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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


हरिबाला माँ के साथ ही उनके मायके से आई थी, गृह-भर में एक वही थी जिसे हम दोनों से सच्चा लगाव था-"चौबीस वर्ष की थी यह चुडैल-माँ से कुल सवा बरस छोटी-पहले भी माँ को फिट पड़ते थे-घण्टों तक बेहोश रहती थी पर वह पागल नहीं थी-इन दोनों ने ही मिलकर उसे पागल बनाया।"

"बस चुप भी करो प्रतुल, तुम्हें बहुत उत्तेजित होना मना है ना?"

"क्या-क्या मना नहीं है मुझे?"-वह हाँफता-हाँफता बैठ गया।

“घूमना मना, गाना मना, सबकुछ मना। पत्नी मेरे लिए सदा ऐसी गुड़िया रहेगी जिसे बड़े यत्न से सहेजकर रखना होगा जीवन-भर। क्यों आईं तुम मेरे जीवन में क्यों सबकुछ जानकर भी प्राण रहते ही सती बनने का शौक चर्राया तुम्हें? क्या तुम्हारी जबान नहीं थी, मना नहीं कर सकीं तुम? बोलो, बोलो, जवाब दो।"

वह ऐसा कभी नहीं करता था, मुझे जोर-जोर से झकझोरने लगा था वह।

“क्या जवाब दूं प्रतुल," मेरा शांत स्वर मुझे स्वयं ही अनचीन्हा लग रहा था--"हमें कुछ भी पता नहीं था, न माँ को न बाबा को न स्वयं मुझे।"

“तुम्हें पता होता तो क्या तुम मना कर देगी?" उसका अधीर स्वर कितना करुण था, कितना नैराश्यसिक्त, जैसे मेरे उत्तर पर ही उसके प्राण अटके हों।

"नहीं"-मेरा दृढ़ स्वर, मेरी गहनतम सच्ची भावना से पगा, स्वयं मेरे मुँह से निकल गया था।

वह मेरा चिबुक थाम, आश्चर्य से मुझे देखने लगा, जैसे मेरी आँखों की पुतलियों में मेरे उत्तर की पुष्टि चाह रहा हो-फिर बिना कुछ कहे उसने अपने तप्त अधर मेरे ललाट पर धर दिये।

दो दिन तक फिर हम दोनों कमरे से बाहर नहीं निकले-बाबा और सोना मासी शायद जान गए थे कि उन्होंने बेटे को बेहद नाराज कर दिया है।

तीसरे दिन ही मेरी कालरात्रि मेरा जीवन उलट-पुलट देगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। दिन-भर प्रतुल ठीक रहा, बुखार भी सामान्य था, खाँसी भी नहीं, उस पर, मूड अचानक ही पूर्ववत् हो गया था-बड़ी देर तक हम दोनों ताश खेलते रहे फिर वह कहने लगा, "तिला, आज शाम फिर वहीं घूमने चलेंगे।"

“क्यों, मेरा सिर फुड़वाकर मन नहीं भरा क्या?"

उसकी आखों में चुलबुली तरंगें मुझे सहसा भय से सहमा गईं-अब इसने अपना यही संकल्प दुहराया तो मैं क्या रोक पाऊँगी उसे? यौवन के उद्दाम वेग में तो हम दोनों ही तिनके-से बहे जा रहे थे-किन्तु, नारायण के मन तो कुछ और ही था, दिन डूबते ही उसने कहा-"तिला, गरम चादर ओढ़ा दो मुझे, ठण्ड लग रही है।"

वही ठण्ड फिर न गरम चादर से शान्त हुई, न मोटे-मोटे लिहाफ-कम्बलों से। रात हुई कि वह तेज बुखार में अंडबंड बकने लगा।

"कर्क एंड टैप्ले एंड प्रतुल भट्टाचार्य तीनों एकसाथ सोये हैं यहाँ-मेरा गर्म कोट तो निकाल दो तिला-तुम भी शॉल ओढ़ लो, टार्च ले लेना, हमें लौटने में देर होगी-

“माँ-माँ, कहाँ हो तुम? आओगी नहीं कभी?” मेले में खो गए किसी व्याकुल अबोध शिशु-सा वह करुण स्वर में अपनी विस्मृता जननी को पुकारने लगा तो मेरी आँखों से झरझर आँसू बहने लगे, “मैं जा रहा हूँ माँ, आओगी नहीं?" उसका यही प्रलाप मुझे भय से कँपा गया. मैं अपने ससुर और सोना मासी को बुला लाई-नौकर-नौकरानियाँ सबने भीड़ लगाकर छटपटाते प्रतुल की पलँग घेर ली-सुबह होने के कुछ पहले उसे फिर उसी खाँसी का विकट दौरा पड़ा-टी.बी. रोगी की खाँसी सुनी है कभी? ठक-ठक-ठक-ठक, जैसे कोई गर्म लोहा पीट रहा हो-उसे फिर अचानक होश आ गया-यक्ष्मा रोगी को अंत तक चेतना बनी रहती है, यह कहीं सुना था-उस दिन देख भी लिया-

"तिला, तिला, कहाँ हो तुम?"

