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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


चाँचरी

वह अपलक दृष्टि से उसे देख रही थी। इतने वर्षों बाद भी उसे देखकर वह नहीं चौंकी। महामाया का साक्षात् पार्थिव विग्रह ही क्या सहसा अवतरित हो उसे सम्मोहित कर रहा था! वह अडिग भव्य मुद्रा में पूर्ववत् खड़ी थी-शान्त, निश्चल, अस्खलित किसी अदृश्य प्रलयाग्नि की दीप्त प्रभा से उसकी मनोरम कान्ति रह-रहकर दमक रही थी। श्रीनाथ को एक क्षण को लगा, वह गिर पड़ेगा। उसका दृढ़ संकल्प विषम परिस्थिति से टकराकर चूर-चूर हो गया। कोई दैवी शक्ति उसे जैसे हवा में उड़ाए जा रही थी। खुले केश जटाओं में उलझकर स्वयं एक वेणी में निबद्ध हो आगे लटके थे। 'कुमारसंभव' में कालिदास ने तपोनिरता पार्वती का ऐसा ही चित्र तो खींचा है :

“यथा प्रसन्नैर्मधुरं शिरोरुहैर्जटाभिरप्येवमभूत दानम्"

तपस्यारता पार्वती के सुन्दर केश लटिया गए थे फिर भी उनका मुख उतना ही मधुर दिखता था जितना सँवारे केशों के साथ। केवल आँखें बदल गई थीं। उस विकृत दृष्टि में अब न जिज्ञासा थी न कौतूहल।

मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण भी आते हैं जब हृदय विवेचनाशून्य हो, वाणी को भी मूक बना देता है। श्रीनाथ के जीवन में भी आज शायद यही कठिन क्षण आ गया था जब पैरों तले की जमीन उसे प्रति पल धरा में सा रही थी। घास-फूस की उस पर्णकुटी में कैसी अद्भुत शान्ति थी, कैसी निःस्सीम शून्यता! फूस को हटाकर बनाई गई चौकोर खिड़की से आ रही ठण्डी हवा के तीव्र झोंके ने बिन्दी के भगवा आँचल को क्या जानबूझकर ही विचलित कर दिया कि देख श्रीनाथ, आँखें खोलकर देख, तूने कैसी मूर्खता कर, इस रत्न को पल-भर में गँवा दिया! इस आलमगीर इमारत की क्या एक भी ईंट खिसकी है पगले! प्रौढ़ा होने पर भी वह आज से तीस वर्ष पूर्व की वही कमनीय मूर्ति है। किसी भी पार्थिव सम्पर्क ने उसे आबद्ध नहीं किया है। वह तो जन्म से ही तपस्विनी थी मूर्ख, संसार में रहकर भी संसार से दूर।

श्रीनाथ, एक बार फिर गूंगा बना खड़ा रह गया। सचमुच ही जन्मतपस्विनी थी वह ! उसका काम के प्रति यही शीतल मनोभाव तो श्रीनाथ को कभी पागल बना गया था।

इस यौवनाकान्त किशोरी को उसने पहली बार मँझली भाभी के मायके में देखा था, वह भी ऐसे ही महालक्ष्मी पूजन के दिन। भाभी के मामा केशव पण्डित ही पूजा करा रहे थे :

"महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं
संसारार्णव तारिणी
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं
नमस्तुभ्यं सुरेश्वरी

पहले उसने पूजा कर रहे पिता के पीछे खड़ी विन्दी को नहीं देखा। पूरे कमरे में हवन का धुआँ फैला था, सुगन्धित पकवानों की थाल सजा रही मँझली भाभी, उसे देखते ही खिल गई थी, "अरे तुम कब आए श्री...छुट्टियाँ हो गईं क्या?"

