पाता कि वह कब पुरानी पीढ़ी में प्रवेश कर गई ? हालात ही कुछ ऐसे हैं कि स्वप्न खरीदने वाले स्वप्न ही बेच डालते हैं। स्वप्न बिकने के बाद बचता ही क्या है ? क्या रह जाता है जीने के लिए ? दरअसल उनको तो यह भी बहुत बाद में जाकर मालूम पड़ता है कि उनके स्वप्न बिक चुके हैं और खरीददार अदृश्य है। तिल-तिल कर खुदकुशी का दौर दबे पाँव प्रवेश कर जाता है।
मैं ऐन वक्त पर दस्तक देना चाहता हूँ। मध्यांतर से बहुत पहले, जहाँ से जवान होने की शुरुआत होने वाली होती है। मध्यांतर तक पहुँचते-पहुँचते जवान बूढ़ा होने लग जाता है या बूढ़े होने की दहलीज की ओर बढ़ने लगता है।
लेकिन सब कुछ ऐसा नहीं है। यह जानकर मुझे बहुत सुकून मिला है कि मेरे नकारात्मक सोच को पलट देने वाली ताकत उनमें भी है जो जवानी की दहलीज में पहुँचने वाले हैं अथवा उस पर आ खड़े हुए हैं। वे हालात से लड़ रहे हैं। उनमें हालात बदलने के इरादे हैं। परन्तु कैसे ? यहीं से मुझे इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा मिली है और मैं उसे लेकर सामने आया हूँ।
मेरी दृष्टि स्वामी विवेकानंद पर जा टिकती है और मैं बैलूर मठ में जा पहुँचता हूँ। पावन गंगा का तट, निर्मल वातावरण और कुटी का सुदामा वैभव। गंगा पार परमहंस श्री रामकृष्ण देव का दक्षिणेश्वर। सब भाया। चित्त में समाया। ऐसा समाया कि वह चित्त ही हो गया। मैं अपने को भूल गया।
अनायास भारतीय संस्कृति संसद (कलकत्ता) से निमंत्रण मिला। श्रेष्ठि संत श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला का आग्रह बना कि मैं उनसे मिलता हुआ कलकत्ते जाऊँ। इस सबका हेतु था मेरा ‘दिल्ली चलो’ उपन्यास, जिसने मेरे कई व्याख्यान करवाये और नेताजी सुभाष की अक्षय संपदा को बाँटने का मौका दिया।
श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला ने ‘दिल्ली चलो’ पर गंभीर अध्ययन किया था। उनकी पारखी दृष्टि पैनी थी। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व-कृतित्व में उन्होंने स्वामी विवेकानंद को पाया था। यह सिलसिला संसद में भी उभरा और श्रेष्ठि अरुणजी चूड़ीवाल के निवास पर भी।
दूसरी बार भाई श्री झुनझुनवाला के निवास पर स्वामी विवेकानंद का प्रसंग उठा। उन्होंने बहुत कहा, उसे भारत के भविष्य से जोड़ा और तरुण पीढ़ी के लिए उसे अनिवार्य बताया। तब दबी जुबान में मैंने कह भी दिया कि मैं स्वामीजी को लेकर कुछ काम कर रहा हूँ। बातचीत उठी और विराम पा गई।
सन् ’ 91 में यही प्रसंग मैंने विस्तार से भाई श्री गोकुलप्रसाद जी शर्मा, मैनेजर, बंबई अस्पताल, मुंबई के सामने उठाया था। वह तो स्वामीजी के परम भक्त हैं। उन्होंने अपने पिता श्री झाबरमल्ल शर्मा रचित ‘राजस्थान में स्वामी विवेकानंद’ पुस्तक भेंट की और साथ में एक पुस्तिका भी। निस्संदेह वह पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध हुई।
मैं स्वामीजी पर एक के बाद एक पुस्तक पढ़ता गया। अनेक प्रसंग-संवादों से जुड़ता गया। जिज्ञासा बढ़ती गई। लगा, जो पुस्तकों में नहीं है, वह भी बहुत सारा जानने के लिए है। नरेन्द्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद तक की यात्रा मेरे मन को उद्वेलित कर रही थी। मुझे परामर्श दिया गया कि स्वामी विवेकानंद पर नरेन्द्र कोहली का चर्चित उपन्यास पढ़ूँ। परन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। पूर्व में भी कभी ऐसा नहीं किया कि जिस ऐतिहासिक उपन्यास को लिखने जा रहा हूँ उस पर प्रकाशित उपन्यास पढ़ूँ।