"मैं यहाँ हूँ प्रतुल"-मैंने बढ़कर उसका हाथ थाम लिया-

"नहीं, मुझे कुछ भी नहीं दिख रहा है"-मैं काँप उठी, बाबा कहते थे, जब आँखों में प्रकाश नहीं दिखता तो समझना चाहिए मृत्यु निकट है-“घोषं न श्रृणुयात् कर्णो, ज्योति नेत्रे न पश्यति।"

"तिला, बोलती क्यों नहीं, आती क्यों नहीं मेरे पास आओ, एक बार तुम्हें छाती से लगा लूँ," उसने शून्य में अपनी सींक-सी दुबली बाँहें फैला दीं।

मैं बोल रही थी-“यहाँ हूँ मैं प्रतुल।" वह सुन नहीं पा रहा था, मैं हाथ थामे खड़ी थी-वह मुझे देख नहीं पा रहा था, ससुर, मासी, नौकर-नौकरानियों की उपस्थिति में कैसे उसकी बाँहों में सिमट सकती थी मैं-फिर खाँसी का वेग बढ़ा और फक्क से काले जमे रक्त का थक्का तकिया पर बिखर गयाउसी क्षण पलटी पुतलियाँ और भिंचे दाँतों को देख सोना मासी पछाड़ खाकर उसकी निष्प्राण देह पर गिर पड़ीं-“खोका, खोका रे-कोथाय गेली रे"-मेरे ससुर निश्चेष्ट-हत्बुद्धि खड़े थे-पलक मारते ही उनका वंशधर उन्हें अँगूठा दिखाकर चला गया।

मासी के एक-एक विलाप में, मुझ पर अजस्र गालियाँ बरस रही थीं- “राक्षसी खा गई हमारे वंश को, इसी ने चूस लिया उसका रक्त, कलेजा निकालकर चबा गई चुडैल, अपया, राक्खूसी।" मैं पत्थर बन गई थी-वहाँ होकर भी मैं बहुत दूर चली गई थी, बहुत दूर-सुबह होते ही अनजान प्रतिवेशी, सगे बिरादर बने खड़े हो गए। उन्हीं ने प्रतुल की महायात्रा का साज-सरंजाम जुटा दिया-रामनाम सत्य के बीच हमारे दोनों नौकरों का उच्च स्वर मेरे कानों में आ रहा था-'बोलो हरि-हरिबोल' उस परदेश में भी बेचारे बंगाल को खींचकर लाने का व्यर्थ प्रयत्न कर रहे थे।

मैं अपने कमरे में, जमीन पर पड़ी थी, मेरी चिंता थी ही किसे, ससुराल की नौकरानी हरिबाला ही मेरे सिरहाने बैठी, मेरी पीठ सहलाती रही-फिर उसे भी सोना मासी ने बुला लिया-धीरे-धीरे चार दिन बीत गए-सहसा चौथे दिन, सोना मासी देहरी पर आकर खड़ी हो गईं-“ऐ छूड़ी, तेरे ससुर ने कहा है, हम कल गया जाएँगे-अशान्त आत्मा गई है उसकी, वहीं की प्रेतशिला में पिण्ड देना होगा, तब ही उसे मुक्ति मिलेगी-अपना सामान रख लेना-कल सुबह ही बस चल देगी-" चार दिन से अन्न का दाना भी मेरे मुँह में नहीं गया था, हरिबाला ही जबरदस्ती चाय पिला गई थी-उठने लगी तो पैर काँपने लगे, मैं फिर जमीन पर ही पसर गई।

आधी रात को मैंने पहली बार प्रतुल को सपने में देखा-एकदम रोगमुक्त उज्ज्वल चेहरा, वैसी ही बालसुलभ निर्दोष हँसी, "तिला, भाग जा दूर, कहीं" फिर वह धैर्य से मुझ पर झुका-

“प्रतुल, प्रतुल तुम आ गए हो ना? मैं जानती थी तुम अवश्य आओगे-" फिर अपनी ही बड़बड़ाहट से मेरी चेतना लौटी-पर यह कैसा भार था मेरी छाती पर, 'कौन था यह? प्रतुल, प्रतुल कहाँ से आ सकता था अब?'

मैंने डरकर उठने की चेष्ठा की, शायद चीखने ही जा रही थी कि किसी के बलिष्ठ पंजे ने मेरा मुँह दाब दिया-अपनी दुर्बल देह की पूरी शक्ति लगाकर मैंने उस क्रमशः गुरुतर हो रहे भार को धक्का दिया और अपने ओंठों पर धरे पंजे पर जोर से दाँत गढ़ा दिए।

एक दबी चीख के साथ कोई सम्हलकर उठा-मैंने सिरहाने धरी लम्बी टार्च निकालकर जला दी-और एक पल को लगा, मैं गिर पड़ूँगी।

मेरे सामने मेरे ससुर खड़े हाँफ रहे थे-उनकी दोनों मदमत्त कामातुर आँखों से निकलती वासना की लपटें मुझे लीलने को बढ़ी आ रही थीं।

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