कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
वह जीवित होती तो मैं उसके जीर्ण हृदय को आहत करने की यह धृष्टता कभी न करती।
मरे साँप को मारकर मुझे मिलता भी क्या? पाठकों की प्रशंसा और पारिश्रमिक का
लोभ मुझे कदापि यह सब लिखने को प्रेरित नहीं कर पाता। किंतु वही नहीं रही।
रहा उप्रेती, वह क्या कभी भारत लौट पाएगा? न ही इस कहानी के पृष्ठ उतनी दूर
जाकर फड़फड़ा पायेंगे। उप्रेती के शब्द अभी भी कानों में गूंज रहे हैं :
मैं उस कालसर्प के डंक से अभी भी पलपल गला जा रहा हूँ। कहते हैं धामन साँप
डंक देकर तत्काल प्राण नहीं लेता, वर्षों तक अंग-अंग सड़ागलाकर मृत्यु-दंड
देता है। वैसा ही दंड मुझे गला रहा है। मैं उस डंक को जीवन भर नहीं भूल सकता।
बरातियों से भरी बस उनके उल्लसित कलकंठ से गूंज रही थी। आत्मीय स्वजन, लाल
दुशाला कंधे पर डाले मेरे पिता, पीला जामा पहने नौशा बना मेरा बाँका भाई,
उसकी चादर की गाँठ से बँधी लाज से सिमटी नववधू, विशुद्ध घृत में बने पहाड़ी
पकवानों की मीठी-मीठी सुगंध, काँसे के कटोरे में पीले कपड़े से बँधा नयी
दुल्हन के मार्ग का नाश्ता, हमारी पारम्परिक चावल के आटे की बनी 'सै' जिसे
पिता की नजर बचा हाथ डाल-डालकर मेरा छोटा भाई लगभग रिक्त कर चुका था-कुछ भी
नहीं भूल पाया हूँ मैं। सब परम प्रसन्न थे। कन्यापक्ष ने अपने त्रुटिहीन
आतिथ्य में दिल खोलकर रख दिया।
“अरे भाई ड्राइवर ज्यू," बाबूजी ने सहसा कहा, “जरा जल्दी हाथ चलाना हो। चार
बजे तक पुष्य नक्षत्र है। घर पहुँच उसी शुभ नक्षत्र में द्वारपूजा हो जाए तो
बड़ा अच्छा रहे।"
“गुरु, पहुँचा तो एक ही घंटे में दूंगा, पर ये साली मछखाली का मोड़ बड़ा ऐबी
है, इसी से स्पीड तीस से ऊपर नहीं जाने देता।"
कुमाऊँ मोटर यूनियन की वह दीर्घदेही बस पूर्ववत् गजगामिनी बनी चलने लगी।
सहसा, उधर से एक मिलिटरी की बस बड़ी तेजी से आयी। उसी की टक्कर बचाने हमारे
सतर्क चालक ने जो तेजी से गाड़ी मोड़ी तो एक सम्मिलित आर्तनाद और धमाके ने
मेरी चेतना छीन ली। फिर क्या हआ, कैसे हआ, मुझे कुछ होश नहीं।
जब चेतना लौटी तो चारों ओर घुप्प अँधेरा था। घनी झाड़ियाँ और दैत्य-से
लंबे-लंबे वृक्ष, साथ में मूसलाधार वर्षा। न किसी की चीख, न कराह, सुई भी
टपकती तो नगाड़े का धमाका होता। चोट जितनी गहरी हो, उसका आभास उतनी ही देर
में होता है, यह अनुभव मुझे जीवन में पहली बार हुआ। मैं उठकर खड़ा हुआ तो
अपने ही रक्त की विचित्र गंध पाकर सहम गया। मेरी गीली कमीज वर्षा से नहीं,
मेरे ही रक्त से भीगी है, मैं उस अँधेरे में भी समझ गया। पर कहाँ लगी थी चोट?
