कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
पिता के नाम से ही मेरी सिसकियाँ और तीव्र हो गईं।
उन्होंने बड़े दुलार-भरे स्वर में कहा, "इस रोग में, संयमी मनुष्य भी विवेक
खो बैठता है, फिर तुम दोनों की तो अभी कच्ची वयस है। नारी से शारीरिक संपर्क,
इस रोग के लिए घातक है। तुम्हें स्वयं भी बचना होगा और उसे भी बचाना होगा
क्योंकि ऐसा सम्पर्क, तुम्हें भी इस रोग की छूत अनायास ही दे सकता है और उसके
लिए तो यह भूल, निर्घात मृत्यु ही सिद्ध होगी-"
उसी दिन मेरी पलँग प्रतुल के कमरे में फिर क्यों लगा दी गई, यह बहुत बाद में
समझ में आया। शायद मृत्युपथ के पथिक से भी, मेरे कसाई ससुर वंशधर की आशा लगाए
बैठे थे।
पहली बार मैंने अपने पति को देखा तो उनकी कन्दर्प कांति देखती ही रह गई थी।
छाती पर दोनों हाथ धरे, वह गहरी नींद में सो रहा था, नवदूर्वादलतुल्य
देहकान्ति, बचकाने चेहरे पर मूंछों की क्षीण रेखा, लड़कियों की-सी रेशमी
लम्बी पलकें और रोगजीर्ण निमग्न कपोलों पर, उस राजरोग की रक्तिम आभा की
मरीचिका, वह तो बहुत बाद में कहीं पढ़ा था कि इसे ही ट्यूबरक्युलर फ्लैश कहते
हैं। मैं बड़ी देर तक खड़ी रही-वह तो सो रहा था, मुझे बैठने को कहता ही कौन।
मुझे कमरे तक मासी ही पहुँचा गई थीं-'देख दूंड़ी, खोका घुमाच्छे, ओके विरक्त
करीशना।" (देख छोकरी, खोका सो रहा है, उसे परेशान मत करना)
यही हृदयहीन सीख मुझे मेरी विलंबित फूल-शय्या के दिन मिली थी।
सहसा वह स्वयं ही जग गया और हड़बड़ाकर बैठ गया, फिर मधुर स्वप्नाविष्ट अलस
हँसी के साथ उसने मेरा हाथ पकड़कर, अपने पास बिठा लिया। कितने दुबले हाथ थे
उसके और कैसा क्लांत-श्रांत चेहरा। विदेश से, नित्य ही तो औषधियों के पार्सल
मँगवाए जा रहे थे, कैसी-कैसी सूइयाँ किन्तु, दोनों फेफड़ों का एकछत्र सम्राट
बना क्षयरोग, ठेल-ठेलकर औषधियों को निरन्तर पराजित कर रहा था।
"कितनी सुन्दर हो तुम तिला, जानती हो न, मैंने शुभदृष्टि में भी नहीं देखा।
आँखें बन्द कर ली थीं।"
"मैंने भी तो नहीं देखा, मैंने भी आँखें बन्द कर ली थीं।"
और हम दोनों एकसाथ किसी शैतानी में पकड़े गए निर्दोष बालकों-से ही ठठाकर हँस
पड़े थे।
फिर रात-भर कितने अन्तहीन प्रश्न पूछे गए, कितने सरस उत्तर। लग रहा था
जन्म-जन्मांतर से अटूट मैत्री में बँधी, वर्षों से बिछुड़ी दो अतृप्त
आत्माएँ, सहसा फिर युग्म हो गई हैं। दूसरे दिन उठकर जाने लगी तो प्रतुल ने
हाथ पकड़कर खींच लिया-"नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगी, यहीं रहोगी दिन-रात मेरे
पास-"
'छिः, क्या कर रहे हो, सोना मासी क्या कहेंगी?''