मेरे में संवाद उठने लगे। मेरे सामने कन्याकुमारी की वह शिला साकार हो उठी जिसे देखकर स्वामीजी का चित्त अभिभूत हुआ था और जहाँ से उनकी चेतना को तोष मिला था, आनंद मिला था और अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित होने वाली विश्व-धर्म सभा की अदृश्य झलक मिली थी। उन्होंने ऐसा कभी नहीं सोचा था। वह प्रसंग कभी उनकी कल्पना में भी नहीं उभरा था। संभावना का सेतु कैसे बनता है ? निराकार आकार कैसे ग्रहण करता है ? ऐसे संदर्भ-प्रसंगों में मन रमने लगा। पता नहीं कहाँ से टी.वी. सीरियल वाले आ जुड़े ? उन्होंने मेरे अभ्यास को कृति मान लिया। उसे पत्रिका में भी छाप दिया। यह मेरी लंबी यात्रा का पहला पड़ाव था, जिसे मेरे शुभचिंतकों ने पुस्तककार रूप में सामने लाने का आग्रह किया। मैंने भाई श्री पुरुषोत्तमदास मोदी को पत्र लिखा। वह मान गए। फिर भी, मैंने लंबे समय तक यह उपन्यास छपने नहीं भेजा। मुझे लगा कि उसमें कुछ और करना शेष है। धीरे-धीरे मैं उसे देखता सँवारता गया और आज वह आपके हाथों में है।
अंततः मैं उन सबका हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने इस लघु यात्रा में मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया। विशेषकर श्री लक्ष्मीनिवासजी झुनझुनवाला, श्री गोकलप्रसादजी शर्मा, श्री अरुण चूड़ीवाल, डॉ. सविता डे, प्रो. कुमुद बैनर्जी, महात्मा दिव्यानंद, स्वामी शारदानंद और डॉ. करीम सिद्दिकी। मुझे आशा है कि मेरे प्रिय और सहृदय पाठक भी इसे अपना स्नेह-प्रेम प्रदान कर अपनाएँगे।
आपका
राजेन्द्रमोहन भटनागर
राजेन्द्रमोहन भटनागर
तरुण स्वामी विवेकानंद
(1)
पौ फटने को थी।
अनंत आसमान शांत था। आज नरेंद्रनाथ दत्त के मन में प्रतिदिन की तरह एक नई जिज्ञासा का उदय हुआ। उसमें क्यों नई से नई जिज्ञासाएँ फूटती हैं ? क्यों उसमें चराचर के बारे में सब कुछ जान लेने की इच्छा इंद्रधनुषी हो उठती है ? वह प्रश्नों की फसल बो तो सकता था किन्तु उसे काट नहीं पाता था। कदाचित् वह उत्तर के प्रति इतना जिज्ञासू भी नहीं था, जितना कि प्रश्न के प्रति।
नरेंद्रनाथ दत्त बाहर आया। उसने आकाश की ओर निहारा। वह निहारता ही रहा। उसे लग रहा था कि कुछ ही पल में आकाश अपने रहस्य खोलने लगेगा। वह उन क्षणों की प्रतीक्षा करने लगता।
क्षण चुपके से खिसकने लगते। उसे चिंता नहीं होती, क्योंकि क्षण उसके लिए, बीतने के लिए ही होते थे। वर्तमान का बीतते जाना कैसा तटस्थ होता है, वर्तमान के लिए।
अतीत से वर्तमान में आना, वर्तमान को अतीत में बदलते देखना और भविष्य की आहट सुनना कैसा मूक संवाद है ? तीनों अनबोले एकसाथ सामने से गुजर जाते हैं और आज तक पता नहीं चला कि ऐसा कब से हो रहा है और कब तक होता रहेगा ? पर क्यों ? अन्ततोगत्वा इस प्रक्रिया का भी कोई महत्व है ?
वह पुनः आकाश की ओर देखता। अब पक्षियों की टोलियाँ अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाये चहक रही थीं। उनके चहकने से नरेंद्रनाथ दत्त को लगता कि आकाश गुनगुनाना चाह रहा है। तभी समीर का एक झोंका आता और उसके सारे शरीर में फुरफुरी दौड़ जाती। वह ताज़गी से भर उठता और उसकी आँखों में चमक कौंध जाती।
धीरे-धीरे नरेंद्रनाथ दत्त सम्मोहित होने लगता। अब आकाश उसके ऊपर होता है और वह आकाश की छत्रछाया में बैठे हुए मन ही मन प्रसन्न हो रहा होता। उसको आसमान का सलेटी और कहीं-कहीं गहरा सलेटी रंग बहुत पसंद आने लगता।
अचानक चिड़ियाँ नीचे उतर आतीं। शायद उन्हें कहीं दूर से चुग्गा नज़र आ जाता। वे चीं-चीं करती हुईं, यदाकदा आपस में लड़ती हुईं, फुदकने लगतीं और फुदकती ही रहतीं। फिर अचानक अपने दुबके हुए पंखों को खोलकर उनमें शीतल समीर भरकर उड़ने लगतीं। धीरे-धीरे वे पर्याप्त ऊपर उठ जातीं और एक दिशा की ओर बढ़ने लगतीं। ये सब वो क्यों करती हैं ? सुबह होने से पूर्व वे कहाँ-कहाँ से आ जाती हैं अनंत और अथाह आनंदोल्लास के साथ ? उन्हें कोई चिंता नहीं। मात्र मस्ती के उन्हें कुछ करना भी नहीं।
नरेंद्रनाथ दत्त का समीर-सा मन सम्मोहित होता जाता। वह अपने को उन पक्षियों के बीच में पाता। वह भी पक्षियों की तरह अपने में ही चहचहा उठता। उसको लगता कि पक्षियों की चहचहाहट से कर्णप्रिय संगीत जगत् में कोई दूसरा नहीं है। वह आत्मा का संगीत है। उसे उसकी आत्मा ही सुन-समझ पाती है।
धीरे-धीरे पवन हिलोर ले उठता। पेड़-पौधे झूम उठते। गंगा कलकल करती लहराने लगती। उसकी लहरें उड़ लेना चाहतीं पक्षियों की तरह। सब कुछ अप्रत्याशित। अनजाना। परन्तु जानने से अधिक अनुभूत होने लगता।
