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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


पर फिर एक दिन अचानक बिन्दी सूखा-विवर्ण चेहरा और रूखे बाल फैलाए उनके द्वार पर खड़ी हो गई। न साथ में कोई आत्मीय था, न नौकर। सरल ब्राह्मण मन-ही-मन काँप उठा। शनिवार के दिन वह भी पितृविसर्जनी अमावस्या, भला ऐसे मनहूस दिन, ससुरालवालों ने उसे बिना कुछ कहे भेज कैसे दिया? न साथ में सामान था न तन पर गहने। निश्चय ही लड़की ससराल से भागकर चली आई थी। "क्या हुआ बेटी, तू कैसे आ गई?" उन्होंने सशंकित दृष्टि से, उसे सिर से पैर तक देखा। दोनों आँखों के पपोटे सूखे थे जैसे रात-भर रोई हो। सूखे ओठों पर पपड़ियाँ जमी थीं।

“बिन्दी, चल भीतर। कोई देख लेगा तो दस बातें होंगी।" इधर-उधर देख वे उसे एक प्रकार से हाथ पकड़ ही भीतर खींच लाए और कुंडी चढ़ा दी।

"तू बैठ, मैं चाय बना लाऊँ। गला तर कर फिर बात करेंगे।" हाथ की पूजा की पुस्तकों को पलँग पर पटक वे चाय बनाने चले। लड़की को चाय का गिलास थमा वे फिर पाण्डेजी के पितरों को विदा करने चले गए थे। कुछ सोचकर उन्होंने फिर पलटकर दरवाजे पर ताला लगा दिया था। कहीं उन्हें आने में विलम्ब होते देख स्वयं यजमान उन्हें बुलाने न टपक पड़ें। लौटकर आए तो देखा पुत्री चित्रांकित मुद्रा में वैसे ही बैठी है, जैसी उसे छोड़ गए थे। चाय का गिलास बिना पिए ही उसने दूर खिसका दिया था। केशव पण्डित का गला बिना कुछ पूछे ही, बुरी आशंका से अवरुद्ध हो गया। निश्चय ही लड़की ने कहीं गहरी चोट खाई थी। पुत्री का गहन वेदनासिक्त चेहरा देख, उनका कलेजा जैसे किसी ने मरोड़ दिया। काश, आज उसकी माँ होती!


“बिन्दू, बिन्दी...क्या बात है बेटी, अपने बाप को नहीं बताएगी? क्या समधीजी को हमारे लेन-देन से कोई असंतोष है?" इस बार अपनी निर्भीक दृष्टि उसने पिता के विवर्ण चेहरे पर निबद्ध कर दी, "बाबू, मैं अब वहाँ कभी नहीं जाऊँगी, कोशी में कूदकर प्राण दे दूंगी, पर वहाँ नहीं जाऊँगी।" उसकी दृढ़ता निरीह पिता को कँपा गई। पुत्री के मुँह से निकला प्रत्येक वाक्य ब्रह्मवाक्य होता है, यह वे जानते थे।

“आप जानते हैं मैं ऐसे क्यों चली आई?" केशव पण्डित निरुत्तर बैठे ही रहे।

“उन्होंने मुझ पर चोरी का लांछन लगाया बाबू। मुझे कुछ कह लेते पर सबके सामने तुम्हें बुरा-भला कहा।"

“मुझे? पर मैंने क्या किया?"

“कहने लगे कि तुमने अपनी भानजी से साँठ-गाँठ कर, तन्त्र-मन्त्र के पुरश्चरण से उनके बेटे को फाँस लिया। तुमने श्राद्ध-तर्पण कर, जीवनभर मरघट का माल बटोरा है, इसी से चोर बाप की चोर बेटी ने हमारी ही बेटी के गहनों में सेंध लगा दी।"

