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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


वह बड़बड़ाती भीतर गई और उल्टे पैर लौट आई, “चलो, बुला रही हैं।" उसका व्यंगात्मक कण्ठ-स्वर क्रमशः प्रगाढ़ हो रहे अन्धकार में विष-बुझे तीर-सा सनसनाया। वह उस छोटे-से कमरे में अकेली खड़ी थी। जिसकी वाणी की प्रगल्भता, अभिजात अनुभव, उन कैसे-कैसे दिग्गज विदेशी शूरवीरों की विदग्ध गोष्ठियों में सदा अजेय बना देते थे, वह सहसा गूंगा बन गया।

वह उसे उसी शान्त, स्निग्ध, निरुद्वेग दृष्टि से देखती जा रही थी। और वह प्रति पल जलती नन्ही मोमबत्ती-सा विगलित होता जा रहा था।

उसकी पहली अस्फुट याचना शायद वह सुन नहीं पाई।

वह खड़ी ही रही। अचानक स्वर्णदन्ती एक कुशासन बिछाकर, उसे एक स्लेट थमा गई, “बैठिए और जो पूछना हो चटपट स्लेट पर लिखकर पूछ लीजिए, माँ की पूजा का समय हो रहा है।"

पर वह नहीं बैठा, बैठता कैसे? वह तो खड़ी ही थी।

जो कुछ उसे पूछना था, वह क्या इस नन्ही स्लेट में समा पाएगा?

उसने स्लेट पर कुछ नहीं लिखा। दृढ़ स्वर में कहा, "मैं तुम्हें लेने आया हूँ बिन्दी! जो कुछ हुआ उसे भूलकर, मुझे क्षमा कर दो। मैं तुम्हारा पति हूँ बिन्दी, यह अधिकार मैंने अभी भी नहीं खोया है।"

फिर वह अपनी दुर्बल दलील से स्वयं ही कुण्ठित हो, खिसियायी हँसी हँसा। एक पल को वह उसे उसी मर्मभेदी दृष्टि से देखती रही, जैसे उसकी एक-एक पसली का एक्स-रे ले रही हो। फिर उसने उसके हाथ से स्लेट उठा ली। एक पल को श्रीनाथ का हाथ उसके हाथ से छू गया। एक-एक शिरा झनझनाकर उसे संज्ञाशून्य-सा कर उठी, जैसे बिजली का जोरदार झटका लगा हो।

अपनी बात कितने कम समय में कितनी सहजता से वह स्लेट पर लिख गई थी। "मैंने आज तक जीवन में पराई वस्तु का कभी स्पर्श भी नहीं किया है, मैं निर्दोष धी, अब मैं जहाँ हूँ वहाँ से लौटना असम्भव है। अब न मेरा कोई अतीत है, न वर्तमान, न भविष्य, तुम चले जाओ। और फिर कभी यहाँ न आना। एक बात तो सुनते जाओ-वह पश्मीना किसी प्रेतशय्या का दान नहीं था। बाबू ने कश्मीरी फेरीवाले से पूरे दो हजार रुपए देकर खरीदा था।"

उसके पढ़ते ही, स्लेट उसके हाथों से लेकर उसने अपनी लिपि, अपने ही भगवा आँचल से मिटा दी और पलक झपकाते ही अपनी पर्णकुटी की किसी अंधी गली में खो गई।

ठीक ही तो किया था उसने। तीस वर्ष पूर्व उसने भी तो उसे ऐसी ही सजा दी थी-'खबरदार तो कभी इस घर की देहरी लाँघी!' आज किस सहजता से वह अपना प्रतिशोध ले गई थी।

“अब जाइए महाराज।" स्वर्णदन्ती सहसा क्या किसी छत से टपक पड़ी थी?

"चलिए बाहर।" उसने ऐसे अशिष्ट स्वर में कहा जैसे कह रही हो-“नहीं गए तो धक्का देकर बाहर कर दूंगी!"

वह चुपचाप चला गया।

कुशावर्त घाट की सीढ़ियों पर वह फिर न जाने कब तक बैठा रहा।

गंगा की उग्र तरंगें बार-बार सीढ़ियों पर पछाड़ खाती, उसके पैरों को भिगो रही थीं। जूते उतार, उसने उसी शीतल धारा में देर तक नंगे पैर डुबो दिए थे, चमकते जूतों से लेकर दमकता विदेशी सूट, प्रेयसी प्रदत्त टाई, ओमेगा घड़ी, सिगरेट का रोस्टेड टोबैको, जाँ मारी फ्रांसिस घराने के फ्रेंच 'रोजेगाले', उसकी कम्पनी के बहुमूल्य ‘पर्क्स' जिन्होंने उसके आँगन में ही कुबेर का छत्र गाड़कर रख दिया था, सहसा बहते-बहते उसी पावन जलधार में सदा के लिए विलीन हो गए। देश-विदेश में अपनी योग्यता की विजयपताका फहरानेवाला मल्टीनेशनल कम्पनी का वह वीर सेनानी, सहसा अपदार्थ नगण्य चिर दरिद्र बना, उस निर्जन घाट पर आज भिक्षुक बना खड़ा था। उसके आधुनिकतम परमाणु स्पंदित आयुध भी उसे विजय दिलाने में अक्षम रहे।

गंगा की लहरों में लहराता एक आटे का जलता प्रदीप उसी की ओर चला आ रहा था। आश्चर्य था कि उन तीव्र तरंगों और तेज हवा की चपेटों में भी वह निष्कंप प्रदीप तैरता चला आ रहा था। सहसा, वह एकदम उसके पास तिरता चला आया। उसने हाथ बढ़ाया कि उसे छूकर क्षण-भर को रोक ले, किन्तु उसका हाथ प्रलम्बित ही रहा। उसके प्रयास को व्यर्थ कर वह निष्कंप प्रदीप, वेगवती धारा में बहता, टिमटिमाता उसकी पकड़ से बहुत दूर चला गया। उसे लगा, पकड़ से दूर बहे जा रहे उस निष्कप प्रदीप के साथ-साथ हिमगिरि शिखरों से उतरी उसकी चाँचरी भी पर फैलाए लौ को बचाती, उसकी पकड़ से दूर चली गई है--बहुत दूर!

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