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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


दुर्बल हृदय को थोड़ा सहारा देना ही होगा। संध्या को वह अमूमन स्कॉच ही लिया करता था, पर क्या ऐसी पवित्र स्थली में ऐसा तामसी पेय घुटककर जाना ठीक होगा? पर इस भीरु हृदय कपोत को तो साधना ही होगा, नहीं तो वह सब कैसे कह पाएगा, जिसे कहने सात समुद्र पार कर यहाँ आया है। एक ही चूट में गिलास खाली कर वह होटल के कमरे में ताला डालकर बाहर निकल आया। बार-बार सूट की धूल झाड़ता, कंघी से बाल सँवारता, वह अता-पता ढूँढ़ता पहुँच ही गया था। धर्मशाला से ही संलग्न वह छोटा-सा आश्रम सघन वृक्षों से घिरा था। भगवा साड़ी का आँचल गर्दन से लपेटे एक मर्दानी वैष्णवी उसे देखते ही बढ़ आई, "क्या है? संध्या से पहले यहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित है, नहीं जानते क्या?"

"तो यहाँ क्यों आए हो, मिर्जापुर जाओ। जानते नहीं, वहीं तो विंध्यवासिनी का मन्दिर है।" वह फिर बड़ी अवज्ञा से हँसकर जाने को उद्यत हुई।

“सुनिए, मुझे उनसे जरूरी काम है।"

"किससे?"

"विंध्यवासिनी देवी से..."

"अरे बाबा, माथाय दोष ना की रे तोर?" (पागल है क्या रे तू?) वह बंगाली थी, किन्तु देखने में जाटनी लग रही थी। हृष्ट-पुष्ट, ताड़-सी लम्बी!

"हम बोला ना बाबा, यहाँ कोई विंध्यवासिनी नहीं रहता। यह सिद्धि माँ का आश्रम है।"

“हाँ-हाँ, उन्हीं से मिलना है।" वह बड़ी ललक से दो कदम बढ़ा ही था कि वैष्णवी ने डपट दिया, “ओहे खैपा-दूरे थाक आमी एक्खूनी स्नान कोरेछी।" (अरे पगले, दूर हट, मैं अभी नहायी हूँ।)

“यकीन मानिए, मैं बड़ी दूर से आया हूँ, उनसे कुछ बात करनी है..."

"बात?" वह सिर पीछे कर जोर से हँसी और उसके खुले मुँह में कतार की कतार में सोने से बँधे दाँत, विद्युत् वह्नि-से चमक उठे।
 
“उनसे मिलने आया है और इतना भी नहीं जानता कि माँ किसी से बात नहीं करती! दस साल से मौन व्रत लिया है उन्होंने....''

हारकर वह सजा-सँवरा एक्जिक्यूटिव फिर घण्टों संध्या की प्रतीक्षा में, यूक्लिप्टस के लम्बे वृक्ष से पीठ साधे बैठा रहा था। संध्या को, भक्तों को दर्शन देने नित्य बाहर निकलती हैं यही कहा था भाभी ने। देखते-ही-देखते संध्या घनीभूत हुई और भक्तों की भीड़ ने आश्रम का प्रांगण घेर लिया। वह भीड़ को ठेलता, सबसे आगे की पंक्ति में बैठ गया।

वही स्वर्णदन्ती मर्दानी वैष्णवी फिर मिट्टी की बनी वेदी पर एक कुशासन बिछा गई। भक्तों की भीड़ में सहसा आवेग का आलोड़न हुआ, ठीक जैसे किसी प्लेटफॉर्म पर बहुप्रतीक्षित ट्रेन की सम्भावित आगमनी पर होता है।

स्वर्णदन्ती वैष्णवी एक बार फिर मंच पर आकर खड़ी हो गई, “आप सब लोग शान्त होकर बैठिए, माँ पधार रही हैं।" क्षण-भर पूर्व की चिड़ियों-सी चहकती भीड़ में सन्नाटा छा गया। ऐसा सन्नाटा कि सूई तो सूई, तिनका भी टपकता तो शायद घन बनकर गरजता।

वह आई और बिना दाएँ-बाएँ देखे, आँखें बन्द कर पद्मासन में वेदी पर बैठ गई। मोटी भगवा साड़ी ही उसका एकमात्र परिधान थी। खुले केश, शान्त, दमकते सूर्य-से उज्ज्वल चेहरे पर न भावप्रवणता, न आवेग, न उद्वेग। सहसा उसने आँखें खोलीं। श्रीनाथ को लगा कि वह बिन्दी नहीं, हाई पावर का विद्युत् स्पंदित कोई नंगा तार ही उसके सामने झूल रहा है। छू भी गया तो प्राण हर लेगा।

