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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


नैमिषारण्य के उस अरण्य में स्थित पुस्तकालय में वेद-उपनिषदों से घिरी, सर्वस्व त्यागिनी उस गरीब की जबान भले ही न खुली हो; भले ही उसने आजन्म मौत व्रत धारण किया हो-उसकी अंतरात्मा की फरियाद तो ऊपर की अदालत तक पहुँची ही होगी। क्या तम जानते हो उप्रेती. कि तम्हारी तथाकथित मृत्यु के उस भ्रामक आघात के बाद उसने कभी अन्न का स्पर्श भी नहीं किया? असंख्य निर्जला एकादशियों के कठोर व्रत ने उसे अपर्णा बनाकर रख दिया है। उस कंकाल के किस अँधेरे कोटर में, कौन-सी धडकन ने उसे अब तक जीवित रखा है? शायद अब भी अभागिनी तुम्हारे संभावित प्रत्यावर्तन का निष्कंप प्रदीप जलाए बैठी है कि तुम्हारी देह तो मिली नहीं, क्या पता तुम कभी लौट ही आओ! काश, मैं उससे यह सब कह पाती!

दिन-भर मैं इधर-उधर गोष्ठियों में भटकती रही, संध्या को होटल में लौटी। फ्लोर क्लर्क से चाबी लेकर मैंने कमरा खोला, भीतर पहुँचते ही खिड़की खोल दी। हिमशीतल हवा का झोंका सहसा विजना-सा डुला गया। तीव्र स्रोता असीम शक्तिशालिनी नदियों का देश है साइबेरिया। इसी से वहाँ की हवा का हर झोंका पानी से भीगी खस की टट्टी की बयार-सा मधुर लग रहा था-जबकि बार-बार होटल की एक स्थूलकाया आनंदी कर्मचारिणी मुझे इशारे से चेतावनी दे जाती थी कि मैं भूलकर भी खिड़की न खोलूँ। फिर वह उसी कुशल मूकाभिनय से, स्वयं अपनी गदबदी कलाई, दोनों घुटने थामकर मुँह बनाती जैसे उसे भयानक वातजनित कष्ट हो रहा हो-अर्थात् मैंने खिड़की खोली तो बर्फीली हवा मेरी भी वही अवस्था कर देगी। पर वह जाती तो मैं चट से खिड़की खोल देती। दीर्घ ड्राइव की क्लांति पलक झपकाते ही उस बयार के स्पर्शमात्र से दूर हो जाती। शायद जानबूझकर ही उस होटल की खिड़कियाँ बड़ी-बड़ी बनायी गई थीं कि आधुनिक भ्रमणार्थी दिगंत विस्तृत, विचित्रवर्णी, बहुदूरव्यापी वह अपूर्व दृश्य देख सकें।

साइबेरिया को जितना ही देख रही थी उतना ही उसका अपनी जन्मभूमि से साम्य मुझे मुग्ध कर रहा था। वह अनजान-अनचीन्हा शहर यूरिकुष्ट क्या एकदम अल्मोड़ा का आबेहूब दूसरा रूप नहीं था? पर्यटकों को जैसे हिमालय की माया रह-रहकर बाँधती है कि बार-बार वहाँ पर्यटक बनकर आएँ, ऐसे ही वह शहर भी मुझे बार-बार आने का मौन निमंत्रण दे रहा था। वहाँ का भूतत्व, सृष्टिरहस्य, जीवजंतु, उद्भिद, जलवायु सबकुछ ही तो कुमाऊँ जैसा था। यहाँ तक कि कर्मठ स्त्रियों के गोल गाल, गुलाबी चेहरे, कमर पर दोनों हाथ धर खड़ी हो तनिक बंकिम ग्रीवा कर, नवागत को देखने का कौतूहली अंदाज, रंग-बिरंगी छींट के प्रगाढ़ रंगों के प्रति लगाव, स्वस्थ दंतपंक्ति, गोदी में गदबदे शिशु-यहाँ तक कि कहीं-कहीं हाथ में ठेठ पहाड़ी चिलम गुड़गुड़ाते वृद्ध भी मुझे एकदम स्वदेशी लगे। पुरुषों की वैसी ही अलस दिनचर्या-कहीं शतरंज, कहीं ताश; और स्त्रियों की वैसी ही कर्मठता जिसका सटीक वर्णन कुमाऊँ के गजेटियर में पढ़ने को मिलता है। वहाँ की सर्पिल पगडंडियाँ, वहाँ का प्रभात, मध्यान्ह, संध्या, ज्योतस्नाप्लावित रात्रि, प्रखर ग्रीष्म में भी तुषारावृत शीत का समावेश सबकुछ ही तो एक-सा था। यहाँ तक कि वहाँ की विश्वविख्यात बेकाल झील की नील-हरित द्युति झलकाता जल भी मुझे ऐनमैन नैनीताल की झील का-सा ही विचित्रवर्णी लगा था। दोनों की ही अतुल जलराशि में विधाता ने मुट्ठियों-भर नीलम-पन्ना बिखेर दिए क्या!

