कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
पढ़ाई समाप्त करते ही, एक प्रख्यात कम्पनी ने, वहीं उसका स्वयंवरी चयन कर
लिया और फिर तो आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा। भारत की समृद्धि से जी ऊबने लगा
तो वह अमरीका चला गया, सात वर्ष के प्रवास ने उसे ऐश्वर्यमंडित ही नहीं किया,
अनुभव-समृद्ध भी कर दिया। इसी बीच एक करोड़पति पतिपरित्यक्ता प्रौढ़ा से उसका
परिचय हुआ और देखते-ही-देखते वह परिचय प्रगाढ़ साहचर्य की डोर में बाँध, उसे
उसके विशाल कासल में खींच ले गया। जितना वेतन वह पाता था उतना तो वह अपने
सेक्रेटरी को देती थी, “तुम भी मेरे सेक्रेटरी बन सकते हो, एक सेक्रेटरी से
मेरा काम अब नहीं सँभलता।" वयस में उसकी नवीन स्वामिनी उससे दूनी थी, किन्तु
नाना बैसाखियों से टिके, उस गतयौवना के अस्ताचलगामी प्रखर रौद्र सौन्दर्य
उसकी सँवारी देहयष्टि, अनुभवी पारखी आँखों को छलने में पूर्ण रूप से समर्थ
थी। धीरे-धीरे वह मायाविनी उसे एक से एक दामी उपहारों से लादती प्रेम की
ऐसी-ऐसी मनोहारी अली-गलियों में खींच ले गई कि वह उसका दासानुदास बन गया। बीस
कमरों का कासल, जंगी जहाज-सा विलास की आधुनिकतम सज्जा में सँवरा बजरा, जयपुर
से मँगवाए गए संगमरमर का पटा स्वीमिंग पूल, दीर्धांगी कारें, हिनहिनाते
असंख्य चेतकों से भरा स्टेवल और बहुमूल्य दुर्लभ डिनर सेट, जिसकी रूपाभ आभा
को वह अपने हाथों से चमकाती थी। धीरे-धीरे रिमोट कंट्रोल से गृह के द्वार ही
नहीं, स्वयं गृहस्वामी भी संचालित होने लगा। भले ही विवाह न हुआ हो,
गृहस्वामी तो वह बन ही चुका था।
पर फिर कहते हैं ना कि एक-न-एक दिन सुखद से सुखद परिस्थिति ने अपना कुंचक्र
आरम्भ कर दिया। आधी रात को वह बिना प्रेयसी को पर ही औंधी पड़ी है। शायद देर
तक कोई पार्टी चली थी, बत्ती जलाने पर भी वह नहीं जगी। उसके ध्रुपदी खर्राटे
सुन वह झल्ला उठा। जाहिर था कि मदालसा ने जी भरकर चढ़ाई है। विरक्ति से
श्रीनाथ का रोम-रोम सिहर उठा। आज पहली बार उसे 'डेंचर विहीना' देख रहा था। उस
पोपले मुँह का खुला गह्वर उसे किसी दानव का गुहाद्वार-सा लगा। बचपन में माँ
से सुनी वह कहानी याद हो आई, जब कायाकल्प कर कोई बीभत्स चुड़ैल, पल-भर में
सुन्दरी बन, किसी राजा को रिझा उसकी पटरानी बन बैठती है और फिर एक दिन आधी
रात को राजा अचानक देखता है, वह असावधानीवश उसकी अनुपस्थिति में पुनः अपने
कदर्थ कलेवर में लौट आई है।
श्रीनाथ फिर एक पल भीी वहाँ नहीं रुका। उसके लिए समस्त उपहार वहीं छोड़ केवल
अपना वही सूटकेस लेकर तीर-सा निकल गया था जिसे लेकर तीन वर्ष पूर्व यहाँ आया
था। यद्यपि कायर की भाँति, वह ऐसे भागना नहीं चाहता था, वह होश में होती तो
शायद वह उसे कहकर ही जाता। पर अब, उसे न उसकी चिन्ता थी न पश्चात्ताप। उस
समृद्ध सिंहिका के लिए, कभी भी गबरू जवानों का अभाव नहीं हो सकता था। मुँह
खोलते ही तो एक से एक सजीला प्रणयी, स्वेच्छा से उस दंतहीन गह्वर में टपक
पड़ेगा। चिन्ता तो उसे उसकी थी, जिसे उसने अकारण ही दण्डित कर, एक ही झूठे
साक्षी की गवाही सुन तीस वर्ष का वनवास दे दिया था, पश्चात्ताप की अदृश्य
आग्नेय लपटें तो उसे अब उसके लिए पल-पल झुलसा रही थीं, जिसकी करुण असहाय
दृष्टि ने, एक बार भी दया की गुहार नहीं लगाई। नौकरी की उसे चिन्ता नहीं थी,
भारत जाते ही ऊँची से ऊँची मल्टीनेशनल कम्पनी भी उसे हाथों ही हाथों में उछाल
लेगी। विदेश का अनुभव, स्वयं उसके व्यक्तित्व का ठसका क्या कुछ कम था?