नरेन्द्रनाथ दत्त में कल्पना पंख खोलती, पवन स्वप्न जाल बिछाता। उसमें प्रार्थना के मौन स्वर अनुगूँज उठते
अनंत आसमान शांत था। आज नरेंद्रनाथ दत्त के मन में प्रतिदिन की तरह एक नई जिज्ञासा का उदय हुआ। उसमें क्यों नई से नई जिज्ञासाएँ फूटती हैं ? क्यों उसमें चराचर के बारे में सब कुछ जान लेने की इच्छा इंद्रधनुषी हो उठती है ? वह प्रश्नों की फसल बो तो सकता था किन्तु उसे काट नहीं पाता था। कदाचित् वह उत्तर के प्रति इतना जिज्ञासू भी नहीं था, जितना कि प्रश्न के प्रति।
नरेंद्रनाथ दत्त बाहर आया। उसने आकाश की ओर निहारा। वह निहारता ही रहा। उसे लग रहा था कि कुछ ही पल में आकाश अपने रहस्य खोलने लगेगा। वह उन क्षणों की प्रतीक्षा करने लगता।
क्षण चुपके से खिसकने लगते। उसे चिंता नहीं होती, क्योंकि क्षण उसके लिए, बीतने के लिए ही होते थे। वर्तमान का बीतते जाना कैसा तटस्थ होता है, वर्तमान के लिए।
अतीत से वर्तमान में आना, वर्तमान को अतीत में बदलते देखना और भविष्य की आहट सुनना कैसा मूक संवाद है ? तीनों अनबोले एकसाथ सामने से गुजर जाते हैं और आज तक पता नहीं चला कि ऐसा कब से हो रहा है और कब तक होता रहेगा ? पर क्यों ? अन्ततोगत्वा इस प्रक्रिया का भी कोई महत्व है ?
वह पुनः आकाश की ओर देखता। अब पक्षियों की टोलियाँ अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाये चहक रही थीं। उनके चहकने से नरेंद्रनाथ दत्त को लगता कि आकाश गुनगुनाना चाह रहा है। तभी समीर का एक झोंका आता और उसके सारे शरीर में फुरफुरी दौड़ जाती। वह ताज़गी से भर उठता और उसकी आँखों में चमक कौंध जाती।
धीरे-धीरे नरेंद्रनाथ दत्त सम्मोहित होने लगता। अब आकाश उसके ऊपर होता है और वह आकाश की छत्रछाया में बैठे हुए मन ही मन प्रसन्न हो रहा होता। उसको आसमान का सलेटी और कहीं-कहीं गहरा सलेटी रंग बहुत पसंद आने लगता।
अचानक चिड़ियाँ नीचे उतर आतीं। शायद उन्हें कहीं दूर से चुग्गा नज़र आ जाता। वे चीं-चीं करती हुईं, यदाकदा आपस में लड़ती हुईं, फुदकने लगतीं और फुदकती ही रहतीं। फिर अचानक अपने दुबके हुए पंखों को खोलकर उनमें शीतल समीर भरकर उड़ने लगतीं। धीरे-धीरे वे पर्याप्त ऊपर उठ जातीं और एक दिशा की ओर बढ़ने लगतीं। ये सब वो क्यों करती हैं ? सुबह होने से पूर्व वे कहाँ-कहाँ से आ जाती हैं अनंत और अथाह आनंदोल्लास के साथ ? उन्हें कोई चिंता नहीं। मात्र मस्ती के उन्हें कुछ करना भी नहीं।
नरेंद्रनाथ दत्त का समीर-सा मन सम्मोहित होता जाता। वह अपने को उन पक्षियों के बीच में पाता। वह भी पक्षियों की तरह अपने में ही चहचहा उठता। उसको लगता कि पक्षियों की चहचहाहट से कर्णप्रिय संगीत जगत् में कोई दूसरा नहीं है। वह आत्मा का संगीत है। उसे उसकी आत्मा ही सुन-समझ पाती है।
धीरे-धीरे पवन हिलोर ले उठता। पेड़-पौधे झूम उठते। गंगा कलकल करती लहराने लगती। उसकी लहरें उड़ लेना चाहतीं पक्षियों की तरह। सब कुछ अप्रत्याशित। अनजाना। परन्तु जानने से अधिक अनुभूत होने लगता।
नरेन्द्रनाथ दत्त में कल्पना पंख खोलती, पवन स्वप्न जाल बिछाता। उसमें प्रार्थना के मौन स्वर अनुगूँज उठते
निर्मल-विमल नीलांबर
शीतल सुगंध प्रभंजन
नीचे गंगा की कलकल
ऊपर पक्षियों की चटकल
कैसा अनन्त अपार आनंद
कैसे मनभावन दृश्य-बंध
हे आने वाले प्रभात
हे ईश्वर, अन्तर्यामी अनाम।
शीतल सुगंध प्रभंजन
नीचे गंगा की कलकल
ऊपर पक्षियों की चटकल
कैसा अनन्त अपार आनंद
कैसे मनभावन दृश्य-बंध
हे आने वाले प्रभात
हे ईश्वर, अन्तर्यामी अनाम।
प्रकृति का व्यापार कितना शांत और कितना पावन ! चहुँ ओर आह्लाद। दिशा-दिशा
में चहचहाहट।
पौ फटती। आकाश में नाना रंग बिखरने लगते। धीरे-धीरे बाल सुकुमार—सा रवि उदय होता जाता।
‘‘नरेन्द्र !’’ जैसे पीछे से उसे कोई पुकारता। वह सुना-अनसुना कर देता। कौन है जो उसके एकांत के साथ छेड़-छाड़ करना चाहता है ? वह फिर प्रकृति के सुरम्य दृश्यों में खोने लगता। अचानक उसके कंधे पर एक धौल पड़ती और उसके साथ ही वह पीछे मुड़कर देखता। कुछ सोचकर वह कहता, ‘‘अरे हरिदास, तुम और इस समय यहाँ ?’’
