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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।



पाथेय

पुराणों में जो, तिलोत्तमा की कथा है कि समस्त अप्सराओं के सर्वोत्तम अंगों का सौन्दर्य तिल-तिल कर, अपूर्व सुन्दरी तिलोत्तमा की सृष्टि हुई, शायद उसी की पुनरावृत्ति, इतिहासविधाता ने एक बार साकार कर दी थी। किन्तु, आज दुर्भाग्य से हमारे सौन्दर्य की परिभाषा ही बदल गई है। शायद इसीलिए भी कि अब वैसे ऐतिहासिक सौन्दर्यमण्डित चेहरे, ढूँढ़ने पर भी नहीं दिखते। कुछ तो नारी-सौन्दर्य की सृष्टि में, विधाता ही कृपण हो चला है, दूसरी, इस युग की नारी, थोड़े-बहुत लावण्य की स्वामिनी होती भी है, तो स्वयं अपने हाथों नैन-नक्श सँवार, विधाता के नम्बर काटने लगी है। इसीलिए ऐसी सौन्दर्यवर्णना अविश्वसनीय ही लगती है, उस पर जिस डॉ. तिलोत्तमा ठाकुर की विचित्र कहानी आज लिखने बैठी हूँ, वह और भी अविश्वसनीय लगेगी, यह मैं जानती हूँ, फिर भी क्यों लिख रहीं हूँ, यह मैं स्वयं नहीं जानती। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की एक प्रसिद्ध कविता, आज बार-बार झकझोर रही है-लिख डाल, मुक्ति पा ले : अपनी व्याकुलता से उस कविता में, आदिकवि को छंद मिलने और व्यक्त न कर पाने की व्याकुलता का जो जीवंत वर्णन कवि ने किया है, वह मुझे आज तक अन्यत्र नहीं मिला।

क्रौंच मिथुन में से एक को निहत देख, वाल्मीकि के मुख से अचानक नए छन्द का आविर्भाव हुआ, छन्द तो मिल गया पर विषय नहीं। पागल की तरह, अव्यक्त छन्द की प्रसव-वेदना से छटपटाते वाल्मीकि, वन में घूम रहे थे-कि छन्द को कैसे व्यक्त करें, यह व्यथा सामान्य व्यथा नहीं होती, छन्द छटपटाकर बाहर आने को व्याकुल लेकिन लिखें कैसे? तब ही, देवर्षि नारद मिल गए-आदिकवि ने कहा-अब तक देवता के छन्द ने देवता को मनुष्य बनाया है-मैं मनुष्य को देवता बनाना चाहता हूँ-कोई चरित्र बताइए नारद ने अयोध्या के राजा राम का नाम सुझाया।

कवि बोले-यह नाम तो मैंने भी सुना है किन्तु मैं उनके पूरे चरित्र को तो नहीं जानता-कहीं सत्यभ्रष्ट न हो जाऊँ। नारद ने हँसकर कहा :

नारद कहिलो हाँसी
सेई सत्य जा रचिबे तुमि
घटे जा, सब सत्य नहे।
कवि तव मनोभूमि
रामेर जन्मस्थाने अयोध्यार चेये सत्य जेनो

मनुष्य को देवता बनाना ही छन्द-साधना का चरम लक्ष्य है-ऐसा विषय खोजो जिसमें मनुष्य देवता बने, लोभ-मोह-स्वार्थभार से ऊपर। स्मरण रखो, जो कुछ घटता है, वह सत्य ही नहीं होता, जो तुम कहोगे वही सत्य होगा। अपनी मनोभूमि को, रामजन्म-भूमि अयोध्या की अपेक्षा कहीं अधिक सत्य मानो-आज अपनी उसी मनोभूमि को सत्य मानकर लिख रही हूँ-

