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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


"आपने अपने बेटे का विवाह कर दिया है?"
 
“जी हाँ, वहीं पर तो मेरी बहू खड़ी थी।"

"कब किया विवाह?"

“दो महीने पहले।"-मेरे ससुर का अपराधी स्वर मैंने ठीक ही सुना।
 
“यू आर ए फूल," कह डॉक्टर तेजी से सीढ़ियाँ उतर गए।

मैं समझ गई-फरमान तो यहाँ भी फाँसी का ही मिला, हाँ शायद उनकी मृत्युंजयी औषधि और पहाड़ों की हवा फाँसी की तारीख कुछ और बढ़ा सकती थी।

वही हुआ-पहली सूई लगते ही प्रतुल की आनन्दचटुलता फिर लौट आई, वह एक बार फिर कैमरा निकाल मेरी तस्वीरें लेने लगा। कभी मासी को जलाने उन्हीं की उपस्थिति में, मुझे बाँहों में भर, अधीर प्रणयी बन, उन्मत्त हो चूमने लगता, कभी उनके ना-ना कहने पर भी दिन डूबे घुमाने खींच ले जाता। उसकी बेतुकी फरमाइशें मुझे कभी धैर्यच्युत कर देतीं।

“वह साड़ी पहनो, उसके साथ माँ का अनन्त, वह झुमके, वह हार-" कभी कहता-“नहीं, वह लाल पाड़ की गरद पहन बड़ा-सा सिन्दूर का टीका लगाकर ऐसे खड़ी रहो, नहीं-नहीं ऐसे-"

लगता था, वह मुझे बहुरूपिया बना अपने एक-एक अरमान पूरे करना चाहता था।

सच कहती हूँ, वह कल्याण हाउस जो मुझे पहली दृष्टि में बेहद मनहूस लगा था, वही सहसा मेरे लिए ताजमहल बन उठा। मैं जानती थी कि स्वर्णघट में छलकते अमृत की वह यूंट, मेरे लिए क्षणस्थायी ही रहेगी, किन्तु जब तक अमृत है, क्यों न छककर अघा लूँ। आश्चर्य होता है कि हम दोनों के निर्दोष हृदयों में शैशव की निर्दोष अकपट प्रेम की कैसी स्निग्धता थी, कभी किसी क्षण भी हमारे बालसुलभ हृदय वासनादग्ध नहीं हुए-पता नहीं विधाता ने ही हमें इस संयम का अपूर्व दान देने का आग्रह किया था या स्वयं हम दोनों का विवेक ही हमें कवच-सा सेंत रहा था। पर फिर जैसे-जैसे समय बीतता गया प्रतल में एक विचित्र परिवर्तन मझे सहमाने लगा-कभी-कभी वह मझे ऐसे देखने लगता, जैसे मुझमें कुछ नयापन देख लिया हो, बाँहों में लेता तो लगता भींचकर कीमा बना देगा-एक दिन, रात्रि के सन्नाटे में उसने सहसा से दौड़कर आया हो।

"क्या हुआ प्रतुल, तबीयत तो ठीक है ना?" मैंने घबड़ाकर उसके सशक्त बाहुपाश से अपने को छुड़ाने की चेष्टा की। उस दुर्बल देह में कहाँ से आ गई थी वह शक्ति ?

"आर पारछिना तिला, आर जे पारछिना।"

(अब नहीं सहा जाता तिला-नहीं सहा जाता।)

समझ गई मेरे कपोलों का दाह स्वयं मुझे ही तपा गया–पर फिर उस तृषाक्त क्लान्त पथिक के अधरों तक शीतल जल से लबलबाता जलपात्र ले जाकर भी मैंने बड़े छलबल से खींच लिया।

मैं जब दस साल की थी, मेरा ऐपेंडिक्स निकाला गया था। जब मैं पानी-पानी की रट लगा चीखने लगती तब माँ मुझे गोद में लेकर सांत्वना देती-“ना आभार सोना जल दिते नेई, डॉक्टर बारन करछेन"-(नहीं नेरी लाड़ो, पानी नहीं देना है, डॉक्टर ने मना किया है।) ठीक उसी वात्सल्य से मैंने उसे छाती से लगाकर समझाया-“नहीं प्रतुल, नहीं-" मैं नहीं चाहती थी कि हमारा यह असंयम, हमें सदा के लिए एक-दूसरे से विलग कर दे-आज्ञाकारी विनम्र बालक-सा ही वह फिर मेरी छाती में मुँह छिपाकर सो गया, यद्यपि मैं जान गई थी कि वह सो नहीं रो रहा है।

एक दिन हम सोना मासी को बिना बताए ही चुपचाप घूमने निकल गए, उनसे कहते तो या तो स्वयं हमारे साथ हो लेतीं या एक-दो लाठीधारी नौकरों को साथ भेज देतीं। कल्याण हाउस से एक सर्पिल पगडंडी, सीधी उस ऐतिहासिक वृक्ष तक जाकर विलीन हो जाती जिस पर कभी मृत्युदंड पाये कैदियों को फाँसी दी जाती थी। उसी से कुछ दूरी पर थी लौह-शृंखलाओं से घिरी, वीरगति को प्राप्त हुए, दो विदेशी सैनिक अफसरों की कब्र 'कर्क ऐंड टैप्ले'।

हमारे भाग्य से ही मेल खाता, ऐसा दुर्लभ एकांत हमें और कहाँ जुटता? देवदार के सघन झुरमुट में वर्षों से चिरनिद्रा में सुप्त अपने स्वदेश से बहुत दूर वे दो विदेशी और असंख्य फाँसियों का मूक साक्षी वह अपराधी वृक्ष। हम थककर बड़ी देर तक वहीं बैठे रहे, प्रतुल मेरी गोद में सिर धरकर लेट गया था-“आहा, कैसी शान्ति है यहाँ, कैसा सुख! बेटा यम भी मुझे अब यहाँ नहीं ढूँढ़ पायेगा।"

“चुप, जब देखो तब ऐसी अशुभ बातें।"

"क्यों इसमें अशुभ कौन-सी बात कह दी मैंने? ठीक ही तो कह रहा हूँ, न सोना मासी की बड़बड़ाहट न बाबा का गर्जन, तर्जन, न सुई, न दवा न चौबीसों घण्टे मुँह में ठूँसा जा रहा थर्मामीटर-बस हम दोनों-जानती हो तिला..." वह फिर एकाएक चुप हो गया।

"चुप क्यों हो गए-कहो ना..."