‘‘और मैं भी...।’’ दशरथ ने दूर से उसकी ओर बढ़ते हुए कहा।
‘‘तुम आज यहाँ, दशरथ ?’’ नरेन्द्रनाथ दत्त खखार कर पूछता।
‘‘इसमें आश्चर्य क्यों ?’’ हरिदास ने तपाक से कह डाला।
‘‘और तुम तो प्रायः ऐसे ही एकांत में जब देखो तब आ बैठते हो। क्या तुमने कभी अपने से प्रश्न किया ?’’ दशरथ ने तनिक ऊँची आवाज में कहा।
‘‘नहीं, दशरथ मित्र, मैंने अपने से ऐसा प्रश्न कभी नहीं किया। प्रश्न करना तो दूर, मैंने इस बारे में कभी भूल से भी नहीं सोचा।’’ नरेन्द्रनाथ दत्त धीरे-धीरे सोचकर कहता जा रहा होता, ‘‘क्या आवश्यक है कि जो कुछ किया जाए, वह मात्र खूब सोचकर हो ? क्या बहुत कुछ असोचे नहीं हो जाता है ?’’
‘‘कैसे ?’’ हरिदास बैठकर कहने लगता, ‘‘जो भी करो, सोचकर करो। करने से पहले सोच लो। करने के बाद सोचना मूर्खता कहलाती है। मैं तो अभी तक बड़े-बूढ़ों से यही सुनता आ रहा हूँ, नरेंद्र।’’
क्या तुमने इंग्लैण्ड का इतिहास याद कर लिया ?’’ नरेंद्रनाथ दत्त ने उसकी बात को अनसुना करते हुए पूछा। इस बार उसकी दृष्टि गंगा-तट पर आ खड़ी हुई उस नौका पर जा पड़ी जो अभी-अभी खाली हुई थी।
‘‘अभी बहुत कुछ याद करना शेष है, नरेन्द्र।’’ हरिदास ने कहा और दशरथ ने उस पर अपनी सहमति प्रकट की।
‘‘मैंने तो आज तक पुस्तक भी खोलकर नहीं देखी।’’ नरेन्द्रनाथ दत्त तनिक कठिनता से कहता।
‘‘नरेंद्र, परीक्षा होने में मात्र एक माह का समय रह गया है।’’ हरिदास गंभीर होकर कहता। साथ ही, वह बैठने का रुख भी बदल लेता है। अब तक कुछ यात्री उस नौका में आ बैठे थे और कुछ तेजी से उसकी ओर बढ़ रहे थे।
‘‘इतनी मोटी पुस्तक !’’ नरेंद्रनाथ दत्त ने आश्चर्य से अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैलाकर कहा।
‘‘परीक्षा भी तो उत्तीर्ण करनी है।’’ दशरथ बोला।
‘‘फिर मोटी या छोटी पुस्तक से क्या ? वह तो पढ़नी ही पड़ेगी।’’ हरिदास के स्वर में असहजता थी।
‘‘इसके बारे में हम लोग क्या शुरू साल से नहीं सोचे जा रहे हैं ?’’
नरेंदनाथ दत्त ने सहज होकर कहना जारी रखा, ‘‘पर उस पर सोचने से क्या हुआ ? यही न कि आज तक हम जहाँ के तहाँ हैं—एक क़दम आगे नहीं बढ़ सके। कम से कम मैं तो बिलकुल नहीं।’’
‘‘यह सच है।’’
‘‘इसीलिए कहता हूँ कि केवल सोचते रहने से कोई लाभ नहीं। जो सहज हो रहा है, उसे भी होने दो और जो कर सकते हो, उसमें अपनी भूमिका निश्चित करके आगे बढ़ो।’’ नरेंद्रनाथ दत्त के स्वर में आत्मविश्वास का गहरा पुट था। उसकी दृष्टि एक बार फिर उस नौका पर जा पड़ी जो अब यात्रियों को बैठाकर पतवार के सहारे आगे बढ़ने लगी थी। उसमें बैठी एक युवती की गोद में शिशु था। वह शिशु बार-बार माँ की गोद में से उछल कर नीचे आ जाने का प्रयत्न कर रहा था।
हरिदास और दशरथ के मुख-मण्डल पर उदासी का भाव झलक उठा था। वे दोनों वहाँ से चलने को हुए ही थे कि नरेंद्रनाथ दत्त ने रोक दिया और खखार कर कहा, ‘‘मैंने निश्चित कर लिया है, मित्रों कि....।’’
‘‘क्या निश्चित कर लिया है ?’’ दशरथ ने नरेंदनाथ दत्त को चुप होता देखकर पूछा।
‘‘यही कि अब या तो इंग्लैण्ड का इतिहास रहेगा अथवा मैं ?’’
