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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


मैं उससे कैसे कहता कि नौकरी तो नहीं छूटेगी नंदी, पर तुम मुझसे छूट जाओगी। एक न एक दिन घरवाले हमारा अता-पता लगा ही लेंगे, फिर पूरा दफ्तर ही तो जानता है, मैं भाई की शादी में गया हूँ। वह दिन फिर क्या नंदी के लिए बड़े सुख का होगा?

मैं विवाहित न होता तो मैं नंदी के लिए सब परम्पराएँ तोड़ सकता था। आप तो जानती हैं हम कुमाऊँ के ब्राह्मणों में ऐसे विवाह आज तक कभी नहीं हए। मैं नंदी का देवर भी होता तो शायद समाज से जूझ सकता था। पर मैं तो जेठ था जिसकी छाया भी छोटे भाई की पत्नी के लिए वर्जित है। यह क्या कर बैठा था मैं! वैधव्य के आघात से बचाने के लिए मैंने उसे जीवन के कैसे घातक मोड़ पर खड़ी कर दिया था।

मैं अपनी नौकरी पर नहीं गया। एक अनजान शहर में नियति ने मुझे एक फैक्टरी में नौकरी दिलवा दी। था तो मैं मेकेनिकल इंजिनियर। एक दिन मैंने उससे कहा, “नंदी, तुम्हें अपने इजा-बाबू की याद नहीं आती?"

उसकी रसीली मदमस्त आँखें छलछला उठीं, “उनके लिए तो मैं मर चुकी हूँ। इतने दिनों बाद गई तो भूत समझेंगे हमें।"

"ठीक कहती हो, नंदी।” मैंने उसे खींचकर गले लगा लिया था। “हम सबके लिए मर चुके हैं अब। भूत-प्रेत बनने में ही हमारा हित है, पर कोई आकर तुमसे कहे कि मैं तुम्हारा पति नहीं हूँ, मैंने तुम्हें ठगा तो?"

मेरा कलेजा उसके उत्तर की प्रतीक्षा में धड़कता मेरे कानों में बज रहा था, “तुमने तो कभी मुझे देखा भी नहीं था, नंदी।"

चट से उसने अपनी बताशे-सी सफेद हथेली मेरे होंठों पर रख दी, “खबरदार जो ऐसी अलच्छनी बात कभी होंठों पर लाए, नहीं देखा तो क्या हुआ, मुझे तो यही लगता है कि तुम मेरे इसी जन्म के नहीं, जन्म-जन्मान्तर के पति हो।"

अब आप ही बताइए, क्या मेरी नियति ही टप से उसके जिह्वा पर बैठकर नहीं बोल रही थी? फिर दयालु भाग्य हमें यहाँ ले आया-जहाँ पूरे चालीस वर्षों में हमारे अतीत ने, एक बार भूलकर भी हमारे गिरेबान में नहीं झाँका। नंदी का निष्कलुष हृदय कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि जिसे वह अपना जन्म-जन्मांतर का जीवन सहचर मानती है, वह संसार का सबसे बड़ा प्रवंचक है, महा ठग! जिसने उसे ही नहीं छला, जिसने जन्मदायिनी सरला जननी को छला, गाय-सी सीधी उस निर्दोष पत्नी को छला, जिसे वह बार-बार अपने साथ ले जाने का आश्वासन दे आया था। आपसे यही अनुरोध करने आज आया हूँ, आपने हमें जीवित देख लिया है, यह किसी से न कहें, एकसाथ तीन-तीन जीवन नष्ट हो जाएँगे प्लीज। कहता वह हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति सहसा मेरे चरणों पर गिर पड़ा।

“क्या कर रहे हैं आप उप्रेतीजी, प्लीज उठिए। मैं वचन देती हूँ, किसी से कुछ नहीं कहूँगी।"

उसके आँसुओं से भीगे चेहरे की म्लान मूढ़ कांति सहसा देवदूत की-सी निष्पाप हँसी से उद्भासित हो उठी, “नहीं कहेंगी न, रमा से भी नहीं?" उसकी लाल डोरीदार आँखों में किसी नटखट बालक की-सी परिहासपूर्ण चपल लहर हिलोरें ले उठी।

“रमा से मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता उप्रेतीजी। वह तो बहुत वर्ष पहले ही संन्यासिनी बनकर माँ आनंदमयी के आश्रम में चली गई। आपकी माँ का देहांत तो दुर्घटना के दूसरे ही महीने हो गया था।"

उप्रेती के उत्फुल्ल चेहरे पर एक बार उदासी का मेघखंड छा गया। उसकी अंतरात्मा शायद फिर उसका गला घोंटने लगी थी।

फिर वह तड़ाक से उठ गया, “मैं चलूँ, बड़ी रात हो गई है, नंदी भूखी बैठी होगी।"

जी में आया पूछू, “और जो वर्षों से अन्न त्याग, तुम्हारे लिए भूखी बैठी है वह?"

पर मैंने उसे निःशब्द बिदा दी।

कहते हैं पहाड़ में किसी गर्भवती गृहिणी के प्राण प्रसव-पीड़ा ने तब ही ले लिये जब शिशु भूमिगत नहीं हुआ था। जब उसे घाट ले जाया गया तो चिता में धरने से पूर्व शास्त्रानुसार गर्भ की संतान को जननी वे विलग किया गया। जिस पत्र संतान ने जननी के प्राण लिये थे, स्वयं उसमें प्राण थे-उसी पुत्र का नाम धरा गया उप्रेती अर्थात् 'उप प्रेती', नहीं जानती वह मात्र कपोल-कल्पना ही है या सत्य घटना। किंतु यदि सत्य घटना है तो यह धारणा और पुष्ट होती है कि इतिहास सचमुच अपने को दोहराता है। मैं स्वयं चक्षुओं से ही तो उस दोहराव को देख आई हूँ। जिसे मैंने देखा, वह भी तो 'उप प्रेती' ही था!

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