कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
आज से चालीस वर्ष पूर्व तत्कालीन ऊँची-नीची धोतियों की धोबी पछाड़ ने तब न
जाने कितनी सुयोग्य सुकन्याओं के हाथ से ऐसे वर्जित कुल-गोत्र के सुपात्र दूर
छिटका दिए थे। पुत्री के लिए सुपात्र ढूँढ़ने प्रवासी कुमाऊँनी आत्मीय
स्वजनों को पत्र लिखते तो एक पंक्ति अवश्य रहती-“अच्छा सुपात्र देखें, भले ही
दरिद्र हो, पर संबंध अच्छे हों, आप तो जानकार हैं, जानते ही हैं कि हम ऊँची
धोतीवालों के लिए 'द'-'च' वर्जित हैं।"
उधर विधाता भी उन दिनों जान-बूझकर ही एक-से-एक सुपात्रों की शिलावृष्टि
उन्हीं कुलगोत्रों में कर रहा था। ऊँचे सम्बन्धों से सम्बद्ध होने की उत्कट
लालसा ही शायद रमा का सौभाग्य-द्वार खोल गई। रमा का रंग भले दबा हो, पितृकुल
का वर्ण था नौ रत्ती बावन तोले का, फिर वह हाईस्कूल पास थी, उन दिनों किसी
उच्च कुल की कन्या का हाईस्कूल पास होना पहाड़ में उसका बहुत बड़ा गुण माना
जाता था।
भले ही विमाता की सम्भावित कृपणता उन्हें शंकित कर रही थी, पर लड़की की
ननिहाल अनूप शहर में थी। अनूपशहरी मामाओं की भात भरने की ख्याति तब दूर-दूर
तक थी। उस पर दो मामा थे, दोनों ठेकेदार। बुद्धिमान दूरदर्शी उप्रेतीजी ने
मन-ही-मन द्वितीय युद्धकालीन ठेकेदारी का खरा सोना कसौटी पर कस लिया था। उनके
स्वयं तीन लम्बे-चौड़े, उजले चिट्टे, कामदेव-से ऐसे बेटे थे जिन्हें देख
सचमुच भूख भागती थी-उमेश, महेश और दिनेश। कुमाऊँ की धरणी पुरुषों की कद-काठी
में अधिकतर कार्पण्य ही बरतती है, पर उप्रेतीजी के तीनों सपूत तनिक-से लपकने
पर ही आकाश के तारे तोड़ सकते थे। गोरा रंग, चौड़ा ललाट, तीनों की एक ही फौजी
अन्दाज में बिच्छू के डंक-सी उठी ऊर्ध्वमुखी मूंछे और सब समय होंठों पर लगी
कृष्णपक्ष के धूमिल चन्द्रमा-सी सीमित मिंची कृपण मुस्कान। दूर से देखने पर
लगता, एक ही ठप्पे के तीन राजपुत्र चले आ रहे हैं।
जब विवाह हुआ तो पूरे शहर में जैसे सहसा आग्नेय गिरि फट पड़ा था। रमा के पिता
को लगभग जातिच्युत ही कर दिया गया था, न कोई बरात की अगवानी में पहुँचा, न
विदा में। मुझे भी जाने की अनुमति नहीं मिली थी, “खबरदार जो गई, टाँग तोड़
दूंगी!" अम्मा ने दो दिन पूर्व ही अपनी भयानक चेतावनी दे दी थी। यहाँ तक कि
रमा के पिता के मित्र नाथशाह ने भी, जिनके साथ शतरंज खेलने में उन्होंने बीस
वर्षों में भयानक हिमपात, उग्रवृष्टि की भी सदा अवहेलना की थी, मुँह फेर
लिया। समाज के इस दण्ड से पांडेजी के प्राण कंठागत हो गए थे, उस पर पन्यानीजी
ने उनका उठना-बैठना दूभर कर दिया था-"अभी दो-दो चिहड़ियाँ (पुत्रियाँ) हैं
ब्याहने को। अब कौन ले जाएगा इन्हें? बाप जूठी पत्तल को चाट आया है, अब इन
दोनों के लिए भी ढूँढ़ लो कोई ऐसा ही सुपात्र।"
रमा से विवाह के बाद मैं एक ही बार मिल पाई। खोद-खोदकर ही मैंने उससे उसके
नवीन जीवन की अभिज्ञता उगलवाई थी।
सास-ससुर-देवरों से भरे-पूरे परिवार में रमा की जमकर रैगिंग हुई है, यह मैं
सुन चुकी थी। उसका श्यामवर्ण ही फिर उसका शत्रु बना था। "हमें छोटी बहन दिखाई
गई और बड़ी को टिका दिया, नहीं तो हम क्या उल्लू थे जो जानबूझकर मक्खी
निगलते?" उप्रेतीजी सबसे कहते फिर रहे थे। रमा का पति उमेश पत्नी की साँवली
हथेली देखकर ही बिना मुँह देखे नौकरी पर वापस चला गया था। मैंने यह सब सुना
तो अविश्वास नहीं हुआ। ऐसी ही एक अविश्वसनीय घटना तो स्वयं मेरी ननिहाल में
घट चुकी थी। नानी से वह कहानी हमने न जाने कितनी बार सुनी थी। आज क्या कोई
सोच सकता है कि कोई नववधू का अंगूठा ही देख, बिना चेहरा देखे उसका त्याग कर
सकता है? नानी बताती थीं कि उनके भाई ने भी ऐसी ही मूर्खता की थी। कन्या-दान
के 'गोठ' में पत्नी का साँवला अँगूठा पकड़ते ही भड़ककर उठ गए थे। पर नानी भी
एक ही थीं, वे अधूरी बालिका वधू को अपने साथ लखनऊ ले आईं और एक ही वर्ष में
यूनानी नुस्खों से उसे ऐसा सँवारा, ऐसा संदलीबादामी उबटन घिसा कि रंग निखर
आया। फिर एक दिन अपने उसी भाई 'को बुलाकर कहा, “देख पहली बार भूल हो गई, इस
बार रंग देखकर तेरे लिए एक सुन्दर लड़की ढूँढ़ी है, देखेगा?"