कभी इन्हीं तेजोद्दीप्त कोमल कपोलों पर उसके दंतक्षत उभरे थे, कभी इसी जटा बन गई वेणी को उसने हाथ में ले-लेकर सहलाया था, इस शुभ्र ललाट पर, जहाँ अब भस्म का टीका लगा है, उसी ने अपने हाथ से सिन्दूर का टीका लगाया था। आज यह खूनी माँग, जो वन-अरण्य की पगडण्डी-सी मानव पदचिह्न विरहित सूनी पड़ी है उसमें सिन्दूर की प्रथम प्रगाढ़ रेखा उसी ने तो आँजी थी और ये किसी क्षत्राणी के-से सुडौल स्कन्धद्वय, उन्हें भी तो उसी के जल्लाद हाथों ने पकड़कर अपनी देहरी से बाहर किया था।

फिर आज घाट-घाट का पानी पीकर, वह किस दुःसाहस से यहाँ चला आया!

अब छूकर देख तो ले इन कपोलों को, सहला तो ले उसकी उलझी लटों को। मूर्ख श्रीनाथ, तेरे हस्ताक्षर, इस ललाट और इस माँग से तू स्वयं अपने ही हाथों से मिटा चुका है। अब क्या लेने यहाँ आया है, खाक!

उसका अन्तःकरण, उसे चाबुक पर चाबुक मारे जा रहा था। सहसा स्वर्णदन्ती वैष्णवी, जो सम्भवतः आश्रम की हेड सन्तनी थी, ने मधुर स्वर में लक्ष्मी वन्दना आरम्भ की-“महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, संसारार्णव तारिणी..."

वर्षों पूर्व की स्मृति श्रीनाथ को पागल बना गई। पिता के पीछे खड़ी किशोरी बिन्दी और आज सिर से पैर तक बदल गई सिद्धि माँ! पूजा शेष हुई। फिर हँसती हुई माँ एक-एक कर भक्तों की ओर प्रसाद के फल उछालने लगी। एक सेब मन्त्रमुग्ध-शंखचूड़ भुजंग बने श्रीनाथ की गोद में भी गिरा। एक पल को दाता और भिक्षुक की आँखें चार हुईं। वह हँसी।

ठीक कहा था भाभी ने। “मुझे लगा उसकी हँसी ने मुझे बर्फ की सिल्ली में दाब दिया।" श्रीनाथ का अहं फिर उद्धत हुआ। शंखचूड़ भुजंग ने फन उठाया, “देख, देख मेरा ऐश्वर्य, मेरी सज्जा, मेरा दर्शनीय व्यक्तित्व, देख बिन्दी, देख, तूने क्या गँवा दिया है...” इस बार वह जैसे हृदय की भाषा पढ़कर आँखों-ही-आँखों में उत्तर दे रही थी। पर वह तो उत्तर नहीं, जैसे अमोघ विलम्बित विष था, जो देखते-ही-देखते उसके पूरे शरीर में फैल, उसके अहं के औद्धत्य, आत्मविश्वास, ऊँचे पद को डसकर अवश बना रहा था।

“अब आप लोग स्वगृहों को प्रस्थान करें, माँ की पूजा का समय हो रहा है।" स्वर्णदन्ती ने हाथ जोड़कर कहा और देखते-ही-देखते आज्ञाकारी भक्तों की भीड़ छंट गई। माँ उठकर भीतर चली गई।

नहीं गया श्रीनाथ! उसी यूक्लिप्टस के तने से पीठ सटाकर वह बैठ गया। दूर-दूर तक प्रदीपों की कतार-की-कतार जगमगाने लगी थी, कुछ दीये टिमटिमाए, कुछ बुझे, कुछ जलते रहे। पर वह नहीं उठा। अचानक स्वर्णदन्ती वैष्णवी थाली-भर जलते दीये बरामदे में रखने आई और उसे देखते ही भुनभुना उठी, “यह क्या, तुम यहाँ क्यों बैठे हो! प्रसाद नहीं मिला क्या?"

"मिल गया।"

"तब? जानते नहीं आश्रम में दर्शन के बाद कोई नहीं रुक सकता।"

"मुझे उनसे मिलना है।"

“मिलना है।" उसी के स्वर की नकल कर वह कठोर स्वर में कहने लगी, “कितनी बार हम समझाया रे बाबा, माँ किसी से नहीं मिलती।"

“मुझसे मिलेगी,” उसका दृढ़ आत्मविश्वासी उत्तर सुनकर वह मर्दानी वैष्णवी भी अवाक् खड़ी रह गई।

"जाओ, जाकर कहो श्रीनाथ आए हैं। नहीं कहा तो यह समझ लो कि जब उन्हें पता चलेगा, तुमने मुझे उनसे मिलने नहीं दिया तो तुम्हारी शामत आएगी।"

इस बार वह निर्भीक वैष्णवी भी सहम गई। कौन हो सकता था यह? माँ का कोई विशेष प्रिय भक्त या निकट का कोई आत्मीय?

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