“छुट्टियाँ तो नहीं हुईं, हड़ताल चल रही है। इसी से सोचा क्यों न घर ही चला जाऊँ।"

"बैठो, बैठो, बिन्दी, चाय बना ला तो जल्दी..." और तब ही उसकी दृष्टि बिन्दी पर पड़ी। कैसा आश्चर्य था कि इतनी बार वह मँझली भाभी के मायके आया है, इससे पहले कभी नहीं देखा-हाँ, सुना अवश्य था कि केशव पण्डित की एक अपूर्व सुन्दरी पुत्री है जिसे गाँव के लोग 'चाँचरी' कहकर पुकारते हैं। सचमुच चाँचरी (परी) ही थी वह। उन दिनों पहाड़ में कुआँरी लड़कियाँ, घेरदार सुत्तन और लम्बा कुरता पहना करती थीं, काली सुत्तन और लाल नेपाली छींट के लम्बे कुर्ते में उसका गौर वर्ण और भी निखर आया था। वह उसे बार-बार देख रहा था। मँझली भाभी ने चुटकी भी ली। कान के पास मुँह ले जाकर कहा, "क्यों हो लालज्यू (देवर), हमारी चाँचरी को देखकर रीझ गए क्या? कहो तो बात चलाऊँ!" रंगे हाथों पकड़े जाने पर चोर की जो दशा होती है वही दशा, उस दिन उसकी भी हुई थी। उस दिन तो वह भाभी की चुटकी का उत्तर दिए बिना ही चला आया, पर गरमी की छुट्टियों में घर आया तो उसने साहस कर, स्वयं अपना दुःसाहसी प्रस्ताव भाभी के सामने रख ही दिया। दुःसाहसी इसलिए कि तब तक पहाड़ में किस पुत्र को ऐसा साहस हो सकता था कि स्वयं अपने मुँह से अपने रिश्ते की बात कहे।

"बड़ी देर कर दी श्री," भाभी ने एक लम्बी साँस खींचकर कहा, “मामा ने तो उसका रिश्ता पक्का कर दिया है, लड़का ओवरसियर है और पिता पटवारी-दूध, दही, शहद की नदियाँ छलकती रहती हैं घर में। फिर न सास है न ननद-राज करेगी हमारी चाँचरी।" श्रीनाथ सारी रात सो नहीं पाया था-साला ओवरसियर क्या खाकर उस हीरे को हथियाएगा...देख लेंगे हम!

और सचमुच ही देख लिया था उसने! घर-भर से बैर मोल ले, वह हीरे को हथिया तो लाया पर उसकी चकाचौंध सह नहीं पाया। दो ही दिनों में उसे लगा कि बिन्दी के रहस्यमय व्यक्तित्व में ऐसा कुछ अवश्य है जो सामान्य नारी से भिन्न है। एक तो वह बहुत कम बोलती है, चार महीने बीतने पर भी वह कभी अपने वाचाल सहचर के सम्मुख, अपना हृदय खोल कर नहीं रख पाई थी।

"क्या बात है बिन्दी, अपने घर की बहुत याद आ रही है क्या?"

उत्तर में वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसे देखकर दृष्टि झुका लेती।

"तुम क्या मुझसे विवाह नहीं करना चाहती थीं?" फिर वही निर्लिप्त दष्टि का व्यर्थ उत्तर। कभी-कभी वह बौखला जाता।

क्या सचमुच ही किसी अदृश्य लोक से अवतरित चाँचरी ही थी वह! यद्यपि उसकी सेवा में, कहीं कोई त्रुटि नहीं थी किन्तु वर्षों की अनुभवी गृहिणी की-सी उस दक्षता में, कहीं आवेग नहीं था। क्या अधीर प्रणयी पति के उग्र प्रणय-निवेदन ने ही उसे ऐसा सहमा दिया था, या वह पत्थर की ही तराशी गई निष्प्राण मूर्ति थी? उसकी इसी चुप्पी ने श्रीनाथ के प्रेम को और उत्कट बना दिया, अब वह उसे कभी-कभी ऐसे व्यंग्यबाणों से बींधने लगा कि वह तिलमिला उठती।