और उन्होंने देखा क्या कि लटू-से घूम गए, “अभी कर दे शादी, जिज्जी!"
काश मुझे भी वे नुस्खे आते!
बेचारी रमा को पति ने अस्वीकार कर दिया, पर ससुराल ने स्वीकार कर लिया। भला
गऊ-सी सीधी, बिना वेतन की ऐसी महरी उन्हें कहाँ मिलती! थोड़े दिनों के लिए
उसे मायके आने की मोहलत केवल इसलिए मिली थी कि पहाड़ में विवाह के बाद पहला
काला महीना लड़की को मायके में बिताना पड़ता है। पर उस बेचारी के जीवन का तो
अब हर महीना काला था। तब ही मैं उससे मिली थी।
“क्या तेरे पति ने सचमुच तेरा चेहरा नहीं देखा, रमा?" मैंने पूछा तो उसने कोई
उत्तर नहीं दिया। तब लोग ठीक ही कह रहे थे कि उप्रेतीजी का बेटा अपनी पत्नी
के कृष्णवर्ण से समझौता नहीं कर पाया और परित्यक्ता रमा उस सम्पन्न गृह में
भी दासी की भाँति खट रही है। उसका चेहरा देखा होता तो वह ऐसी मूर्खता कभी
नहीं कर पाता। नारी का सौन्दर्य भी दो प्रकार का होता है-या तो स्निग्ध और या
फिर उग्र। रमा का आकर्षण उस छायादार वृक्ष का-सा था जिसके तले बैठ क्लांत
पथिक भी अपनी क्लांति भूल-बिसर सकता था। तरल-स्निग्ध-काली भेंवर पुतलियाँ,
नुकीला चिबुक. लम्बी पलकें और ऐसा धीमा कंठस्वर कि दूर बैठी रहने पर मुझे
उसकी बात सुनने सदा उसके निकट खिसकना पड़ता।
दूसरे ही वर्ष उसके देवर के विवाह का निमंत्रण मिला, मैं छुट्टियों में घर
आयी हुई थी। उस बार उतना कठिन अंकुश भी नहीं था। समाज की गतिविधि भी कैसी
विचित्र रहती है। मनुष्य के कठिन-से-कठिन अपराध को भी वह अन्त तक स्वीकार कर
ही लेता है और अपराधी को स्वयं ही जमानत की उदार ढील दे मुक्त कर देता है।
रमा के पिता के अपराध को भी समाज पूर्ण रूप से क्षमा कर चुका था। अब वे
पूर्ववत् अपने शतरंज के अड्डे पर बैठने लगे थे। रमा को देखने के लोभ से ही
मैं वहाँ गई थी। उसकी सास ने बड़े आग्रह से रोक लिया, "हम तुम्हें बिना
रत्याली (रतजगा) देखे नहीं जाने देंगी-कल चार बजे तो बरात आ ही जाएगी। नयी
बहू को देखकर ही जाना।"
दन्या चीनाखान की दक्ष महिलाओं के नृत्यगीत अल्पना की तो ख्याति सुनी ही थी,
उस दिन देख भी लिया। केवल अँगुली के नैपुण्य से चित्रांकित प्रत्येक रेखा का
क्या गजब का संतुलन था और कैसी अचूक सीध! शांतिनिकेतन में नन्दलाल बोस की
पुत्री गौरीभंज की जादुई अँगुलियों का चमत्कार तो देखा ही था जिसके पीछे
कलागुरु पिता की शिक्षा, निष्ठा, अनुभव का दीर्घ इतिहास था। किन्तु कुमाऊँ की
सरल, दस-बारह वर्ष की वयस में ही बहू बनकर आयी इन बड़ी-बूढ़ियों का कलागुरु
था स्वयं विधाता।
मैं जिससे मिलने आयी थी, उसे इतनी फुरसत ही कहाँ थी कि दो घडी मेरे पास
बैठती। कभी चाय के दर्जनों गिलास ट्रे में सजाकर बैठक में भेज रही थी। कभी
मिठाइयों के थाल में चाँदी का वर्क लगा रही थी-“बहू, पान लगाकर कहाँ धरे हैं?