तिलोत्तमा ठाकुर से मेरा परिचय, वर्षों पूर्व कलकत्ते में विद्यासागर कालेज में हुआ था, उसकी ममेरी बहन छन्दा, आश्रम के कलाभवन की छात्रा थी, उसी ने हमें, उसके लिए एक सिफारिशी पत्र भी दिया था-"तुम लोगों का परीक्षा केन्द्र भी वही है, तिला का भी। परीक्षा के बाद तुम्हें कलकत्ता घुमा देगी-"

पहले ही दिन वह हॉल में आई तो सैकड़ों परीक्षार्थियों की आँखें स्वयमेव उसी ओर उठ गईं। मैं वर्षों बंगाल में रही हूँ, किन्तु ऐसा दूधिया रंग मैंने इतिपूर्व बंगालियों में कभी नहीं देखा। लगता था कहीं-न-कहीं उसके वंश मेंआंग्ल आभिजात्य का छींटा अवश्य पड़ा होगा-तीखी नाक, पृथुल अधर, तेजस्वी मुख-मुद्रा और अधमुँदी आँखें, जैसे हर वक्त अधूरी नींद पलकें ढलका रही हो।

“ऐसी आँखों की स्वामिनी स्वभाव से ही कृपण होती है और पुतलियों का रंग देखा? एकदम हरा-'बेड़ालेर चोख' (बिल्ली की आँखें) कमला तर्वे का ईर्ष्याकातर स्वर मेरे कानों में फुसफुसा उठा था। क्या अद्भुत परिपाटी से जूड़ा बाँधा गया था। बन्दगोभी से अँटे ठसे जूड़े में चाँदी के घुघरूदार सन्थाली काँटे लगे थे, जो उसकी गर्वीली ग्रीवा के इधर-उधर होते ही बज उठते-छन्न-छन्न। कानों में सोने की चेन में लटके, लाल चेरीगुच्छ-से पुंजीभूत माणिक और कण्ठ में वैसी ही सोने की चेन। चौड़े जरीदार पाड़ की सफेद शांतिपुरी साड़ी की कड़ी कलफ देख, नित्य श्रीनिकेतनी घर की धुली साड़ी पहननेवाली हम वन-कन्याओं के, साड़ी-लोलुप हृदयों की लार टपकने लगी थी। किसी को कुछ न समझनेवाली अवज्ञापूर्ण दृष्टि से एक बार हमें देख, वह फिर दाएं-बाएँ देख टप्प से अपनी कुर्सी पर बैठ, प्रश्न-पत्र की प्रतीक्षा करने लगी थी-“देखा, कैसी घमंडी है, अब कौन देगा इसे छन्दा की चिट्ठी? कोई फायदा नहीं-यह क्या खाक घुमाएगी हमें। ठाकुर बाड़ीर मेये हे"(ठाकुरबाड़ी की लड़की है जी)-कमला हमेशा ऐसी ही मनहूस भविष्यवाणी किया करती थी-

"तुझे कैसे पता था?"

“मूर्ख, एडमिशन कार्ड देख लिया है उसका, तिलोत्तमा टैगोर-"

किन्तु, टैगोर परिवार से उसका दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था। राजा की पदवी उसके प्रपितामह को कभी प्रसन्न होकर, कम्पनी बहादुर ने दी थी और ठाकुर को टैगोर उन्होंने स्वयं बना लिया था। कभी वे बहुत बड़े जमींदार थे, किन्तु अब सबकुछ ही बिक गया है, अच्छा है एक ही बेटी है तिला, मेरे पिता को ही उसका विवाह करना पड़ेगा-छन्दा ने आने से पहले जिस भाषा में सबकुछ बताया, उससे लगा, अपनी बुआ से उनके गृहसम्बन्ध बहुत सुविधाजनक नहीं हैं।

तिला को देखते ही हमारी समझ में आ गया, छन्दा क्यों उससे अप्रसन्न है-“पत्र तो मैं लिख देती हूँ पर वह बेहद घमंडी है, हो सकता है तुम्हें घास भी न डाले।"