सहसा घंटी सुनकर मैं चौंकी। मेरे पास के कमरों में चीनी संगीतकारों का एक दल टिका था। कई बार उनमें एक-न-एक अपना कमरा समझ मेरे कमरे की घंटी बजा जाता। और कौन हो सकता था इतनी रात को? मेरी फ्लाइट जाने में पूरे आठ घंटे बाकी थे। किसी कारणवश निर्धारित उड़ान उस दिन स्थगित कर दी गई थी। मुझे तड़के ही मंचूरिया से आ रही फ्लाइट से जाना होगा-मेरे मेजबान आकर मुझे स्वयं सूचित कर गए थे। तो अब कौन आ सकता था?

मैंने द्वार खोला तो सहसा सहम गई। हँसता उप्रेती बिना मेरी अनुमति की प्रतीक्षा किए बड़ी अंतरंगता से भीतर चला आया।

"क्षमा करें, आपको असमय परेशान किया, पर न आता तो फिर आपसे भेंट न हो पाती।"

"बैठिए,” मैंने कुर्सी खींच दी, “आप अकेले?” मैंने पूछा।

“जी हाँ, जो कुछ कहने आया हूँ, वह अकेले ही कहना ठीक लगा।"

मन-ही-मन एक अकुलाहट मुझे अपदस्थ कर उठी-कौन-सी बात कहने आया होगा?

“देखिए, आपने पता नहीं कल क्या सोचा होगा। नंदी ने बताया कि आई कुड नॉट कैरी माई ड्रिंक्स। सोचा स्वयं जाकर आपसे क्षमा माँग लूँ। ऐसा आज तक कभी हआ नहीं। डिंक्स कैरी करने की मेरी अदभुत क्षमता का लोहा तो मेरे रूसी मित्र भी मान चुके हैं। पता नहीं क्या हुआ, शायद आकस्मिक उत्तेजना ने ही नशे को उग्र कर दिया था। मुझे क्षमा करें, मैं बेहद शर्मिंदा हूँ।”

"इतनी-सी बात के लिए आप इतनी रात को इतनी दूर चले आए उप्रेती जी! फिर आपने तो कोई ऐसा अशोभनीय आचरण नहीं किया था। मुझे रुकने के लिए ही तो कहा था।" मैंने कहा।

"नहीं, नहीं, मुझे नंदी ने सब बता दिया। मैंने बाँहें फैलाकर, बड़ी अशिष्ट अभद्रता से आपका रास्ता रोकने की चेष्टा की थी। आई ऐम रियली सॉरी, मैडम।"

"आप बैठें, मैं कैफेटेरिया से दो कप कॉफी ले आऊँ। बेहद ठंड है।"

मैं कॉफी लेकर लौटी तो देखा उप्रेती मोहाविष्ट-सा उसी मुद्रा में आँखें मूंदे चुपचाप बैठा है, जिसमें जाते-जाते मुड़कर मैंने उसे देखा था।

“लीजिए, कॉफी ही मिली, वह भी बिना मलक्का (दूध) के," मैंने हँसकर गांभीर्य के कुहासे को उड़ाने की चेष्टा की।

