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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


अच्छा ही हुआ मैं चली आयी, क्योंकि वह भाग्यहीन बरात फिर कभी लौटकर नहीं आयी। रमा के ससुर के तीन-तीन नक्शेबाज बेटों में से एक भी फिर घर नहीं लौटा। पहाड़ में अट्ठारह वर्षों में ऐसी भीषण दुर्घटना कभी नहीं हुई थी। आज तो हर तीसरे दिन, ऐसी न जाने कितनी बरातों को लेकर, बसों के खाई-खंदक में गिरकर पूरे वंश को मटियामेट करने के समाचार हम अखबारों में पढ़ते रहते हैं। पर तब के धर्मभीरु चालक पड़ाव के हर सर्पिलमोड़ पर स्थित देवालय पर श्रद्धा से सिर झुकाते थे, और फिर कुशल अनुभवी नटों की सतर्कता से पहाड़ी सड़कों की रस्सियों पर साँस रोके गाड़ी चलाते थे-किसका नशा और कैसी शराब! मजाल है जो हर मोड़ पर चरती बकरियों के झुंड में से एक भी मिमियाती बकरी बस के नीचे आ जाए!

बरातियों सहित नौशे-नयी बहू को लेकर वह बस हजारों फीट गहरी अंधी खाई में क्या गिरी कि विधाता ने उप्रेती वंश की बेलि ही जड़ से उखाड़कर दूर पटक दी। पितरों को पानी देने के लिए भी उस वंश में दूर-दूर तक मरद का एक बच्चा भी नहीं बचा, घने अंयार वृक्षों के उस जंगल में बस गिरी थी जहाँ वृक्षों की सघन छतरी के बीच छनकर भी कभी सूर्य-किरणों ने धरती का स्पर्श नहीं किया था। शक्तिशाली क्रेन भी होता तो शायद चर-चूर हो गई उस बस के मलबे को उठाना तो दूर, उसे ढूँढ़ भी नहीं पाता। मैं जब गई तो रमा की ससुराल में मसानघाट का सन्नाटा था। एक ओर उसकी सास बेहोश पड़ी थी। दूसरी ओर नब्बे वर्ष की ननिया सास। एक ही रात पहले तितली-सी नाच रही डिकरी पातर की प्रतिभाशालिनी शिष्या रमा परकटी तितली-सी निष्प्राण पड़ी थी। उसके बाद, वर्षों तक मैंने उसे नहीं देखा। उसी की मौसी सात-आठ वर्ष बाद मिली और उसी ने बताया कि रमा सिर मुंडा, दीक्षा ग्रहण कर माँ आनंदमयी के आश्रम में चली गई है। जन्म से ही क्षुधातुरा मेरी सखी को छप्पन व्यंजनों का थाल मिला भी तो पहला कौर मुँह में धरते ही विधाता ने छीन लिया।

अच्छा ही किया उसने जो अपनी एक राह तो बना ली। कभी सुनती बनारस के आश्रम में है, कभी देहरादून और कभी नैमिषारण्य, जहाँ वह माँ के वाचनालय की देखभाल करती है। एक बार सीतापुर गई तो उसे ढूँढती वहाँ पहँच भी गई, किन्तु मेरे तृषार्त चित्त को ऐसा कुआँ मिला जिसका पानी कब का सूख चुका था। वह जब से आश्रम में आयी तब से ही आजन्म मौनव्रत-धारिणी बन गई थी। उस निर्विकार चेहरे पर मुझे इतने वर्षों बाद देखने पर भी आनंद की एक भी रेखा नहीं उभरी। यद्यपि मेरे आतिथ्य में उसने त्रुटि नहीं की। थोड़ी ही देर में मिट्टी के भाँड में दूध, केले के पत्तों में कुछ कटे फल लाकर एक संन्यासिनी हम दोनों के सम्मुख रख गई।

'माताजी अन्न नहीं खातीं," उसी ने कहा, “आप कहें तो बाहर से कुछ मँगवा दिया जाए?"

नहीं, वे कटे फल भी तो मेरे गले के नीचे नहीं उतर रहे थे। जिसके विच्छेद ने उसे असमय ही बैरागिनी बना, सिर मुंडा हाथ में खप्पर थमा दिया था, वह दगदगाता मेरे सामने बैठा आश्चर्य से मुझे एकटक देख रहा था, जैसे कुछ-कुछ पहचान रहा हो। सामने वोदका की बोतल धरी थी और पार्श्व में थी अपूर्व सुन्दरी सहचरी-हलके नीले रंग की वेंकटगिरी साड़ी के ऊपर दामी भड़कीला रूसी शॉल, कानों में झूल रहे लंबोतरे साइबेरियन ऐंबर के लोलक झाड़फानूस की इन्द्रधनुषी आभा में लाल-पीले अंगारों-से दहक रहे थे। ओठों पर यत्नांकित गहरी लालिमा, आँखों के नीचे हरा प्रलेप-फिर भी उस लेप-प्रलेप की बखिया उधेड़ उस विस्मृत चेहरे को पहचानने में मुझे समय नहीं लगा।

यह तो नंदी है-वही जिसे ब्याहने वह बरात गई थी और फिर कभी नहीं लौटी। तब क्या किसी प्रेतशिला को दूर पटक इन दोनों की प्रेतछायाएँ ही मुझे ऐसे घूर रही थीं?

इस बार पार्श्व-संगिनी से कुछ कह वह व्यक्ति मेरी ओर चला आया, "क्षमा कीजिएगा, पहले मैं आपको पहचान नहीं पाया-एकदम ही बदल गई हैं आप!" वह खिसियानी हँसी हँसा।

“पर आप तो नहीं बदले, मैंने आपको देखते ही पहचान लिया, वह नंदी है न?"