तभी कंधे पर जैसे किसी ने बरछी घुसेड़ दी। तीव्र वेदना से मैं छटपटा उठा।
हथेली धरी तो ताजे खुले घाव में अँगुलियाँ फँस गईं। मैं फिर बेहोश होकर वहीं
पर गिर पड़ा। न जाने कितने घंटों बाद मेरी चेतना फिर लौटी। अव्यक्त विवश
वेदना मुझे विक्षिप्त कर उठी। बाबू, महेश, दिनेश-कहाँ हो तुम सब? पर वहाँ था
ही कौन जो उत्तर देता? अंधे की भाँति घने अँधेरे को चीरता मैं जिधर कदम
बढ़ाता वहीं किसी निष्प्राण देह से टकरा जाता। सारी रात मैं मसान में भटक रहे
अवधूत-सा ही भटकता रहा। पौ फटी, बाज बुरुंश के दैत्याकार वृक्षों को चीर,
धीरे-धीरे उन असहाय लाशों पर फैलती सूर्य की किरणों ने रात की उस अस्वाभाविक
चुप्पी का रहस्य खोल दिया। कहीं कटी टाँगें पड़ी थीं, कहीं कबंध-से मुंडविहीन
धड़। वस्त्रों से ही एक-एक को पहचानता मैं बिलखता अपने दोनों भाइयों की
क्षत-विक्षत देहों से लिपट न जाने कब तक बिलखता रहा। दोनों एक-दूसरे से ऐसे
लिपटे थे जैसे आसन्न मृत्यु का स्पष्ट आभास था-एकसाथ ही उसका वरण करने मौत की
उस घाटी में कूद गए हों।
मैंने फिर साहस कर एक-एक निष्प्राण देह की गिनती की। क्या पता कोई अब भी बच
गया हो। बार-बार गिनने पर भी मैं इकतीस निर्जीव देहों की ही पुष्टि कर पाया।
बस-ड्राइवर सहित हम तैंतीस वरयात्री थे-तब वह कहाँ गई? बड़ी देर तक ढूँढ़ने
पर भी जब नववधू की देह मुझे नहीं मिली तो मैं थककर बैठ गया। मेरा सिर भन्ना
रहा था। आँखें स्वयं मुँदी जा रही थीं-क्या यही मृत्यु थी? कंधे का घाव शायद
बहुत गहरा था, रक्त से सने मेरे वस्त्र, मेरी देह पर ही सूख चले थे। अब केवल
घाव की चिलक बाकी थी।
धप-धप! वर्षा रुक गई थी। सबकुछ निःस्तब्ध था, सब अचल। सचल थी केवल मेरे हाथ
की घड़ी-टिक-टिक-टिक-टिक। लगता था नयी बहू बस के भीतर ही कहीं कुचल गई थी।
किन्तु बस को देखकर लगा, यदि ऐसा ही था तो उसके जीवन की आशा करना व्यर्थ था।
फिर भी मैं साहस कर बढ़ा। मेरा अनुमान ठीक था। एक क्षीण कराह का शब्द सुन
मैंने टूटकर टिट्टर बन गए बस के द्वार को तोड़ा। अपने कंधे के घाव की तीव्र
पीड़ा से मैं तिलमिला उठा। फिर मैंने कैसे उसे निकाला, यह बताने में मैं आज
भी सिहर उठता हूँ। जब अंतिम बार शरीर की समस्त शक्ति लगाकर उसे बाहर खींचा तो
मेरे कंधे के घाव से रक्त का फव्वारा-सा छूट गया। उसके रक्तरंजित निष्प्राण
चेहरे को देख मैंने आँखें बंद कर लीं। वह बीच-बीच में कराह रही थी। उसके
चेहरे का रक्त, उसके किसी घाव का नहीं, मेरे ही कंधे के घाव का है, यह तो
बड़ी देर बाद समझ में आया। आश्चर्य था कि उस घातक दुर्घटना ने केवल बुरी तरह
छिली कुहनियों के और कोई भी चिह्न नहीं छोड़ा था। उसे कंधे पर लाद उस भयानक
परिवेश से मझे दर ले जाना होगा क्योंकि जिस वीभत्स मुर्दाघर को देख मैं पुरुष
होकर भी सहम गया था, उसे देखकर वह फिर जीवित नहीं रहेगी।
वह स्थान और भी बियावान था। बड़े-बड़े, प्रहरी-से खड़े दैत्याकार देवदार
द्रुम, अखरोट, स्यूँत के विराट् छतरीदार वृक्ष, उस पर सुनहली 'पिरुल' घास पर
मेरे पैर ऐसे फिसल रहे थे जैसे पैरों में स्केट्स के गतिशील पहिये बँधे हों।
एक पेड़ के नीचे मैंने उसे उतारा तो उसकी देह निःस्पंद थी। तो क्या वह
बत्तीसवाँ मुसाफिर भी चल दिया? अब निश्चय ही मेरी बारी थी। कछ भय से, कुछ
प्यास से, मेरी जीभ तालू से ऐसी चिपक गई थी कि चेष्टा करने पर भी मैं उसे
छुड़ा नहीं पा रहा था, लग रहा था निरंतर कंठ में धंसी जा रही है। दूर-दूर तक