"तू डाँटेगी-"

“लो और सुनो-कब डाँटा है जी मैंने-कह डालो-मैं कसम खाती हूँ कुछ नहीं कहूँगी।"

'मुझे लगता है-इन्हीं विदेशियों की तरह मुझे भी अपनी जन्मभूमि की धरणी कभी नहीं जुटेगी-यहीं सो जाना होगा मुझे-"

मैंने उसे कसकर पकड़ लिया।

"नहीं-नहीं,” मैं ऐसे तिलमिलाकर चीख उठी जैसे यम उसे सचमुच ही खींचे लिए जा रहा हो।

“ओरे बाप रे-अँधेरा हो गया, आज खैर नहीं, उड़नचंडी सोना मासी, झाडू लेकर बैठी होगी-चल-चल-अँधेरा हो गया है-"

हम भूल ही गए थे कि घर से निकले हमें घण्टों बीत गए हैं। उधर पूरा घर न जाने कब से लालटेन लेकर हमें कहाँ-कहाँ ढूँढ़ आया था-बरामदे में पैर रखा ही था कि सोना मासी ने लपककर मेरा जूड़ा पकड़ लिया। “राक्खूसी मेरे फैलवी खोका के," (राक्षसी मार डालेगी खोका को) और फिर, मेरे ससुर, दिया और मेरा सिर दो-तीन बार उस पथरीली दीवार पर टकराकर बोलीं"लज्जा नेई तोर फ़ड़ी?" (तुझे शर्म नहीं आती छोकरी?)

तब तक मुझे किसी ने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ था-जीवन में पहली बार किसी ने मुझ पर हाथ उठाया था। मैं सम्हलती इससे पहले ही उन्होंने अपनी मर्दानी मुट्ठी से मेरी पीठ पर दनादन कई धौल जमा दिए-“कहाँ ले गई थी इसे, बोल-बोल" तब ही प्रतुल ने मासी को धक्का देकर दूर ढकेल दिया और मेरे सामने ढाल बना खड़ा हो गया-“खबरदार जो इसे कुछ कहा। वह मुझे नहीं ले गई मैं ही उसे ले गया था-शर्म तो तुम्हें आनी चाहिए मासी, मेरे ही घर में मेरी पत्नी पर हाथ उठाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हें?"

मैं अपने शान्त-सौम्य, किसी से कभी कुछ न कहनेवाले पति का यह रौद्र रूप पहली बार देख रही थी।

मेरे ससुर चुपचाप बैठे थे, जैसे साँप सूंघ गया हो, नौकरों की भीड़ सहमकर स्वयं छंट गई-सोना मासी पहले तो कुछ क्षण हतप्रभ-सी खड़ी रहीं फिर आँचल में आँखें ढाँप जोर-जोर से रोने लगीं-“देख छो छलेर कांड-नतुन बउएर जन्य की माया! ये मागी मानूष कर लो, ले जाक चुलोय-" (देख रहे हो लड़के का काण्ड ? नई बहू के लिए कैसी माया और जिस हरामजादी ने पाला-पोसा, वह जाये चूल्हे में)।

उस रात फिर लाख मान-मनुहार करने पर भी प्रतुल ने खाना नहीं खाया, मैं भी भूखी ही सो गई। कुछ घण्टों पूर्व जो सहसा निरोग होकर आनन्द की फुलझड़ियाँ बिखेर, मुझे हँसा रहा था, वह एकाएक गुमसुम होकर पड़ा था।

"क्यों परेशान हो रहे हैं प्रतुल, सोना मासी का तो स्वभाव ही ऐसा है, मुझे तो अब आदत पड़ गई है, मुझे बुरा नहीं लगता।" मैंने कहा तो वह अब तक दबाए गए क्रोध को दबा नहीं पाया-“तुम्हें बुरा नहीं लगता होगा, मुझे लगा है-तीन कौड़ी की औरत, हमारे ही टुकड़ों पर पल रही है और तुम पर हाथ उठाया उसने?" उसका उत्तेजित स्वर सहसा ऊँचा हो उठा। मैंने घबड़ाकर उसका मुँह ढाँप दिया। सोना मासी को मैं जानती थी--बन्द दरवाजों से कान सटाए, छिपकर सुनना उनकी आदत थी, कहीं सुन लिया तो आधी रात को फिर उसी भद्दे नाटक की पुनरावृत्ति होगी- "चुप करो प्रतुल, धीरे बोलो-सोना मासी सुन लेंगी तो फिर आधी रात को रोना-धोना छेड़ देंगी।"

“छेड़ने दो, मुझे किसी का डर नहीं है अब, तुमसे सबकुछ कहना चाह रहा हूँ-जानती हो माँ पागलखाने कैसे गई? इसी कुलटा के कारण-विधवा होने पर बाबा इन्हें यहाँ ले आए-हरिबाला ने मुझे सबकुछ बताया है-"

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