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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


कुछ डरते-डरते ही मैंने कहा-'तिला, तुम तिलोत्तमा ठाकुर हो ना?'

वह चौंकी, मुड़कर उसने मुझे अविश्वास से देखा, फिर लिपट गई। जब वर्षों बाद दो बाल्य-सखियाँ मिलती हैं तो वर्तमान उन्हें नहीं खींचता, खींचता है अतीत जहाँ बढ़ती वयस, बीते वर्ष सब एकसाथ मिटकर बह जाते हैं। उसी अतीत के पृष्ठ, उसने मेरे सामने खोलकर रख दिए, उन्हें आज सँजोकर लिखने बैठी हूँ तो कविगुरु की वही पंक्ति मेरी लेखनी पकड़ साथ-साथ चल रही है-

सेई सत्य जा रचिबे तुमि

रामेर जन्मस्थाने अयोध्यार चेये सत्य जेनो

कानों की रुई निकाल मैं स्तब्ध-अवाक् चित्रांकित बनी सुन रही थी-"तू जिस दिन मुझसे मिली, उसी के एक महीने बाद, मेरे पति का देहान्त हो गया-यह नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी सबकुछ घट जाएगा-डॉक्टरों ने की हवाबदली रोग को दबा दे-बुरी तरह ठगे गए थे, सगे मामा ने ही मेरा सर्वनाश किया, उन्हें सबकुछ पता था। मेरे ससुर की कुख्याति, मेरे पति का असाध्य रोग, सास का राँची के पागलखाने का प्रवास सबकुछ हमसे छिपा गए। डॉक्टरों ने मेरे ससुर से बार-बार कहा था-उनके पुत्र के दोनों फेफड़े छलनी हो गए और फिर तब क्षयरोग क्या आज के कैंसर से कुछ कम घातक था! किन्तु प्रतुल मेरे ससुर का इकलौता पुत्र था, उन्हें धुन थी, वंशधर चाहिए-उत्तराधिकारी नहीं हुआ तो कौन भोगेगा उनकी अटूट सम्पत्ति!

"पुत्र के जीवन की बलि ही क्यों न देनी पड़े-उत्तराधिकारी चाहिए अवश्य-जिस दिन मैंने ससुराल की देहरी पर पहला कदम रखा तो देखा, दो नौकर मेरे पति को पकड़कर अन्दर ले जा रहे हैं। ससुर की विशाल अट्टालिका, आत्मीय स्वजनों से भरी थी। स्त्रियाँ मेरा घूँघट उठा-उठाकर मुँह देखतीं और आपस में फुसफुसाने लगतीं-रत्नाभूषणों से लदी मैं, भारी लाल बनारसी साड़ी में, थरथर काँप रही थी-क्यों मुझे देखकर ऐसे फुसफुसा रही हैं? क्या उनकी दृष्टि में, मैं सुन्दर नहीं हूँ या दान-दहेज नहीं लाई हूँ, इसलिए? मेरे ससुर ने ही तो कहा था, उन्हें केवल कन्या चाहिए, दहेज नहीं-इतने ही में सबकुछ स्वयं स्पष्ट हो गया-काली भुजंगिनी-सी बड़े-बड़े दाँतोंवाली महिला, एकान्त पाकर मेरा हाथ पकड़ विषाक्त हँसी हँसकर कहने लगी-'की रे अप्सरा, तोर बाप आर-वर खुंजे पेलो ना?' (क्यों री अप्सरा, तेरे बाप को और कोई वर नहीं जुटा?)