किन्तु, पत्र पढ़ते ही तिला का चेहरा दमक उठा-"मैं तुम्हें खूब घुमा दूंगी-पहले अपने गाँव ले चलूँगी सुवर्णपुर-यहाँ से तीस ही मील तो है।" फिर तो वह हमसे ऐसे घुलमिल गई जैसे वर्षों से हमें जानती हो, विशेषकर मुझसे उसकी बहुत बनती थी-परीक्षा समाप्त होते ही उसने हमें जी भरकर घुमाया और जाने से एक दिन पहले अपनी जमींदारी दिखाने, खाने को न्यौत दिया।

घर क्या था, अच्छा-खासा महल था-यद्यपि स्थान-स्थान पर पलस्तर खिसका पड़ा था, लगता था वर्षों से मरम्मत नहीं हुई, चक्की के पाट-सी सीढ़ियों पर यत्रतत्र घास के गुच्छे उग आए थे--जामुन, कटहल, आम, शिरीष, कदम्ब के वृक्षों के झुरमुट के बीच, नीलाभ जल से छलकता पोखर, दिन-भर हम अक्लांत मछलियों-सी तैरती रही थीं, फिर भी मन नहीं भरा। बरसाती में खड़ी जराजीर्ण ब्यूक गाड़ी, छत से झूल रहे मकड़ियों के जाले, धूल-गर्द के अम्बार से ढके झाड़फानूस, धूसरवर्णी रेशमी पर्दे, जिनकी तुरपन खुलकर तोरण-सी लटक आई थी, सबमें पीढ़ियों के आभिजात्य की छाप थी, किन्तु विवश दारिद्र्य यत्न से छिपाए जाने पर भी पल-पल स्वयं उघड़ा जा रहा था। तिला ने अपने पिता से हमारा परिचय कराया। सद्यः इस्त्री करी ट्राउजर, रेशमी शर्ट, चौड़ी नेकटाई, जेब से झाँकता दामी रूमाल, मुँह में चुरुट, पैरों में चमचमाते आक्सफर्ड शू, हमारी ही दावत के लिए वे बाजार कर लौटे थे। पीछे था पगड़ीधारी बिहारी दरबान, सिर पर धरी टोकरी में इलिश माछ (हिलसा मछली) दर्जनों अण्डे, बकरे की रान, दार्जिलिंग के पुष्ट सन्तरे, नवीन मयरा के स्वादिष्ट शंखाकार सन्देश जिन्हें खाना और बनाना दोनों ही शायद आज बंगाल भूल गया है।

तिला की माँ पुत्री से भी अधिक सुन्दरी थी। वैसा ही रंग, चौड़े ललाट के दोनों ओर यत्न से काटी गई पत्तियाँ, जो शायद वर्षों की अभ्यस्त परिपाटी में सधी, स्वयं गोलाकार बनती कर्ण शिखरों पर चिपककर रह गई थीं-लम्बी अंगुलियों में चमकती माणिक और पन्ना की अंगूठियाँ, कानों में रुपये के आकार के सुवर्ण कर्णपाशा, कण्ठ में फूलहार, पान दोने से टुकटुक करते रसीले अधरपुट। कौन कह सकता था, वह एक किशोरी पुत्री की जननी है। माँ-बेटी में कौन अधिक सुन्दरी है, यह कह पाना हमें कठिन लग रहा था। बड़ी देर तक हम अपनी उस नवीना सखी के साथ मौजमस्ती मनाकर लौटने लगे तो उसकी माँ ने कहा-तोरा आबार आशिश-बैशाखे जे खुकूर बिये (तुम लोग फिर आना, वैशाख में इसका विवाह है।)