“सुनिए।" वह कहने लगा, “मैं आपसे एक अनुरोध करने आया हूँ, आपने कल जो कुछ देखा है, प्लीज भारत लौटने पर उसे अपने ही तक सीमित रखें।"

“क्या देखा है मैंने?" अनजान बन मैंने पूछा।

"नंदी को, मुझे-वही सब," अचानक प्याला मेज पर धर उसने निरीह मस्तक ऐसे झुका लिया जैसे कोई जघन्य अपराध किया हो। “रमा आपकी बालसखी रही है, वह मुझे सब बता चुकी थी। आपकी सहानुभूति निश्चय ही उसके साथ होगी। पता नहीं मुझे क्या समझ रही होंगी आप! पर मैं आपको अपना बयान भी सुनाना चाहता हूँ। दोष मेरा था या नंदी का या नियति का-आप स्वयं फैसला करें।"

मैं सोचती हूँ-बेचारा उप्रेती! यदि वह जानता कि मैं कहानी लिखती हूँ तो शायद वह मुझे यह कथानक नहीं थमाता। कौन ऐसी मूर्ख लेखनी होती जो ऐसा दुर्लभ कथानक पटापट टेप न कर लेती? किंतु इतना संयम मैंने अवश्य बरता है-जब तक मुख्य पात्र मंच से, नेपथ्य में कभी न लौटने के लिए विलुप्त नहीं हो गए, मैंने कुछ नहीं लिखा। रमा के इसी ज्येष्ठ में देहत्याग का दुःसंवाद मुझे उसका एक शिष्य थमा गया, “माताजी नहीं रहीं। यह आपको देने के लिए कह गई थीं।" एक दीमक-खायी जीर्ण पीली पुस्तक 'वेदत्रयी', एकमुखी रुद्राक्ष की जपमाला और मेरे ही हाथ का बना चमड़े का बटुआ, जो कभी मैंने उसे शांतिनिकेतन से भेजा था। खोला तो उसमें दो चित्र थे-एक उसकी गुरु माँ का, दूसरा उप्रेती का पीला पड़ गया चित्र। समझ गई कि सुदीर्घ साधना के बीच भी अभागिनी के चित्त से उसके क्षणस्थायी सौभाग्य की स्मृति विलीयमान नहीं हो पाई थी।

मेरे लिए एक छोटा-सा पत्र भी था :

“अब तुम्हीं मेरी एकमात्र परिचिता बची हो। पहले, बहुत पहले दिया गया तुम्हारा उपहार तुम्हीं को लौटा रही हूँ। मन की एक अवस्था ऐसी भी होती है बहन, जिसका आविर्भाव होते ही महापुरुष का दर्शन हो जाता है। अपने जीवन में मुझे यह प्रत्यक्ष दुर्लभ अनुभव कई बार हुआ है। उसी अवलंब ने शायद अब तक जीवित भी रखा है। किंतु इस अवस्था को बार-बार ले आना तो प्रयत्नाधीन नहीं है। अब चारों ओर से उपद्रवों ने मेरा चित्त अशांत कर दिया है। एक हताशा मुझे निरंतर मृत्यु की ओर खींच रही है। स्वर्गगता जननी के राजरोग ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया है। कई बार रक्तवमन कर चुकी हूँ। यह मैं समझ गई हूँ कि मेरे दिन अब पूरे हो चुके हैं। इसी से किसी ऐसे निभृत निर्जन स्थान में छिपकर उस आनंदमय मुहूर्त की प्रतीक्षा करना चाहती हूँ, जहाँ मृत्यु और मेरे बीच कोई तीसरा न रहे।"

यही हुआ भी, कनखल के सतीघाट-सा निर्जन स्थान भला उसे उस दिव्य मिलन के लिए और कहाँ मिल सकता था?

"नहाने में ही माताजी का पैर रपटा और तीव्र वेग में बह गईं। बड़ी दूर जाकर लाश मिली।" शिष्य ने बतलाया। पर 'पैर' रपटा या स्वयं रपटाया गया?

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