“कहने दो उन्हें, पहले वे अपना चेहरा तो दर्पण में देख लें।"
मेरा कलेजा धक रह गया-तब क्या वह भी वही दृश्य देख चुका था, जो मैंने देखा
था! फिर वह बच्चे-सा मचल उठा-
“अच्छा एक शर्त पर जाने दूंगा-पहले अपना जूड़ा खोलकर दिखाओ, हरिबाला कह रही
थी तुम्हारे बाल अजगर से भी लम्बे हैं।"
स्वयं ही फिर उसने मुझे पास खींच, अनाड़ी हाथों से मेरा जूड़ा खोल दिया।
छहराई घनघटा-से मेरे जूड़े से उन्मुक्त बाल, उसकी गोद में बिखर, पलँग से नीचे
झूल गए।
उसकी आँखें फटी की फटी ही रह गईं।
“अरे बाप रे, बाल हैं या नाएग्रा फॉल्स? ऐसे ही बैठी रहना तिला, मैं अपना
कैमरा निकाल लाऊँ?"
फिर वह अपने सूटकेस को उथल-पुथल कर अपना कैमरा निकाल लाया, महाउत्साह से उसने
मेरी एकसाथ कितनी ही तस्वीरें खींच डालीं, कौन कहेगा वह बीमार था। उसके बाद
उसके स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन स्पष्ट हो उठा। पिचके गाल भरने लगे,
आँखों में अनोखी चमक आ गई और जो अनिच्छा से थाली दूर खिसका देता था, वही अब
नित्य नवीन खाने की फरमाइशें करने लगा। कभी कहता, नीम-बेगुन घटवाले बाटा
बनाओ, कभी लाऊर डांठा दिए मटोर डाल (लौकी के डंठल पड़ी मटर की दाल), कभी घर
के घी सने भात पर ढेर सारा मौरला माछ का झोल, कभी नतुन गुड़ की पायस और कभी
मुगलई पराँठा। लोग कहने लगे-“बहू का पैर बड़ा शुभ पड़ा है माधव बाबू, अब झटपट
एक खासी दावत दे डालिए-"
“अरे रुको भाई, एकसाथ ही दावत दूँगा वह भी ऐसी कि जिन्दगी-भर याद करोगे-वंशधर
को तो आने दो पहले--"
पर वंशधर आएगा नहीं, वंशधर जाएगा-यह कटु सत्य अन्त तक वे ग्राह्य नहीं कर
पाए-मुझे द्विरागमन के लिए लेने ममेरा भाई आया तो उसे यह कहकर लौटा दिया गया
कि हम सब पहाड जा रहे हैं. बह अभी नहीं जा सकती। प्रतुल क्या मुझे एक पल भी
छोड़ सकता था? अब तो वह मेरा ही गाने सुनाता चला जाता। अत्यन्त मधुर कण्ठ था
उसका, एके बारे मेयेला गला (एकदम लड़कियों का-सा कण्ठ स्वर) एक गाना मैं उससे
बार-बार सुनती-
तोर मनेर मानुष ऐलो द्वारे
मन जखन जागली नारे
(तेरे मन का मानुष तेरे द्वार पर आया था, पर अरे मन, तो जागा ही नहीं-)
बीच-बीच में सोना मासी, अधैर्य से द्वार भड़भड़ा जाती-“लज्जा नेई छूडीर? शेषे
गिले फेलवी खोकाके? दिन दुपूरे जत सब नाटक छिछि! शेषे गिले फेलवी खोकाके? दिन
न दुपूरे जत सब नाटक छिछि!" (लज्जा नहीं है छोकरी? अन्त तक खोका को निगल ही
जाएगी क्या? भरी दुपहरी में यह सब नाटक, छिछि) और मासी को चिढ़ाने, बन्द
द्वार से ही प्रतुल बेहयायी से हाँक लगाता-“अरी ओ मासी, एक-दूसरों को निगल ही
तो रहे हैं हम, तुम्हें कोई आपत्ति है क्या?" और गुस्से में पैर पटकती, धम-धम
कर मासी अपने कमरे में चली जाती।
पूरा महीना ही आनन्द-उल्लास में न जाने कब बीत गया, इस बीच प्रतुल को एक दिन