उसका चेहरा फक् पड़ गया। मैंने आज तक किसी चेहरे में ऐसा आकस्मिक परिवर्तन नहीं देखा। क्षण-भर पूर्व का लाल दमकता चेहरा किसी मुर्दै के चेहरे-सा रक्तहीन पड़ गया। देखते-ही-देखते उस जानलेवा ठंड में भी उसके ललाट पर पसीना छलछला उठा, "आप उन्हें जानती हैं क्या?"

“जानूँगी क्यों नहीं? कभी हम तीनों एक ही थे-मैं, रमा और नंदी। पर शायद नंदी ने भी आप ही की भाँति मुझे नहीं पहचाना!"

"आइए, आइए, बहुत खुश होगी आपसे मिलकर। आज बड़े भाग्य से तो स्वदेश का चेहरा देखने को मिला है।"

मैंने देखा, उसकी पुष्ट सघन रेशमी मूंछों से लेकर सतर चाल के लटके की एक भी लखौरी ईंट नहीं खिसकी थी। आदमी है या लालकिला! किसी ताबूत में बन्द था क्या अब तक?

कहीं सचमुच प्रेत ही तो नहीं था अभागा!

मैं उठकर उसके साथ की मेज तक गई, “नंदी, नहीं पहचाना मुझे?"

वह फिर भी मुझे उसी रिक्त दृष्टि से देखती रही। फिर उसने पहचान लिया, “अरे, तुम यहाँ कैसे आ गईं? सच, नहीं पहचान पायी पहले, कैसी मूर्ख हूँ मैं। पर देख न, चालीस साल भी तो बीत गए और इन चालीस सालों में हम एक बार भी तो पहाड़ नहीं जा पाए। जाती भी तो क्या मुँह लेकर?"

वह सहसा उदास हो गई।
 
"पूरा वंश ही तो निर्वंश हो गया इनका। विधाता ने हम दोनों को न जाने कैसे बचा लिया! बड़ी लम्बी कहानी है। सुनाने को भी जी नहीं करता, लगता है फिर वही सब देख रही हूँ। वहाँ से सीधे यहीं चले आए थे। कुछ साल मास्को में रहे, अब यहीं बस गए हैं। पूरे पैंतीस साल बीत गए हैं यहाँ। मैंने तो कई बार इनसे कहा, एक बार घर चलो। कहने लगे, अब घर है ही कहाँ? अम्मा पहले ही हार्ट की मरीज थीं, उस आघात से बची होंगी अब तक? मैं कहती हूँ, जिठानी तो हैं, आखिर तुम्हारी भाभी हैं, तुम्हारी माँ की जगह ही तो हैं अब! भगवान् ने संतान तो दी नहीं, टिपुली-टापुली-से हम ही हैं दो प्राणी, उन्हें यहाँ ले आएँगे। पर ये मानें तब न!"

मेरा सिर चकराने लगा-यह क्या कह रही थी नंदी! मैंने कनखियों से देखा, उसका सहचर वोदका की पूरी बोतल रिक्त कर चुका था। उस उग्र आसव का उत्कट नशा उसकी आँखों में उतर आया था। न जाने किस उत्तेजना से वह दोनों हाथों से रिक्त बोतल को बजा रहा था। तब क्या उसने नंदी से विवाह कर लिया था? नहीं तो वह रमा को उसकी भाभी क्यों कह रही थी? तभी मैंने देखा, मेरे साइबेरियन मेजबान मुझे इधर-उधर खोज रहे हैं। मैंने उन्हें हाथ के इशारे से आश्वस्त किया कि मैं आ रही हूँ और उठ गई।

“मैं चलूँ," मैंने कहा।

"यह क्या, आप कैसे जा सकती हैं?" वोदका का नशा उसकी लटपटी जबान पर उतर आया था, “नो-नो, यू कांट-आज तो आप हमारी अतिथि होंगी।"
"नहीं, मुझे कल एक लेखकीय गोष्ठी में जाना है और फिर रात दो बजे की फ्लाइट से मॉस्को लौटना है।"

“नो-नो" कहता उप्रेती अविवेकी अधैर्य से मेरा मार्ग अवरुद्ध कर खड़ा हो गया, जैसे मुझे बाँहों में बाँधकर रोक लेगा। मैं बुरी तरह घबड़ा गई। आसपास की मेजों पर जुटे लोग हमें कौतूहली दृष्टि से देखने लगे थे।

“मुझे क्षमा करें," कह मैं बड़े कौशल से उस चक्रव्यूह से निकल तीरसी छिटक गई।

रात-भर फिर उस बियावान होटल के मखमली गद्दे पर मैं अनिंद्र करवटें बदलती रही। बार-बार मुंडितकेशा, गैरिकवसना रमा के विषण्ण चेहरे की स्मृति मुझे विदग्ध करती रही। उप्रेती की सचेतन निष्ठुरता को मैं क्षमा नहीं कर पा रही थी। वह विधुर होता और दुर्घटना में मृत छोटे भाई की स्पर्शकातरा, अक्षत कौमार्य संतती विधवा को ब्याह लाता तो मेरे हृदय में उसके लिए श्रद्धा होती। पर यह क्या, रमा को जानबूझकर वैधव्य की मरीचिका में भरमा, उसे इस विलासपूर्ण जीवन को जीने का क्या अधिकार था? और विधाता का भी यह कैसा न्याय था कि विधवा सधवा बनी सौभाग्य का भरपूर सुख भोग रही थी, और सधवा वैधव्य का दारुण दुख झेल रही थी-एक थी मुखर, दूसरी मौन।

'संतान सुख तुम्हें मिल भी कैसे सकता था उप्रेती ?' मैं मन-ही-मन कहने लगी।

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