"चोरी और तू?" सरल धर्मभीरु ब्राह्मण की ईमानदार सफेद मूंछे अविश्वास से काँप उठीं। उनकी इस गाय-सी निरीह बेटी को चोर बनाया उन्होंने! जिसने बाप की अनुमति के बिना, भूखी रहने पर भी कभी कटोरदान से रोटी तक निकालकर नहीं खाई, वह चोर! “हाँ बाबू, पिछले हफ्ते मेरी ननद प्रेमा बम्बई से आई, पता नहीं क्यों आने के दिन से ही मुझसे फूली रही, बात भी नहीं की। आते ही अपने भाई पर बरस पड़ी, ‘और कोई नहीं मिली जो भिखारी ब्राह्मण बेटी को ब्याह लाया? मेरे ससुर कह रहे थे, जब उनके बड़े बेटे की अकाल मृत्यु हुई तो इन्हीं को खर्चा भेजकर बम्बई बुलाया था, ये ही तो हैं हमारे पुरोहित! कश्मीरी शॉल, कपड़े, सोना और कितना कुछ बटोरकर तो ले गए थे। अब क्या हम बराती बन उन्हीं के दरवाजे, रोली का तिलक लगवा, शगुन के लिए हाथ फैला सकते हैं? मुझे तो लगता है श्री, बाबू को जो पश्मीना दिया है उन्होंने वह भी हमारे ही घर की प्रेतशय्या का दान होगा।

“मैं सब सुनती रही बाबू, कुछ भी नहीं बोली। गुस्सा तो तब आया, जब ये सिर झुकाए सब सुनते रहे जैसे सचमुच ही इन्होंने अपराध किया हो। फिर दूसरे ही दिन, प्रेमा ने रो-धोकर सारा घर सिर पर उठा लिया कि उसकी सतलड़ी, झुमके और पायजेब की पोटली किसी ने उसके सूटकेस से निकाल ली है। घर में और था ही कौन? सास-ससर. प्रेमा. ये और मैं। नौकर छुट्टी पर चला गया था। वह भी प्रेमा के आने से दो दिन पहले। पूरे घर की तलाशी ली गई और मेरे खुले बक्से से, मेरे कपड़ों के बीच से अपनी पोटली लटकाकर प्रेमा ने अपने भाई के पैरों पर पटक दी, 'ले, दे आ अपने ससुर को। अरे इतना ही रीझी थी मेरे गहनों पर तो मुँह खोलकर मुझसे माँग लेती। मेरे पास क्या गहनों की कमी थी? छिः, थू पड़े ऐसी नीयत पर। बाबजी, मेरा टिकट खरीद लाइए। मैं अब एक पल भी यहाँ नहीं रहँगी।' मैं उस धूर्त लड़की की हाथ की सफाई देखकर दंग थी। गूंगी बन गई थी बाबू।" उसका गला रुंध गया, “अभी-अभी तो मैं कमरे से गई थी। कब जाकर वह पोटली छिपा आई? मैं चुराती तो क्या बक्सा खुला ही छोड़ आती?

“ये कहने लगे, 'अब बोलती क्यों नहीं? चुप क्यों हो, सच हो तो कह दो तुमने पोटली नहीं छिपाई।'

“मैं क्या कहती बाबू, ऐसे व्यर्थ लांछन का क्या उत्तर देती! मैं एक शब्द भी नहीं बोली। इन्होंने सबके सामने मुझे बाहर धकेल दिया और कहा, ‘जा अपने भिखारी बाप के पास। खबरदार जो कभी इस घर की देहरी लाँधी। यह शरीफों का घर है।' 'रुक जा यह शॉल भी लेती जा', मेरे ससुर ने तम्हारा दिया पश्मीना मेरे मुँह पर पटक दिया, 'अपने बाप से कहना, रख ले. घाट जाने के काम आएगा। ऐसे अशौच का दान वे लेते होंगे, हम नहीं लेते...' मैंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। तीन मील पैदल चलकर भी बस नहीं पकड़ पाई, एक लकड़ी से लदा ट्रक पिथौरागढ़ जा रहा था, उसी दयालु सरदार ड्राइवर ने यहाँ तक पहुँचा दिया।"

केशव पण्डित ने पुत्री के अश्रुसिक्त चेहरे को दोनों हाथों में भरकर शान्त स्वर में कहा, "अभी तेरा बाप जिन्दा है बिन्दी, तुझे पाल सकता हूँ मैं, तुझे पढ़ा-लिखाकर तेरे पैरों पर खड़े करने की हिम्मत है मुझमें।"

“पर अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी बाबू, दो-चार ही दिन में उनका उगला जहर यहाँ भी फैल जाएगा, न आप मुँह दिखाने लायक रह जाएँगे न मैं। हमारा विश्वास ही कौन करेगा, वे समर्थ हैं, बड़े आदमी हैं, उनकी सब सुनेंगे 'हमारी कौन सुनेगा!"