जन्मजात एक्जिक्यूटिव ही तो था वह। सीधे पहुँचा मँझले दद्दा के पास बम्बई।
मँझली ही उसे उसका पता दे सकती थी, जिसके चरणों में पछाड़ खाकर, क्षमा माँगने
वह कुबेर का छत्र त्याग, इतनी दर चला आया था।
"बड़ी देर कर दी श्रीनाथ,” मँझली ने एक लम्बी साँस खींचकर कहा तो वह काँप
उठा, “अब वह तुम्हारी पहुँच से बहुत दूर चली गई है।"
“तब क्या वह नहीं रही?" श्रीनाथ का हृत्पिड घड़ी के पेंडुलम-सा हिल उठा, मुँह
खोलकर कुछ पूछने का भी साहस नहीं हुआ उसे।
फिर मँझली ही कहने लगी, “हाँ श्री, अब वह हमारे लिए नहीं रही। संसार में है
भी और नहीं भी।"
“क्या पहेली बुझा रही हो भाभी, साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं?"
"तब सुनो, तुमने उसे ढूँढ़ भी लिया तो वह तुमसे बात नहीं कर सकती। अब वह
बिन्दी नहीं रही, सिद्धि माई है। मौनव्रतधारिणी साक्षात् योगमाया किसी से
नहीं मिलती। संध्या को एक बार भक्तों को दर्शन देने बाहर निकलती है। मैं भी
वहीं मिली थी।"
“तुम्हें पहचाना?"
“पहचानती कैसे नहीं!"
"कुछ कहा?"
“कहती कैसे? कहा ना मैंने, वर्षों पूर्व उसने मौनव्रत ले लिया, मामाजी के
मरने के बाद वर्षों तक मैं उसका पता नहीं लगा पाई। कभी सुनती मायावती आश्रम
में चली गई है, कभी आनन्दमयी के आश्रम में। फिर ऋषिकेश की किसी पर्वतगुहा में
गहन साधना में लीन रही। फिर उसके एक भक्त ने ही उसका पता दिया था और तुम्हारे
भाई से लड़-झगड़कर मैं अकेली ही उसे खोजने चली गई थी।"
"तुम्हें देखकर कुछ भी नहीं बोली?"