"क्यों जी राजकन्या, ओवरसियर साहब बहुत याद आ रहे हैं या पटवारी की राजमहल की हुड़क सता रही है?" शान्त दृष्टि से उसे देखकर, वह बिना कुछ उत्तर दिए बाहर चली जाती। उसकी वही सहिष्णुता श्रीनाथ को और असहिष्णु बनाती गई। बड़ी जिठानी-जेठ विवाह निपटाते ही अपनी नौकरी पर मध्य प्रदेश चले गए थे। मँझली के पति बड़ौदा रहते थे। वह भी चली गई। घर में सास-ससुर और वे ही दोनों रह गए थे। एक तो श्रीनाथ घर-भर के विरोध को ताक पर रख, अपने मनपसन्द की बहू ले आया था, जिसके लिए उसकी माँ ने उसे कभी क्षमा नहीं किया था। संसार की कौन-सी जननी भला पुत्र की अपनी मनपसन्द बहू ले आने पर क्षमा कर पाती है! उस पर उसकी माँ कमला अपने कर्कश स्वभाव के लिए पूरी बिरादरी में यथेष्ट कुख्याति अर्जित कर चुकी थी। कोई नहीं मिलता तो हवा से ही लड़ती रहती। पिता ने भी उस विवाह का अन्त तक विरोध किया था, “एक तो अभी तेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई, उस पर कर्मकांडी ब्राह्मण की पुत्री ला रहा है। सोच-समझकर ही ऐसा फैसला किया जाता है। बाप ने न जाने कितने घरों में प्रेतशय्याएँ बटोरी होंगी, श्राद्ध-तर्पण करवाया होगा, नाक ही कटवाने पर तुला है तो कटवा ले-हमसे क्यों पूछता है!"

पर श्रीनाथ भी टस से मस नहीं हआ। उसकी एक ही बहन थी प्रेमा. वह भी उसके विवाह में नहीं आई। न ही उसकी ससुराल से ही कोई आया। इसी से श्रीनाथ इतने घोर विरोध से ब्याहकर लाई उस अहंकारी, बित्ते-भर की लड़की के व्यवहार से क्षुब्ध हो उठा। किसी से मुँह खोलकर कुछ कह भी तो नहीं सकता था। रात को भी वह छुईमुई बनी जा रही बिन्दी को जोर से भुरा-भला नहीं कह पाता था। बगल का कमरा अम्मा-बाबू का था। सुन लिया तो कहेंगे-जा ठीक हुआ, मर, भोग अपना किया...और ला पुरोहित की बेटी!

वह रात-भर पिंजरे में बन्द खूखार शेर-सा ही कमरे में चक्कर लगातेलगाते देखता-दोनों हाथ छाती पर धरे उसकी प्राणप्रिया, दन्तहीन भोले शिशु की-सी गहन निद्रा में निमग्न है। न चाह, न चिन्ता-मनुआ बेपरवाह!

क्या वह छोकरी नहीं जानती, घर-भर की कैसी आतप दृष्टि झेलकर, वह उसे अपने गृह की देहरी लँघा पाया है? किस मिट्टी की बनी थी वह ? उसके पिता तो ऐसे नहीं थे। विदा के पूर्व वह दीन ब्राह्मण जामाता के पैरों पर ही गिर पड़ा था, "तुम निश्चय ही देवता हो बेटा, नहीं तो क्या इस दरिद्र ब्राह्मण को ऐसे उबार लेते? कहाँ राजा भोज तुम और कहाँ मैं गंगू तेली! सिवाय कुश कन्या के मेरे पास है ही क्या?" किन्तु पिता की कृतज्ञ विनम्रता का शतांश भी वह अब तक उनकी अहंकारी पुत्री में नहीं खोज पाया था! कभी-कभी तो अपनी विवशता पर उसे ऐसा क्रोध आता कि मन करता, उठाकर उसे खिड़की से नीचे फेंक दे-टूट जाएँ दोनों टाँगें और उसका अहंकार पल-भर में चूर-चूर हो जाए। उसके सोने के बाद ही वह कमरे में आती और उसके उठने से पहले ही गायब हो जाती। नहा-धोकर घण्टों ध्यानमग्ना पद्मासन में बैठी न जाने किन-किन शतसहस्र मन्त्रों का पाठ बुदबुदाती रहती। दिन-प्रतिदिन माँ की बड़बड़ाहट कड़वी होती जा रही थी, “अरे श्री, तेरी मीराबाई की पूजा, ध्यान-मनन पर्व पूरा हुआ कि नहीं? कह दे, तेरी चाय ले जाएँ-कहाँ बहू चाय बनाकर हमें देती, कहाँ मैं साहब, मेम साहब को चाय बनाकर भेज रही हूँ।" वह फिर बिना कुछ कहे चौके से चाय का प्याला लाकर श्रीनाथ को थमा देती। ऐसे ही क्षणों में कभी श्रीनाथ उसकी उदासीनता की प्राचीर को चीरता, हाथ पकड़ उसे अपने बिस्तर पर खींचने की चेष्टा करता तो वह झटके से हाथ छुड़ाकर फिर चौके में अदृश्य हो जाती। श्रीनाथ के जी में आता, चौके से ही उसे खींचकर बिस्तर पर पटक दे और अपने पुष्ट बाहुपाश में खींच, उसका समस्त अहंकार चूर-चूर कर दे। पर उसे ऐसा करने का अधिकार ही अब कहाँ रह गया था! जानबूझकर ही तो उसने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी। कुछ तो होगा लड़की में जो गाँववाले उसे चाँचरी कहते थे! आखिर क्या कमी थी उसमें? तीनों भाइयों में वही सबसे व्यक्तित्व सम्पन्न था, अगले वर्ष वह इंजीनियर बन जाएगा, कैसी-कैसी वेगवती धाराओं पर बाँध-निर्माण की कुशलता प्राप्त कर चुका था वह। (ऊँची-ऊँची इमारतों का अंगविन्यास उसके बाएँ हाथ का खेल था, अचल मशीनों के बिगड़े कलपुर्जो को ठीक कर उन्हें सचल बनाने की क्षमता, बिना किसी के सिखाए ही उसने बचपन में प्राप्त कर ली थी। भाइयों की बिगड़ गई कार हो या घर का सहसा निष्प्राण बन गया फ्रिज, घर का उड़ गया फ्यूज तो वह दस ही वर्ष की उम्र में बना लेता था, किन्तु एक सामान्य शिक्षित अहंकारी जिद्दी लड़की के दिमागी कलपुर्जो को ठीक करने में कितना असहाय बन गया था, कितना बिबस!