कहीं पानी का नामोनिशान भी नहीं था। आदमी तो दूर, लगता था उस अरण्य में कभी
कोई परिन्दा भी नहीं चहका होगा। मैंने उसे यत्न से नीचे धरा और पानी की खोज
में निकल गया।
थोड़ी ही दूर जाने पर जलप्रपात का क्षीण आभास पा मैं बड़े उल्लास से बढ़ा। एक
पहाड़ से वह झरना शायद मेरे लिए फूटा था। तिमिल के पत्ते का दोना बना मैंने
जलधार संचित की, ठंडे जल की कृपण धारा से हाथ-मुँह धोया, फिर कंधे के घाव को
उस पहाड़ी प्रपात की मृत्युंजयी धारा में लगा दिया।
मैं पानी लेकर पहुंचा तो वह पूर्ववत् बेहोश पड़ी थी। निश्चय ही चोट गंभीर थी,
ऐसी गुम चोट तो कभी घातक भी हो सकती थी। मैंने उसके कमनीय चेहरे पर जमा रक्त
धोया, आँखों पर छींटे मारे, पर वह जैसे गहरी नींद में सो रही थी। जितनी ही
बार उसे देख रहा था, भीतर-ही-भीतर मेरा कलेजा कोई उतनी ही बार मरोड़ रहा था।
महेश होता तो कैसी शिव-पार्वती की-सी जोड़ी फबती इन दोनों की। बेचारी ने शायद
पति का चेहरा भी कभी नहीं देखा होगा! रक्त का एक लम्बा-सा तिलक उसके ललाट से
लेकर माँग तक चला गया था। मैंने धीरे-धीरे उस सूखे रक्त की रेखा को मिटाया,
तो देखा कहीं कोई घाव नहीं था, मेरे कंधे का रक्त शायद उसके चेहरे को
रक्तरंजित कर गया था। मैंने उसकी नाक के नीचे हाथ रखा, अधखुले होंठों पर उलटी
हथेली धरी-नहीं, कहीं भी साँस नहीं थी। अब इस मुर्दा देह की चौकीदारी कर क्या
लाभ? जैसे भी हो, अब मुझे अपने प्राण बचाने होंगे-अपने लिए नहीं तो हार्ट की
मरीजा अपनी रुग्ण माँ के लिए, जो अपने वंश के निर्वंश होने का आघात कभी नहीं
झेल पाएगी। मैं उठा, फिर न जाने क्या सोचकर, उसी ओढ़नी से उसका चेहरा ढाँपने
झुका। तभी मुझे लगा, उसकी देह सामान्य स्पंदन से हिली-ओह उसमें प्राण शेष थे।
अब मैं उसे उस जंगल में अकेली छोड़कर कैसे जा सकता था।
फिर एक लम्बी कहानी है मैडम, मेरे संघर्ष की, मेरे अंतर्द्वन्द्व की। मेरे
विनिपात की मैं क्या जानता था कि दर बैठी अदर्शी नियति ठीक मेरी छाती पर अपना
अचूक निशाना साध रही है? कभी पानी के छींटे मारता, कभी कँटीली हिसालू की
झाड़ियों से हिलासू बीन उनका रस उसकी कठिनता से मिची दाँती के बीच टपकाता।
तीन दिन और तीन रात मैंने उसके सिरहाने एक ही आसन में बैठकर बिता दिए। चौथी
रात को उसने आँखें खोलीं, माघ की हड्डी कँपानेवाली तीव्र बर्फीली हवा हमारी
पसलियों को आरे-सा चीर रही थी। सहसा हिमपात होने लगा और आप तो जानती ही
होंगी, पहाड़ी हिमपात गिरिकंदराओं को कैसी भयावह निःस्तब्धता से लील लेता है,
न बिजली की चमक, न बादलों की गरज-केवल आकाश से कोई दक्ष अदृश्य धुन्ना रुई
धुन-धुनकर बिखेर रहा था। शायद उसकी चेतना पूर्ण रूप से लौट आयी थी। मैं कुछ
कहता, इससे पहले ही वह “मुझे डर लग रहा है। बहुत डर लग रहा है।" कहती
बच्ची-सी मुझसे लिपट गई।
आपसे गायत्री की सौं खाकर कहता हूँ, सारी रात जलसर्प के जोड़े-से लिपटे रहने
पर भी किसी भी विकार ने मुझे भ्रष्ट नहीं किया। यौनताहीन उस आलिंगन में उसके
ठंड से काँपते शरीर को अपनी देह का उत्ताप देने की ही मेरी निःस्वार्थ भावना
रही थी।
रात-भर मैं यही सोचता रहा, उससे क्या कहूँ? कैसे कहूँ। तब स्वयं उसी ने मेरा
कार्य सुगम कर दिया।
“क्या कोई भी नहीं बचा?" वह उठकर बैठ गई। फिर बड़े ममत्वपूर्ण अधिकार से उसने
अपना सिर मेरे कंधे पर धर दिया, “आप भी न बचते तो मैं क्या करती! मेरा
सौभाग्य बच गया! अब कोई यह तो नहीं कह पाएगा कि मैं अलक्षणी हूँ!" मेरा कलेजा
हिम हो गया-क्या वह बेचारी मुझे अपना पति समझ रही थी?