‘‘तुम क्या ?’’ हरिदास ने उत्सुकता से पूछा और नरेंद्रनाथ दत्त की ओर इस तरह देखने लगा मानो वह उसके मुख-मण्डल पर उभर आए लेख को पढ़ लेगा।
नरेंद्रनाथ दत्त ने कुछ सोचकर कहा, ‘‘अथवा कुछ नहीं, क्योंकि मेरा निश्चय सुदृढ़ है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मुझे अपने उद्देश्य में शत-प्रतिशत सफलता भी मिलेगी।’’
वे दोनों कुछ समझे नहीं। अचानक यह निर्णय कैसे ? प्रायः नरेंदनाथ दत्त ने अनेक निर्णय ऐसे ही लिए थे, जिनके बारे में पूर्व अनुमान लगाना संभव नहीं हुआ था।
नरेंद्रनाथ दत्त उन दोनों को जाते हुए देखता रहा। अब सूर्य आकाश में स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा था। वह भी उठा और गंगा के तट पर एक दृष्टि डालते हुए घर की ओर चल पड़ा।
पौ फटती। आकाश में नाना रंग बिखरने लगते। धीरे-धीरे बाल सुकुमार—सा रवि उदय होता जाता।
‘‘नरेन्द्र !’’ जैसे पीछे से उसे कोई पुकारता। वह सुना-अनसुना कर देता। कौन है जो उसके एकांत के साथ छेड़-छाड़ करना चाहता है ? वह फिर प्रकृति के सुरम्य दृश्यों में खोने लगता। अचानक उसके कंधे पर एक धौल पड़ती और उसके साथ ही वह पीछे मुड़कर देखता। कुछ सोचकर वह कहता, ‘‘अरे हरिदास, तुम और इस समय यहाँ ?’’
‘‘और मैं भी...।’’ दशरथ ने दूर से उसकी ओर बढ़ते हुए कहा।
‘‘तुम आज यहाँ, दशरथ ?’’ नरेन्द्रनाथ दत्त खखार कर पूछता।
‘‘इसमें आश्चर्य क्यों ?’’ हरिदास ने तपाक से कह डाला।
‘‘और तुम तो प्रायः ऐसे ही एकांत में जब देखो तब आ बैठते हो। क्या तुमने कभी अपने से प्रश्न किया ?’’ दशरथ ने तनिक ऊँची आवाज में कहा।
‘‘नहीं, दशरथ मित्र, मैंने अपने से ऐसा प्रश्न कभी नहीं किया। प्रश्न करना तो दूर, मैंने इस बारे में कभी भूल से भी नहीं सोचा।’’ नरेन्द्रनाथ दत्त धीरे-धीरे सोचकर कहता जा रहा होता, ‘‘क्या आवश्यक है कि जो कुछ किया जाए, वह मात्र खूब सोचकर हो ? क्या बहुत कुछ असोचे नहीं हो जाता है ?’’
‘‘कैसे ?’’ हरिदास बैठकर कहने लगता, ‘‘जो भी करो, सोचकर करो। करने से पहले सोच लो। करने के बाद सोचना मूर्खता कहलाती है। मैं तो अभी तक बड़े-बूढ़ों से यही सुनता आ रहा हूँ, नरेंद्र।’’
क्या तुमने इंग्लैण्ड का इतिहास याद कर लिया ?’’ नरेंद्रनाथ दत्त ने उसकी बात को अनसुना करते हुए पूछा। इस बार उसकी दृष्टि गंगा-तट पर आ खड़ी हुई उस नौका पर जा पड़ी जो अभी-अभी खाली हुई थी।
‘‘अभी बहुत कुछ याद करना शेष है, नरेन्द्र।’’ हरिदास ने कहा और दशरथ ने उस पर अपनी सहमति प्रकट की।
‘‘मैंने तो आज तक पुस्तक भी खोलकर नहीं देखी।’’ नरेन्द्रनाथ दत्त तनिक कठिनता से कहता।
‘‘नरेंद्र, परीक्षा होने में मात्र एक माह का समय रह गया है।’’ हरिदास गंभीर होकर कहता। साथ ही, वह बैठने का रुख भी बदल लेता है। अब तक कुछ यात्री उस नौका में आ बैठे थे और कुछ तेजी से उसकी ओर बढ़ रहे थे।
‘‘इतनी मोटी पुस्तक !’’ नरेंद्रनाथ दत्त ने आश्चर्य से अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैलाकर कहा।
‘‘परीक्षा भी तो उत्तीर्ण करनी है।’’ दशरथ बोला।
‘‘फिर मोटी या छोटी पुस्तक से क्या ? वह तो पढ़नी ही पड़ेगी।’’ हरिदास के स्वर में असहजता थी।
‘‘इसके बारे में हम लोग क्या शुरू साल से नहीं सोचे जा रहे हैं ?’’