"फिर वही! बोलती कैसे? हाँ, हँसी जरूर थी श्री, पर कैसी हँसी थी! बाप रे बाप,
लगा उस हँसी ने मुझे बर्फ की सिल्ली से दबाकर रख दिया है, सिर से पैर तक
एक-एक शिरा झनझना उठी थी।" भाभी से पता लेकर, वह दूसरे ही दिन वर्षों से रूठी
इष्टमूर्ति को मनाने चल पड़ा था। इस बार दुर्धर्ष उग्र देवी को पराजित करने,
उसने अपने एक-एक आयुध को सान में धरकर परख लिया था। सौ फीसदी खाँटी
एक्जिक्यटिव ने अपने जिरह-बख्तर का एक-एक कलपुर्जा बड़े यत्न से सँवारा था।
जिस ईjणीय श्रेणी से वह अंतर्भक्त था उसके मान की रक्षा करना अब तक उसका
स्वभाव बन चुका था। उसके इस पद के लाइफ स्टाइल का एक व्यापक विशिष्ट
जनग्राह्य रूप है, यह वह जान गया था। मिडनाइट ब्लू विदेशी सूट के नीचे, उसकी
मार्क एण्ड स्पेंसर की हल्के नीले पिनस्ट्राइप की कमीज, सुनिपुण हाथों से
बँधी बूटीदार टाई, जो उसके पास पूर्व प्रेयसी का एकमात्र स्मृतिचिह्न रह गई
थी, हाथ की ओमेगा घड़ी, जो उसकी पुष्ट कलाई पर बँधी, उसके लाख टके वयक्तित्व
के साथ सदम-से-कदम मिलाकर टल रही थी। लाल रंग का विशिष्ट के ब्रीफकेस, जिसकी
नम्बरों की प्रहेलिका केवल स्वामी ही सुलझाकर उसे खोल सकता था और ओंठों से
लगी उसके प्रिय सिगरेट, रोस्टेड टोबैको का मदिर कडुवा धुआँ छोड़ती मार्लबरो।
नवजात शिशु के दूधिया नितम्बों-से कोमल कपोलों को उसने सुगन्धित 'आफ्टर शेव'
की पिचकारी से सिक्त किया तो दोनों गाल, उस विदेशी अगरु-चन्दन की शीतल फुहार
से सनसना उठे। फिर उसने ओ डी कॉलोन की कई शीशियाँ निकालकर मेज़ पर बिखेर दीं।
कौन-सा लगाएँ आज?
इंग्लैण्ड के प्राचीन घराने की समस्त विश्व को सुरभित करने में समर्थ 'वुड्स
ऑफ विंडसर' या फ्रांस की प्रसिद्ध 'रोजेगाले' ? या फिर पश्चिमी जर्मनी की
प्रसिद्ध '4711' ? उसने कुछ सोचकर 'वुड्स ऑफ विंडसर' ही उठा ली। इस सुगन्ध
में ही तो उसे सदा पहाड़ के देवदार, चीड़, बाँज, अंयार की बयार नहीं,
क्रिस्तीन दियोर की जूल की मादक सुगन्ध ही आज पंचशर को समर्थ बनाएगी। पूरे
कमरे में मधुर सुगन्ध ओना-कोना महकाती मँडराने लगी। वह स्वयं अपनी ही देह
गन्ध से विभोर हो, मृगमद से मस्त मृग-सा ही झूम उठा।
ओंठों पर एक विचित्र स्मित तिर उठा। उसे लगा वह एक बार फिर नौशा बना बैठा है।
और दोनों भाभियाँ पिसे 'विस्वार' (चावल का आटा) से उसके ललाट पर धुंदकियाँ धर
रही हैं, साथ में चल रही चुहल उसे नए जोश, नई उमंग, अधीर प्रणय कामना से कैसे
उल्लसित कर रही थी! हल्दी पोतती बड़ी भाभी ने कहा था, “अरी मँझली, इसके
साँवले चेहरे पर जमकर हल्दी पोत देना आज, नहीं तो कन्या पक्ष के गाने इसका
भुरता बना देंगे-बाबा हम गोरी वर साँवरो।"
तीनों भाइयों में से एक वही साँवला था, पर उसी साँवले रंग पर तो नंगी पीठ
डार्लिंग।'
आज भी उसका पौरुष उतना ही दर्शनीय, उतना ही सम्मोहक था, कठोर-से-कठोर नारी
उसकी अवमानना नहीं कर पाएगी, फिर भी, दर्पण में बार-बार अपना प्रतिबिम्ब
देखकर भी उसे न जाने कैसा भय हो रहा था, वह हराने जा रहा था या हारने?
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