“सुनो, हमें अब यहाँ से बाहर निकलने की राह ढूँढ़नी होगी। यहाँ भूखे-प्यासे
कितने दिन रह पायेंगे?"
मैंने कहा, “हो सकता है जंगली जानवर भी हों यहाँ-शेर-भालू।"
"नहीं, नहीं।" वह फिर थरथर काँपती मुझसे लिपट गई और उसने अपनी दोनों सुकोमल
बाँहें मेरे गले में डाल दीं। उसी दिन शतमुखी विनिपात के प्रथम सोपान पर
स्वयं नियति मुझे खड़ा कर गई थी।
दूसरे दिन पौ फटने से भी पहले वह चौंककर जग गई, “कोई हमें ढूँढ़ने नहीं
आएगा?"
“उनके लिए हम मर-खप चुके हैं। जिस गहरी घाटी में हमारी बस गिरी है, वहाँ क्या
मनुष्य की दृष्टि भी पहुंच सकती है कभी? चलो हिम्मत करो।"
पूरे पन्द्रह दिन की उस सुदीर्घ विषम यात्रा ने हमारे प्राण कंठागत कर दिए
थे। मार्ग-भर कोई जंगली फलों के पेड़ दिखते तो मैं लपककर ठोने में भर लाता।
पैरों में छाले पड़ गए, कपड़े फटकर चिंदी-चिंदी हो गए।
यात्रा के अंतिम पड़ाव तक वह एकदम ही निष्प्राण-सी होकर गिर पड़ी।
"नहीं-नहीं, मुझे अब चलने को मत कहो, मैं नहीं चल पाऊँगी।"
मैंने उसे गोद में उठा लिया और जब आधी रात को टिमटिमाती बत्ती देखी तो पैरों
में नयी शक्ति का संचार हो गया। डूबते को तिनके का सहारा मिला। निकट आने पर
यायावर खूँखार तिब्बती लामाओं के भयावह अप्सू कुत्ते हमें देखते ही जोर-जोर
से भौंकने लगे, सजग लामाओं को हाथ में मशाल लिये देखा तो मेरा कलेजा काँप
उठा। बचपन में माँ से सुना था ये तिब्बती हूण आदमखोर होते हैं, इससे पहले कि
वे मुझसे कुछ पूछते, मैं अपनी पीठ पर लदे मोहक बोझ के साथ ही वहीं गिरकर
मूर्च्छित हो गया।
पूरा महीना फिर उसी खेमे में न जाने कब और कैसे बीत गया। अच्छा ही था जो ऐसी
सहृदय टोली की मेजबानी मिली जो न हमारी भाषा समझती थी. न हम उनकी। भाषा के
व्यवधान के बीच वे समझ गए कि हम किसी भयानक दुर्घटना के शिकार हुए हैं। कुछ
उनकी मृत्युंजयी तिब्बती जड़ी-बूटियों के चमत्कार ने, कुछ उनकी उग्रतेजी जौ
की शराब 'च्युग' ने और कुछ उनके निष्कपट स्नेह ने हमारे तन और मन दोनों के
घाव एकसाथ भर दिए। जिस दिन हमने उनसे विदा ली, उस दिन हम स्वयं नहीं जानते थे
कि हमारी नाव किस घाट लगेगी।
“नंदी, घर चलोगी?" मैंने उसी दिन उससे पूछा था।
"नहीं," वह रोने लगी थी। "लोग यही कहेंगे मैं अपया हूँ। आने से पहले ही सबको
खा गई।"
"तब?"
"वहीं चलो जहाँ तुम्हारी नौकरी है। वह नौकरी तो मिलेगी न?" उसने बड़े भोलेपन
से पूछा।
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