नरेंदनाथ दत्त ने सहज होकर कहना जारी रखा, ‘‘पर उस पर सोचने से क्या हुआ ? यही न कि आज तक हम जहाँ के तहाँ हैं—एक क़दम आगे नहीं बढ़ सके। कम से कम मैं तो बिलकुल नहीं।’’
‘‘यह सच है।’’
‘‘इसीलिए कहता हूँ कि केवल सोचते रहने से कोई लाभ नहीं। जो सहज हो रहा है, उसे भी होने दो और जो कर सकते हो, उसमें अपनी भूमिका निश्चित करके आगे बढ़ो।’’ नरेंद्रनाथ दत्त के स्वर में आत्मविश्वास का गहरा पुट था। उसकी दृष्टि एक बार फिर उस नौका पर जा पड़ी जो अब यात्रियों को बैठाकर पतवार के सहारे आगे बढ़ने लगी थी। उसमें बैठी एक युवती की गोद में शिशु था। वह शिशु बार-बार माँ की गोद में से उछल कर नीचे आ जाने का प्रयत्न कर रहा था।
हरिदास और दशरथ के मुख-मण्डल पर उदासी का भाव झलक उठा था। वे दोनों वहाँ से चलने को हुए ही थे कि नरेंद्रनाथ दत्त ने रोक दिया और खखार कर कहा, ‘‘मैंने निश्चित कर लिया है, मित्रों कि....।’’
‘‘क्या निश्चित कर लिया है ?’’ दशरथ ने नरेंदनाथ दत्त को चुप होता देखकर पूछा।
‘‘यही कि अब या तो इंग्लैण्ड का इतिहास रहेगा अथवा मैं ?’’
‘‘तुम क्या ?’’ हरिदास ने उत्सुकता से पूछा और नरेंद्रनाथ दत्त की ओर इस तरह देखने लगा मानो वह उसके मुख-मण्डल पर उभर आए लेख को पढ़ लेगा।
नरेंद्रनाथ दत्त ने कुछ सोचकर कहा, ‘‘अथवा कुछ नहीं, क्योंकि मेरा निश्चय सुदृढ़ है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मुझे अपने उद्देश्य में शत-प्रतिशत सफलता भी मिलेगी।’’
वे दोनों कुछ समझे नहीं। अचानक यह निर्णय कैसे ? प्रायः नरेंदनाथ दत्त ने अनेक निर्णय ऐसे ही लिए थे, जिनके बारे में पूर्व अनुमान लगाना संभव नहीं हुआ था।
नरेंद्रनाथ दत्त उन दोनों को जाते हुए देखता रहा। अब सूर्य आकाश में स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा था। वह भी उठा और गंगा के तट पर एक दृष्टि डालते हुए घर की ओर चल पड़ा।
(2)
नरेंद्रनाथ दत्त घर लौट आया। घर का वातावरण उसके अत्यन्त अनुकूल था। उसके
पिता विश्वनाथ दत्त अपने पिताश्री की भाँति प्रकांड पंडित थे। अंग्रेजी और
फारसी के प्रकांड विद्वान् थे। बाइबिल का उन्होंने गहरा अध्ययन किया था।
नरेंदनाथ दत्त का ध्यान लगातार उनकी तर्कशक्ति पर रहता था। वह आस्तिक अवश्य थे लेकिन अंधविश्वासी कदापि नहीं।
नरेंदनाथ दत्त ने अपनी माँ भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त की बातों को सुना तो वह कई दिनों तक सोचता रहा।
भुवनेश्वरी देवी विश्वनाथ दत्त को बता रही थीं कि आज नरेंद्र शिव-पार्वती के सामने आलथी-पालथी मार आँखें बंद किए बैठा हुआ था।
‘‘तो ?’’ विश्वनाथ दत्त ने पूछा।
‘‘यह क्या हो रहा है, नरेंद्र।’’ मैंने पूछा।
वह तपाक से बोला, ‘‘ध्यान, माते, ध्यान।’’
‘‘किसका ध्यान ?’’
‘‘शिव-पार्वती का ध्यान।’’
‘‘कौन से शिव-पार्वती, नरेंद्र।’’
‘‘नहीं जानता।’’ यह कहकर वह पुनः आँखें मूँद लेता। तब उसकी कैसी प्यारी सी सूरत बनी थी कि मन उसे देखता ही रह गया था। मुख-मण्डल पर भोलापन, आँखों में तेजस्विता और ओष्ठों पर फैली सहज मुस्कान अत्यंत ही आकर्षक लग रही थी। वह सचमुच बाल-ऋषि-सा लग रहा था। वह आँखें खोलकर प्रश्न कर रहा था, ‘‘माते, शिव-पार्वती कौन हैं ?’’
‘‘वह सब मैंने संक्षिप्त में उसे बता दिया और वह एकाग्र मन से बिना कोई प्रश्न किए सुनता रहा।’’
‘‘तब ?’’ विश्वनाथ दत्त ने पुस्तक को एक ओर रखते हुए पूछा।
‘‘कुछ स्मरण आया।’’ भुवनेश्वरी देवी पूछ रही थीं।
‘‘क्या, देवी ?’’
‘‘हम लोग बाराबंकी गए थे, ना।’’
‘‘हाँ, तो ?’’ विश्वनाथ ने उसकी ओर ध्यान से देखा।
‘‘विश्वनाथजी के मंदिर गए थे, ना।’’ भुवनेश्वरी देवी ने जोर देते हुए कहा।
‘‘तो, फिर ?’’ विश्वनाथ दत्त ने सोच की मुद्रा में बैठे हुए पूछा।
‘‘क्यों गए थे ?’’ भुवनेश्वरी देवी की आँखों में झुँझलाहट तैर गई।
‘‘दर्शन हेतु।’’ विश्वनाथ दत्त का तटस्थ उत्तर था।
‘‘बस और कुछ नहीं था क्या ?’’