कहती क्या है, इस बच्ची का विवाह, अभी तो हाईस्कूल की परीक्षा दी है-हम लौटे तो छन्दा ने बताया-“वह परीक्षा देने हमारे यहाँ ही रुकी थी, उसके भावी ससुर माधव बाबू मेरे पिता के बहुत पुराने मित्र हैं। उन्होंने वहीं तिला को देखकर पसन्द कर लिया-कहने लगे-हम तुम्हारी भानजी से ही अपने प्रतुल का विवाह करेंगे-जो उसके कान में तुम लोगों ने माणिक के झुमके और गले की चेन देखी थी, उसे ही पहनाकर तो आशीर्वाद कर गए। बोले-हमें दान-दहेज कुछ नहीं चाहिए बस यह सुन्दरी कन्या चाहिए-रंगपुर के बहुत बड़े जमींदार हैं-अच्छा ही हुआ, बुआ की तो पुश्तैनी हवेली भी गिरवी पड़ी है-पन्द्रह की भी पूरी नहीं हुई थी कि तिला का विवाह हो गया, वह कहाँ है, कैसी है, उसका पति कैसा है-फिर हमें कुछ पता नहीं लगा।"

सहसा वह दूसरी बार मुझे जहाँ मिली वहाँ उसे देख मैं अवाक रह गईयह इस बदनाम मनहूस मकान में रहने कैसे आ गई-बदरंग खिड़की पर बैठी वह अपने गीले बालों को, तौलिये से झटक-झटककर सुलझा रही थी कि सहसा हम दोनों की दृष्टि एकसाथ उठी- 'ओ माँ तुई?' (अरे तू)-कह वह पलभर में, टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियाँ फाँदती आकर मुझसे लिपट गई-विवाह ने उसे और भी सुन्दर बना दिया था-कटि से भी नीचे झूलते उसके घने बालों से टपकती पानी की बूंदें मुझे भी भिगो गईं-हाथों में मोटे सुवर्ण वलय, माँग में सिन्दूर की प्रगाढ़ रेखा धुलकर भी धुंधली नहीं हुई थी।

"मेरे पति बीमार हैं, उन्हीं को लेकर यहाँ आए हैं, चल ना ऊपर-"

मैं झिझकी, तब हम नित्य प्रातःभ्रमण को जाते थे, साथ में रहते कठोर प्रहरी बने लोहनीजी। एक तो हमारा रानीधारा आना वर्जित था और वहीं घूमना हमें पसन्द था- “रानीधारा की ओर मत जाना," हमें माँ की हिदायत मिलती, "अभागे टी.बी. रोगियों ने पूरा सैनेटोरियम ही बना दिया है वहाँ।"

उस पर कुख्यात कल्याण हाउस। जिन्होंने सन् चालीस का अल्मोड़ा देखा है-उन्होंने रानीधारा के सीमान्त पर स्थित वह विचित्र भुतहा बंगला अवश्य देखा होगा। उस सुरम्य वनस्थली में जहाँ स्कंधस्पर्शी देवदारी हवा, मनप्राण में नई पुलक भर देती थी, वहीं वह पीसा की मीनार-सा बंकिम मुद्रा में खड़ा लोहनीजी कहते-"नाक ढक लो रूमाल से-" क्षयरोग तब कुष्ठरोग-सा ही महारोग माना जाता था और कल्याण हाउस की खिड़की पर हमें एक न एक खाँसता-बँखारता नया क्षयरोगी अवश्य दिख जाता। वह बंगला कभी खाली नहीं रहता। नित्य नवीन क्षयरोगियों को, जैसे स्वयं मृत्यु खींच लाती थी। सुना यही था कि जो भी वहाँ आया, फिर चार कन्धों पर ही गया। फिर भी उसकी माँग निरन्तर बनी रहती, शायद इसलिए भी कि चारों ओर थे घने देवदारद्रुम, सामने प्राणदायिनी त्रिशूल, नन्दादेवी की हिमाच्छादित धवल पर्वत श्रेणियाँ एक ओर सीधे पहाड़ से निकली, नल में कौशल से बाँधी गई रानीधारा की मृत्युंजयी जलधारा, उस पर किराया भी बहुत कम। हमें उस ओर जाने के लिए एक और आकर्षण भी खींचता था। हम उस मोड़ पर देर तक खड़े होकर ढलान पर उतरते राहगीरों को देखते, न जाने कैसी बनावट थी उस मोड़ की कि, उस पर मुड़ते ही फिर राहगीरों की छाया भी नहीं दिखती, लगता गहन वन अरण्य ने उन्हें लील लिया है! आज उसी कल्याण हाउस में ले चलने को तिला मेरा हाथ खींच रही थी-