“इससे तो तेरे गले में पत्थर बाँध किसी ताल-पोखर में डुबो दिया होता-सास पन्द्रह वर्षों से राँची के पागलखाने में पड़ी है, लड़के को भयंकर क्षयरोग है और बापेर जा कीर्ति (बाप की जो कीर्ति है) अब खुद ही देख लोगी।"

ठीक ही कहा था उसने, मुझे सबकुछ देखने-समझने में फिर समय नहीं लगा था। गृह की एकछत्र स्वामिनी थीं मेरे पति की विधवा मौसी सोना मासी। मेरी सास के पागलखाने जाने के बाद, उन्हीं ने प्रतुल की देखभाल की, मेरे ससुर को देखा और गृह प्रबन्ध भी अपने हाथों में ले लिया। मेरे ससुराल का वैभव था अनन्त, अनाचार और उससे भी दुगुना भण्डार में, बड़े-बड़े भाँडों में मिष्ठान्नों के असीम उदधि से जिसका जी चाहे, वही निकालनिकालकर खाता रहता, न खाने का कोई समय था, न सोने का-गृह में मुझे मिलाकर कुल चार प्राणी थे, दास-दासियों की संख्या थी बीस। एक से एक अमानुषी भयावह चेहरेवाले, खनीस से भृत्य, कोई अस्तबल देख रहा है, कोई गोशाला, कोई चंडीमंडप और कोई नाट्यशाला। और दासियाँ, जहाँ अधेड़ हुईं निकाल दी जातीं-सब पूर्णयौवना-छैल छबीली, अकारण ही हँसतीखिलखिलाती एक-दूसरी पर गिरी पड़ती थीं। धूप निकलते ही संगमरमरी प्रांगण में बड़ी-सी चौकी डाल दी जाती और मेरे ससुर के विराट् वपु पर, नवोदित सूर्य की अरुण रश्मियों को सरसों के तेल में मिला, उनकी दो मुँहलगी दासियाँ-मालिश कर रगड़-रगड़ चमकाती, साथ-साथ अश्लील हँसी'टट्ठा, कभी इधर-उधर देख, मेरे ससुर, कटोरी से तेल उठा दोनों के कपोलों पर अबीर-गुलाल-सी मल देते-और वे नाज-नखरों में दुहरी होकर कहती'आहा, की जे करेन कर्ता!' (आहा क्या करते हैं मालिक!)

मेरे लिए यह सबकुछ अनजाना था, अपने घर की नौकरानी को, बाबा की उपस्थिति में, मैंने कभी चूँघट उठाकर बात करते भी नहीं देखा था। फिर एक दिन मैंने अपने ससुर का जो बीभत्स रूप देखा, जी में आया, खिड़की से कूदकर, उसी क्षण माँ के पास भाग जाऊँ। मेरे पति प्रतुल को विवाह के दिन से तेज बुखार चढ़ा था। मैं सोना मासी के कमरे में उन्हीं की पलँग पर सोती थी। तब तक मैंने प्रतुल का चेहरा भी नहीं देखा था। शुभ दृष्टि के समय, मैंने जोर से आँखें बन्द कर ली थीं और वह भी शायद ज्वर-तप्त आँखें खोल मुझे नहीं देख पाया होगा। मैं दिनभर सजी-धजी, सोना मासी के कमरे में बैठी रहती, दिनभर मुझे देखने आई आँखों की भीड़ मुझे घेरे रहती, नौ ग्रामों की जमींदारी थी हमारी, रात को मेरे कमरे में ही खाना पहुँचाकर सोना मासी कहतीं-“ले खा लेना और कपड़े बदलकर चुपचाप सो जाना, मुझे काम निबटाकर आने में देर लगेगी।"