‘‘और क्या ?’’ विश्वनाथ दत्त अब भी तटस्थ बने रहे।
‘‘मनौती नहीं की थी क्या ?’’ झुँझलाहट रोष प्रकट कर उठती।
‘‘किसने ?’’ विश्वनाथ दत्त भोले बने रहते।
‘‘जैसे आपको कुछ पता ही नहीं है ?’’ कृत्रिम आक्रोश हठ कर बैठता।
‘‘यह सत्य है, देवी,’’
‘‘क्या सत्य है ?’’ आक्रोश और झुँझलाहट एक साथ फूट पड़ते।
‘‘कि मुझे और कुछ नहीं पता।’’ विश्वनाथ दत्त ने कहा।
‘‘यह भी नहीं पता कि नरेंद्र से पहले अपने परिवार में सबकी सब लड़कियाँ ही थीं—कोई पुत्र नहीं था।’’ इस बार भुवनेश्वरी देवी ने तनिक तेवर बदलते हुए कहा और फिर उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उनकी ओर कनखियों से देखा।
‘‘हाँ, देवी।’’
‘‘कोई पुत्र नहीं था।’’ वह पुनः जोर देकर कहती।
‘‘यह भी सत्य है, देवी।’’
‘‘हमें एक पुत्र की आकांक्षा थी कि नहीं।’’
‘‘मुझे नहीं। विश्वनाथ दत्त ने दो टूक निर्णय देते हुए कहा।
‘‘मुझे थी।’’
‘‘होगी।’’ सहज होकर विश्ननाथ दत्त ने तपाक से कह डाला।
‘‘मैंने मनौती की थी।’’
इस पर भी विश्वनाथ दत्त मौन रहे। उनमें कोई उत्सुकता पैदा नहीं हुई।
‘‘मैंने मन ही मन विश्वनाथजी के मंदिर में कहा था कि मेरी झोली में एक पुत्र-रत्न डाल दे, भोले शंकर।’’ भुवनेश्वरी देवी की आँखों में विद्युत-सी चमक कौंध गई और गला अवरुद्ध होने लगा।
‘‘और आपके अनुसार अपना नरेंद्र उसी मनौती का परिणाम है।’’
विश्वनाथ दत्त ने गंभीर भाव मुद्रा में सहज होकर कहा।
भुवनेश्वरी देवी का मन छलकने लगा। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में आश्वासन का पक्का रंग खिल उठा। वह चहक कर बोल पड़ीं, ‘‘जी, नाथ। भोलेशंकर ने मेरी इच्छा पूर्ण कर दी। भोले तो भोले हैं। सरल चित्त हैं दान देने में सबसे आगे हैं। वह अपने भक्तों की तुरंत सुनते हैं।’’ इसके साथ ही भुवनेश्वरी देवी ने शिव-पार्वती का ध्यान किया।
‘‘नहीं देवी।’’
‘‘क्या नहीं ?’’
‘‘यह आपका अंधविश्वास है।’’
‘‘नहीं नाथ, यह भक्ति है।’’
‘‘अंध-भक्ति।’’
‘‘वह मैं नहीं जानती।’’
‘‘तो जानो, देवी। यह जगत् जानने का ही विषय है।’’ विश्वनाथ दत्त ने कहा।
‘‘मन जितना जान लेता है, वही मेरे लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास मुझे कभी छलता नहीं।’’ भुवनेश्वरी देवी ने दृढ़ता से कहा।
‘‘तर्क की कसौटी पर पहले कस कर देखो। फिर यदि वह खरा उतरता है तो उस पर विश्वास करो। विश्वास बिना विवेक के अंधविश्वास है। मनौती का पुत्र के जन्म से कोई वास्ता नहीं है, यह मात्र तुम्हारा भ्रम है, देवी।’’ विश्वनाथ दत्त ने धीरे से कहा।
नरेंदनाथ दत्त का ध्यान लगातार उनकी तर्कशक्ति पर रहता था। वह आस्तिक अवश्य थे लेकिन अंधविश्वासी कदापि नहीं।
नरेंदनाथ दत्त ने अपनी माँ भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त की बातों को सुना तो वह कई दिनों तक सोचता रहा।
भुवनेश्वरी देवी विश्वनाथ दत्त को बता रही थीं कि आज नरेंद्र शिव-पार्वती के सामने आलथी-पालथी मार आँखें बंद किए बैठा हुआ था।
‘‘तो ?’’ विश्वनाथ दत्त ने पूछा।
‘‘यह क्या हो रहा है, नरेंद्र।’’ मैंने पूछा।
वह तपाक से बोला, ‘‘ध्यान, माते, ध्यान।’’
‘‘किसका ध्यान ?’’
‘‘शिव-पार्वती का ध्यान।’’
‘‘कौन से शिव-पार्वती, नरेंद्र।’’
‘‘नहीं जानता।’’ यह कहकर वह पुनः आँखें मूँद लेता। तब उसकी कैसी प्यारी सी सूरत बनी थी कि मन उसे देखता ही रह गया था। मुख-मण्डल पर भोलापन, आँखों में तेजस्विता और ओष्ठों पर फैली सहज मुस्कान अत्यंत ही आकर्षक लग रही थी। वह सचमुच बाल-ऋषि-सा लग रहा था। वह आँखें खोलकर प्रश्न कर रहा था, ‘‘माते, शिव-पार्वती कौन हैं ?’’