"नहीं-नहीं, आज नहीं"-लोहनीजी ने मुझे हाथ पकड़कर खींच लिया।

"बड़ी देर हो गई है, फिर कभी आएगी-" बड़ी अनिच्छा से ही उसने मेरा हाथ तत्काल छोड़ दिया, शायद वह समझ गई थी।

तू फिर आएगी ना?"

उसने ऐसे विवश स्वर में पूछा जैसे वह जान गई थी कि उस छुतहे रोग के रोगी को देखने, मैं कभी नहीं आ पाऊँगी।

हुआ भी यही, दूसरे ही दिन हमें बंगलोर जाना था-प्राणों से प्रिय जन्मभूमि एक बार फिर मुट्ठी से खिसक गई। कभी-कभी जी में अदम्य कौतूहल होता, वह वहाँ कैसे आ गई? क्या उस भुतहे कल्याण हाउस में यम को अन्त तक पराजित कर अपने सत्यवान को लौटा पाई? पर किसे आया।

और इतने वर्षों पश्चात् जब हम दोनों कल्याण हाउस की-सी ही रहस्यमयी ढलान में उतर, पारलौकिक वन अरण्य में विलीन होने को तत्पर हैं, तब ही वह अचानक उस लम्बी उड़ान में सहयात्रिणी बन, एक बार फिर मुझसे टकरा गई। पहले हम दोनों ने ही एक-दूसरे को नहीं पहचाना। उसका व्यक्तित्व अभी उतना ही ठसकेदार था, यद्यपि सौन्दर्य को पीछे ढकेल, शालीनता ही अब प्रखर हो उठी थी-गाढ़े नीले रंग की नारायणपेटी साड़ी में उसका रंग और भी उज्ज्वल लग रहा था, जिस एड़ीचुम्बी पृथुल वेणी को देख कभी उसकी जलनखोर ममेरी बहन छन्दा ने कहा था-"मेरी माँ कहती है-इन बालों में ही तिला का दुर्भाग्य छिपा बैठा है, देख लेना कभी यही नागिन-सी चोटी अँईलोट इसे डस लेगी-लम्बे बालवाली लड़की कभी सुखी नहीं होतीआज वही सघन केशराशि न जाने कहाँ विलीन हो गई थी-किन्तु बढ़ती वयस भी उसकी तन्वी देह को मेदबहुल बनाने में सहम गई थी शायद! पीछे से देखने पर वह युवती ही लग रही थी, किन्तु चेहरा देखने पर लगता था, क्रूरकाल ने उस पर जमकर हस्ताक्षर किये हैं, ललाट से लेकर चिबुक तक। कनपटी के बाल सफेद हो चले थे, जिन अधमुँदी आँखों को देख कमला तर्वे ने उसके कृपण होने का स्पष्ट संकेत दिया था, वे सुनहली कमानी के चश्मे के मोटे लैंस से ढकी, और भी मुँदी लग रही थीं, जैसे सो रही हों किन्तु बैठने की अडिग भव्य मुद्रा अब भी उतनी ही अहंकार दीप्त थी। सच पूछिए तो चेहरे से नहीं, उसके बैठने की मुद्रा से ही मैंने उसे पहचान लिया था। बेल्ट बाँधती वह फिर सीधे नासिकाग्र पर अविचलित दृष्टि साधे, मूर्तिवत् बैठी और मैंने पहचान लिया फिर बायें कपोल पर उसके चुगलखोर तिल ने मेरे अनुमान की पुष्टि की।

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