वह नित्य कौन-सा काम निबटाने जाती हैं, यह एक दिन स्वचक्षुओं से देख लिया। उस दिन भी मैं कपड़े बदलकर उस जहाज-से छपरखट में लेट गई। इससे पहले माँ को छोड़ और किसी के साथ नहीं सोई थी, माँ की देहपरिमल, नित्य विदेशी सेंट-सी ही मेरी आँखें मुँदा देती और सोना मासी, लगता था सौ गँधाती मछलियाँ ही पोखर से निकल, मेरे बगल में पसर गई हैं, कैसी दुर्गंध थी उनके पसीने में। और फिर लेटते ही खर्राटे लेने लगती, खर्राटे भी ऐसे कि कान के पर्दे फट जाते थे, मैं रात भर नहीं सो पाती। उस दिन, उनकी विलम्बित आगमनी से पहले ही मेरी आँखें लग गईं, सहसा सड़क के कुत्ते एकसाथ भौंकने लगे-मेरी नींद टूट गई, प्यास से गला सूख रहा था। हरिबाला नित्य, चाँदी की सुराही में पानी भर, मेरे सिरहाने रख जाती थी, उस दिन शायद भूल गई थी या नियति ने ही उसे भुला दिया था, जिससे मेरी अनजान आँखें समय पर ही मेरे ससुराल के परिवेश की चिलमन उठाकर झाँक लें। मैं पानी लेने उठी, मेरे कमरे के सामने ही मेरे ससुर का शयनकक्ष था, उसी से लगा प्रतुल का कमरा था, जिसके कपाट दिन-रात बन्द रहते थे, उसके साथ सोते थे मैनेजर राखाल बाबू, उसी से संलग्न था रसोई का कमरा। सोचा था दबे पैर जाकर प्यास बुझा आऊँगी-जब तक रंगपुर में बिजली नहीं आई थी, किन्तु चतुर्दशी की धवल चंद्रिका; पूरी गैलरी में ऐसे पसर गई थी, जैसे बीसियों पेट्रोमैक्स जले हों। मेरे ससुर के कमरे के मखमली पर्दे, शायद बेहद उसम के कारण कुछ खिसका दिए गए थे-उसी . दरार के औदार्य से जो दृश्य मैंने देखा, उसने मेरा सर्वांग घृणा से कंटकित कर दिया। दीन-दुनिया से बेखबर, पुत्र की आसन्न मृत्यु से निर्लिप्त, मेरे साठ वर्ष के ससुर सोना मासी को बाँहों में भरे, गहरी नींद में डूबे थे। मैं उल्टे पाँव प्यासी ही लौट आई और उस अभिशप्त छपरखट पर औंधी पड़ी सिसकने लगी-बाबा-बाबा, कहाँ डुबो दिया तुमने मुझे ?

न जाने कब आकर, सोना मासी मेरे सिरहाने खड़ी हो गई थीं।

“ओरे बाबा, की कन्ना रे, जतो सब नैकामी, क़चि खुकि जेन। बापेर नाम करे कांदछेन, ऐमन बापेर मुखे झाँटा-" (अरे बाप रे, क्या नखरे हैं, बाप का नाम लेकर रो रही हैं, दूध-पीती बच्ची हो जैसे! ऐसे बाप के मुँह में झाड़।)

फिर वे देर तक बड़बड़ाती रहीं-‘एक बार भी पूछताछ नहीं की, खुद आकर क्यों नहीं देख गए दामाद को, हमने क्या ताले में बन्द कर रखा था उसे?' आठवें दिन सुना, प्रतुल का ज्वर उतर गया है, उसे पथ्य भी दे दिया गया है, अब कलकत्ते के बड़े डॉक्टर उसे देखने आ रहे हैं। डॉक्टर आए और उन्होंने घण्टों आला लगाकर प्रतुल की जाँच की, फिर मेरी पुकार हुई।

“मुझे क्यों बुला रहे हैं, मैं क्या बीमार हूँ?" मैंने कुछ अशिष्ट स्वर में ही मासी से पूछा।

"अरी दुरन्त लड़की, तू तो बीमार नहीं है-पर खोका को तो बीमार कर सकती है-अब अपने मुँह से तो हम तुझसे कुछ नहीं कह सकते, इसी से डॉक्टर बाबू से कहा-वे ही समझा दें-" मैं सिर झुकाए दीवानखाने में खड़ी हो गई। कमरे में कोई नहीं था, केवल दीवाल पर लगी विदेशी घड़ी से सिर निकाल एक नन्ही-सी चिरैया कोयल-सी टहुक उठी-कुहु-कुहु-घण्टे बजाने वाली ऐसी विचित्र घड़ी मैंने जीवन में पहली बार देखी थी, और मैं जोर से हँस पड़ी।