‘‘वह सब मैंने संक्षिप्त में उसे बता दिया और वह एकाग्र मन से बिना कोई प्रश्न किए सुनता रहा।’’
‘‘तब ?’’ विश्वनाथ दत्त ने पुस्तक को एक ओर रखते हुए पूछा।
‘‘कुछ स्मरण आया।’’ भुवनेश्वरी देवी पूछ रही थीं।
‘‘क्या, देवी ?’’
‘‘हम लोग बाराबंकी गए थे, ना।’’
‘‘हाँ, तो ?’’ विश्वनाथ ने उसकी ओर ध्यान से देखा।
‘‘विश्वनाथजी के मंदिर गए थे, ना।’’ भुवनेश्वरी देवी ने जोर देते हुए कहा।
‘‘तो, फिर ?’’ विश्वनाथ दत्त ने सोच की मुद्रा में बैठे हुए पूछा।
‘‘क्यों गए थे ?’’ भुवनेश्वरी देवी की आँखों में झुँझलाहट तैर गई।
‘‘दर्शन हेतु।’’ विश्वनाथ दत्त का तटस्थ उत्तर था।
‘‘बस और कुछ नहीं था क्या ?’’
‘‘और क्या ?’’ विश्वनाथ दत्त अब भी तटस्थ बने रहे।
‘‘मनौती नहीं की थी क्या ?’’ झुँझलाहट रोष प्रकट कर उठती।
‘‘किसने ?’’ विश्वनाथ दत्त भोले बने रहते।
‘‘जैसे आपको कुछ पता ही नहीं है ?’’ कृत्रिम आक्रोश हठ कर बैठता।
‘‘यह सत्य है, देवी,’’
‘‘क्या सत्य है ?’’ आक्रोश और झुँझलाहट एक साथ फूट पड़ते।
‘‘कि मुझे और कुछ नहीं पता।’’ विश्वनाथ दत्त ने कहा।
‘‘यह भी नहीं पता कि नरेंद्र से पहले अपने परिवार में सबकी सब लड़कियाँ ही थीं—कोई पुत्र नहीं था।’’ इस बार भुवनेश्वरी देवी ने तनिक तेवर बदलते हुए कहा और फिर उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उनकी ओर कनखियों से देखा।
‘‘हाँ, देवी।’’
‘‘कोई पुत्र नहीं था।’’ वह पुनः जोर देकर कहती।
‘‘यह भी सत्य है, देवी।’’
‘‘हमें एक पुत्र की आकांक्षा थी कि नहीं।’’
‘‘मुझे नहीं। विश्वनाथ दत्त ने दो टूक निर्णय देते हुए कहा।
‘‘मुझे थी।’’
‘‘होगी।’’ सहज होकर विश्ननाथ दत्त ने तपाक से कह डाला।
‘‘मैंने मनौती की थी।’’
इस पर भी विश्वनाथ दत्त मौन रहे। उनमें कोई उत्सुकता पैदा नहीं हुई।
‘‘मैंने मन ही मन विश्वनाथजी के मंदिर में कहा था कि मेरी झोली में एक पुत्र-रत्न डाल दे, भोले शंकर।’’ भुवनेश्वरी देवी की आँखों में विद्युत-सी चमक कौंध गई और गला अवरुद्ध होने लगा।
‘‘और आपके अनुसार अपना नरेंद्र उसी मनौती का परिणाम है।’’
विश्वनाथ दत्त ने गंभीर भाव मुद्रा में सहज होकर कहा।
भुवनेश्वरी देवी का मन छलकने लगा। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में आश्वासन का पक्का रंग खिल उठा। वह चहक कर बोल पड़ीं, ‘‘जी, नाथ। भोलेशंकर ने मेरी इच्छा पूर्ण कर दी। भोले तो भोले हैं। सरल चित्त हैं दान देने में सबसे आगे हैं। वह अपने भक्तों की तुरंत सुनते हैं।’’ इसके साथ ही भुवनेश्वरी देवी ने शिव-पार्वती का ध्यान किया।
‘‘नहीं देवी।’’
‘‘क्या नहीं ?’’
‘‘यह आपका अंधविश्वास है।’’
‘‘नहीं नाथ, यह भक्ति है।’’
‘‘अंध-भक्ति।’’
‘‘वह मैं नहीं जानती।’’
‘‘तो जानो, देवी। यह जगत् जानने का ही विषय है।’’ विश्वनाथ दत्त ने कहा।
‘‘मन जितना जान लेता है, वही मेरे लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास मुझे कभी छलता नहीं।’’ भुवनेश्वरी देवी ने दृढ़ता से कहा।
‘‘तर्क की कसौटी पर पहले कस कर देखो। फिर यदि वह खरा उतरता है तो उस पर विश्वास करो। विश्वास बिना विवेक के अंधविश्वास है। मनौती का पुत्र के जन्म से कोई वास्ता नहीं है, यह मात्र तुम्हारा भ्रम है, देवी।’’ विश्वनाथ दत्त ने धीरे से कहा।
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