रेजगारी की थैलियाँ कहाँ हैं? अठन्नियों की थैली निकालना जरा! नारियल कहाँ
धरे हैं? वे क्या हमारे हाथ का पैसा ले सकती हैं? पैरों में नारियल धरना
उनके!" एक बड़ी-सी थाली में रोली-अक्षत धर, रमा प्रत्येक ललाट को विभूषित कर
अठन्नी थमाने से पहले संदिग्ध दृष्टि से देखती जा रही थी। कहीं एक बार तिलक
मिटाकर दूसरी बार हाथ तो नहीं फैला रही हैं, चोट्टिन। नित्य की सकुची-सिमटी
एक कोने में बैठी रहनेवाली रमा को मैं जितनी ही बार देख रही थी उतनी ही बार
अवाक् हुई जा रही थी। लगता था लड़की पर किसी ने जादुई घड़ी फेर दी है। एक हाथ
से कामदार लहँगे की भारी गोट सँभालती, बार-बार फिसल रहे रंग्वाली दुपट्टे को
सिर पर साधती वह तकुली-सा नाच रही थी। उस पर रिश्ते की ननदों, देवरानी,
जिठानियों के हँसी-ठट्ठे के नहले पर दहला दागती रमा क्या वही रमा थी जो कभी
विमाता की एक घुड़की से सहमी केंचुए की-सी कुंडली में सिमट जाती थी! मैं समझ
गई। उसने अपने मूर्ख पति का प्रेम निश्चय ही पा लिया था। उसी प्रेम ने उसके
खोये सुप्त आत्मविश्वास को झकझोरकर जगा दिया था। मेरा अनुमान ठीक था, उस भीड़
के बीच मैंने उसे मौका देख निभृत एकांत में खींच ही लिया।
"क्यूँ री बड़े लड्डू फूट रहे हैं आज! लगता है सुलह हो गई, क्यों?"
उसके साँवले कपोल अनुपम व्रीड़ा के अबीर से रँग गए। उसने अपनी बड़ी-बड़ी
आँखें झुका लीं, “कह गए हैं, इस शादी के बाद अपने साथ ले चलेंगे।"
“ला इसी बात पर दो लड्डू और खिला!"
रतजगे में तो रमा का अद्भुत अभिनय देख स्त्रियाँ लोटपोट हो गई थीं। थाल-सी नथ
सँभालती सास ने बार-बार आकर उसकी नज़र उतारी थी।
"लगता है तुम्हारी बहू ने नैनीताल की डिकरी पातर से नाच सीखा है, दिज्यू,"
उसकी चचिया सास ने कहा और मुझे लगा, शायद ठीक ही कह
रही थीं वे, यद्यपि उनकी उक्ति व्यंग्य की प्रत्यंचा में तनी ही लग रही थी।
किन्तु रमा जैसी सौम्या ऐसे गीत के साथ ऐसा नाच कर कैसे गई! उसका मधुर कंठ
ढोलक की थपेड़ों के बीच मीठे मंजीरे-सा गूंज रहा था :
हमरे ससुर के
तीन-तीन बेटे
तीनों नक्शेबाज हैं
एक शराबी, एक जुआड़ी
एक कोठेबाज है।
हाँफती रमा मेरे ही पास आकर धम्म से बैठ घुंघरूँ खोलने लगी तो मैंने हँसकर
उसे छेड़ दिया था, "क्या सचमुच डिकरी से नाच सीखा है री तूने?" डिकरी रमा के
पिता के शतरंजी मित्र शाहजी की रक्षिता थी।
"हाँ," अपनी भुवनमोहिनी तिर्यक् दृष्टि से मुझे बींध उसने कहा, "डिकरी मौसी
नानी की मुँहबोली बहन थीं। जब मैं नानी के पास रहती थी तो मैं खिड़की से
छुप-छुपकर डिकरी मौसी को नंदादेवी के डोले के आगे रेशमी रूमाल लिये नाचती
देखती थी। बस, देख-देखकर सीख गई।"
रात न जाने कब बीत गई, शास्त्रीय संगीत की गोष्ठी का समापन जैसे भैरवी से
होता है ऐसे ही उस रतजगे का समापन हुआ था घोड़ी बन्ने से। क्लांत कंठों में
अपूर्व जोश आ गया था :
बादल सा गरजता
मेहा सा बरसता
बिजली सा चमकता
आया री बन्ना
बन्ना तू मेरा हरियाला बन्ना
बन्ना तू मेरा शहजादा बन्ना।
जब सारी रात नाचती-गाती स्त्रियाँ फर्श पर कटी लाशों-सी निष्प्राण पड़ी सो
रही थीं, मैं चुपचाप निकल आयी। मैं जानती थी कि जगने पर रमा मुझे बरात आने से
पहले कभी नहीं जाने देगी।
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