“सुनेगा बिन्दी, अवश्य सुनेगा, वह सुनेगा जिसकी मैंने जीवन-भर सेवा की है, वह सुनेगा जिसकी अदालत में झूठी गवाही नहीं चलती।"

बिन्दी की आशंका व्यर्थ नहीं थी, तीसरे दिन ही इष्ट मित्रों के कौतूहली दृष्टि के अंकुश, बाप-बेटी को बींधने लगे। कुछ ने विश्वास किया, कुछ ने नहीं, पर केशव पण्डित ने स्वयं ही अपनी चुप्पी में अपने को समेट लिया। फिर एक दिन बिन बताए पिता-पुत्री, घर में ताला डालकर कहीं चले गए। बहुत दिनों बाद, मँझली को मामा का पत्र मिला था। बिन्दी को वह आगे पढ़ाना चाहते थे, पर वह किसी भी शर्त पर पढ़ने को राजी नहीं हुई। हारकर वे हरिद्वार चले आए। वहाँ अब भी उनके कई समृद्ध गुजराती यजमान थे, उन्हीं ने कुशावर्त घाट के पास एक धर्मशाला में बाप-बेटी के रहने का प्रबन्ध कर दिया है, जीवन के बचे-खुचे दिन, अब पुण्यसलिला भागीरथी के तट पर ही काट लेंगे- “पर मेरे बाद इस अभागिन का क्या होगा, बेटी, वही चिन्ता मुझे खाए जा रही है।"

तीसरे वर्ष फिर मँझली को बिन्दी ने ही पिता की मृत्यु का समाचार दिया था, “मैं भी अब बहुत दूर जा रही हूँ दीदी, मुझे ढूँढ़ने की कभी कोई चेष्टा मत करना।"

मँझली का चित्त खिन्न हो गया था। देखा जाए तो एक प्रकार से वही जिद कर उसे देवरानी बनाकर लाई थी। पर वह अब कर ही क्या सकती थी। सास, ससुर, श्रीनाथ यहाँ तक कि स्वयं उसके पति भी बिन्दी का नाम भी नहीं सुनना चाहते थे–“अपराध न किया होता तो क्या बाप-बेटी ऐसे चोरों की तरह मुँह छिपाकर भागते?" उसके पति ने ही तो कहा था।

बरसों बीत गए। श्रीनाथ के माता-पिता जब तक जीवित रहे, उससे दूसरा विवाह करने के लिए बार-बार कहते रहे। बहन प्रेमा ने तो एक बार अपने एक कन्वेंट शिक्षित सहेली की चचेरी बहन से रिश्ता भी लगभग पक्का कर दिया था। पर श्रीनाथ ने विवाह नहीं किया। कहीं-न-कहीं उसके शंकित चित्त में छिपा संशय भुजंग बीच-बीच में उसे डसता रहता। क्या वह सीधी-भोली लड़की उसकी बहन का गहना चुरा सकती थी? अपनी बहन को क्या वह नहीं जानता था! झूठी चुगली खाने की तो उसे बचपन से ही आदत थी, कभी नौकरों के विरुद्ध झूठी-सच्ची लगाकर माँ के कान भरती, कभी भाभियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाती। अन्त तक श्रीनाथ को यही उम्मीद थी कि एक-न-एक दिन बिन्दी स्वयं लौट आएगी। अपने पौरुष, पिता के वैभव और। अपनी योग्यता पर उसे शायद आवश्यकता से कुछ अधिक ही भरोसा था।

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