मैं हँस ही रही थी कि डॉक्टर बाबू को लेकर, मेरे ससुर आ गए-“बोकार मतो हासछों केनो?" (मूर्ख की तरह हँस क्यों रही हो-) मेरे ससुर का कठोर स्वर मुझे कँपा गया।

"बैठो बेटी" जितना ही कठोर स्वर मुझे पल-भर पूर्व कँपा गया था उतना की मधुर आदेश का दूसरा स्वर सुन, मैंने आँखें उठाईं-मेरे सामने विदेशी वेशभूषा में वह शांत, सौम्य वृद्ध डॉक्टर खड़े थे-“तुम इसे समझा देना निखिल, अभी यह कुछ भी नहीं समझती, जरा जिद्दी भी है-" मेरे ससुर हम दोनों को अकेला छोड़ चले गए।

मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, क्या समझाएँगे मुझे? क्या मैंने कोई भूल कर दी थी, पर मैंने तो प्रतुल को देखा भी नहीं था-"तुम तो एकदम बच्ची हो, कितने साल की हो माँ?"

यह सम्बोधन सुनते ही मेरे कण्ठ में गह्वर अटक गया, इसी सम्बोधन से तो मुझे बाबा बुलाते थे, यहाँ तो सोना मासी मुझे 'ठूड़ी' (छोकरी) कहकर ही पुकारती थीं-वह भी ऐसे जैसे थप्पड़ मार रही हों।

"सोलह,” मैंने कहा।

एक दीर्घश्वास लेकर वे बोले-“यह तो बड़ा अन्याय किया है माधव ने-जान-बूझकर तुम्हारे साथ यह अन्याय कैसे कर गया-क्या तुम्हारे पिता को कुछ भी नहीं बताया उन्होंने-" मैंने चकित दृष्टि उठाई और उस सौम्याकृति वृद्ध की आँखों में मेरे प्रति करुणा की स्नेह-सिक्त तरल तरंगें देख मैं त्रस्त हो गई।

"क्या नहीं बताया मेरे पिता को?"

"आश्चर्य, सचमुच आश्चर्य हो रहा है मुझे-माधव मेरा पुराना मित्र है-उसे तो मैं सबकुछ बता चुका था-देखो बेटी, तुम्हारे पति के दोनों फेफड़े नष्ट हो चुके हैं, यह विवाह किसी तरह भी नहीं होना चाहिए था। प्रतुल है ही कितना बड़ा, अभी तो बी.ए. किया है, उम्र होगी यही कोई बीस साल-पर अब जो होना था सो हो गया, सोचा तुम्हें सावधान कर दूं-" तब ही मैं भयभीत होकर रोने लगी थी।

“नहीं माँ, ऐसे मन छोटा नहीं करते-तुम्हें साहस और धैर्य से काम लेना होगा-” वे मेरे पास आकर मेरे झुके सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर बोले, “यह रोग छुतहा रोग है, मैं यह नहीं कहता कि तुम प्रतुल को छोड़कर मायके चली जाओ-किन्तु, तुम्हें परहेज बरतना होगा-" फिर वे अपदस्थ होकर स्वगत बड़बड़ाने लगे-'यह तो बड़ी ज्यादती है माधव की, यह समझाना क्या किसी पुरुष को शोभा देता है, अंतर्महल की ही कोई बुजुर्ग स्त्री को समझाना चाहिए था-' फिर जैसे उन्होंने स्वयं ही उस कठिन कर्त्तव्य को सहज बना लिया, “समझ लो माँ, मैं तुम्हारा पिता हूँ-"

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