भी बुखार नहीं आया। उसकी बीमारी, हमारे लिए एक विस्मृत दुस्वप्न बन गई थी।
ठीक जैसे फाँसी से पूर्व कैदी की एक-एक इच्छा पूरी कर दी जाती है वैसे ही
शायद नियति हमारी एक-एक फरमाइश पूरी कर रही थी। तब ही विधाता ने पहला थप्पड़
मारा। प्रतुल को एक रात, अचानक खाँसी का विकट दौरा पड़ा, साथ ही रक्त का एक
थक्का तकिया पर गिरा-उसने निढाल होकर आँखें मूंद लीं, तत्काल डॉक्टर बुलाए
गए। सूई लगी, दवा दी गई, उसने उठकर एक प्याला चाय भी पी किन्तु बुखार नहीं
उतरा।
"जितनी जल्दी हो सके, पहाड़ ले जाइए," डॉक्टरों ने राय दी।
तब भुवाली सैनेटोरियम ही ऐसे रोगियों की मक्का-मदीना थी-किन्तु प्रतुल ने साफ
मना कर दिया-वह अन्य रोगियों के साथ नहीं रहेगा-हारकर राखाल बाबू अल्मोड़ा के
उस बंगले को बुक कर आए। रातोंरात फर्स्टक्लास के चार टिकट खरीद लिए गए-मैं,
प्रतुल, सोना मासी और मेरे ससुर। साथ में थे दो नौकर-नौकरानियाँ, गर्म
कपड़ों से भरे सूटकेस, दर्जन-भर थर्मस, दवाओं से भरी टोकरियाँ और लिहाफ
कम्बल।
प्रतुल को एक ही रक्तवमन निस्तेज कर गया था। एक दिन उसने मेरा हाथ पकड़कर
छाती पर धर लिया, फिर दीवार की ओर मुँह फेर, एक दीर्घश्वास लेकर कहने
लगा--"तिला, आज से तुम सोना मासी के कमरे में सोना-"उसका क्षीण स्वर
अश्रुसिक्त है, यह मैं समझ गई, पागल की तरह मैंने दोनों हाथों से उसका चेहरा
अपनी ओर किया और उसकी छाती पर सिर रखकर जोर से रो पड़ी-"क्यों कहा तुमने ऐसा,
क्यों? क्या मैं तुम्हें अब अच्छी नहीं लगती?"
"पगली, तू मुझे कितनी अच्छी लगती है, यह भी क्या मुझे बताना होगा?
अच्छी लगती है तिला, बहुत अच्छी तब ही तो कह रहा हूँ।"
"नहीं, मैं यहीं सोऊँगी, खबरदार जो कभी ऐसी बात जबान पर लाए"-पूरी ट्रेन
यात्रा में वह मेरा हाथ थामे-चुपचाप भयत्रस्त दृष्टि से कम्पार्टमेन्ट की छत
को निहारता रहा। जैसे उसे भय हो रहा था, कहीं मेरा हाथ छूटा तो, मृत्यु उसे
मेरी सौत बनकर खींच ले जाएगी-'कल्याण हाउस' पहुँचे तो किसी अज्ञात अमंगल की
आशंका मुझे त्रस्त कर गई-कैसा भुतहा बँगला था, हिले दरवाजों की दरार से आती
साँय-साँय करती हवा, जनशून्य अरण्य और एक अजीब दमघोंटू उदासी, लगता था
दीवारों में भी दवाओं की दुर्गंध ईंट-गारे-चूने के साथ रिस-बस गई है। उन
दिनों वहाँ क्षयरोग विशेषज्ञ एक प्रख्यात डॉक्टर रहते थे, डॉ. खजानचन्द्र,
उन्हीं का नाम सुनकर मेरे ससुर प्रतुल को उतनी दूर लाये थे, सुना था कि वे
मुर्दे में भी जान डाल देते हैं। उन्होंने आते ही प्रतुल के अंजरपंजर खटकाए,
ऐक्स-रे देखे, कुछ दवाएँ लिखीं और जब मेरे ससुर उन्हें पहुँचाने सीढ़ियाँ उतर
रहे थे तो छिपकर मैंने भी उनकी बातें सुन लीं।
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