उसके दोनों भाई उच्च पदों पर थे। दोनों भाभियाँ सुसंस्कृत सम्पन्न गृहों से आई थीं। पिता सार्वजनिक निर्माण विभाग के अवकाश-प्राप्त चीफ इंजीनियर थे। प्रासादोपम कोठी थी। दोनों भाई छुट्टियों में, अपनी-अपनी कारों में आते, भतीजे-भतीजियाँ अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले सलीकेदार सभ्य शिष्ट बच्चे थे। अम्मा के सनातनी चौके में भी अब उनके लिए अण्डे उबलने लगे थे। वे आते तो बिना किसी आपत्ति के, दस बजे तक चिरपुरातन पहाड़ी लंच टाइम की घड़ी की सुई, स्वयमेव द्विप्रहर के एक बजे की ओर घूम जाती। तब क्या यही परिवर्तित संस्कृति का आघात, उस बेचारी को ऐसे सहमा रहा था या इस घर की उच्च नागरिकता उसे हीनभावना से गुमसुम बनाती जा रही थी? इधर श्रीनाथ की छुट्टियाँ शेष होने को थीं। अपने प्रस्थान का प्रसंग उसने कई बार सुनाया, उसने बड़ी ललक से पत्नी के कमनीय चेहरे की ओर देखा-शायद सम्भावित वियोग का अवसाद उस रहस्यमय चेहरे को विवर्ण कर दे! पर नहीं, वह सुनी की अनसुनी कर फिर अपनी उसी आनन्दमूर्छा में खो गई। मातृहीना विंध्यवासिनी पिता की इकलौती सन्तान थी। सोलह वर्ष की आयु में जब उसने हाईस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और आगे पढ़ने की जिद की तो पिता ने कहा था, "बहुत पढ़ाई हो गई। अब तेरे लिए रिश्ता ढूँढ़ रहा हूँ। तुझे क्या नौकरी करनी है?" इसी बीच श्रीनाथ का रिश्ता सहसा उनका जीर्ण छप्पर फाड़कर टपक पडा तो कौन मुर्ख पिता भला ना कर सकता था! उस पर स्वयं उनकी भानजी ने जोरदार सिफारिश की थी, “आँखें बन्द कर 'हाँ' कर दो मामा! हमारे घर के पुरुष शराब तो दूर सिगरेट, पान, तम्बाकू भी नहीं छूते। वह तो हमारी बिन्दी का भाग्य ही ऐसा था जो श्रीनाथ ने इसे स्वयं ही पसन्द कर लिया।"

फिर एक प्रकार से चट मँगनी पट ब्याह ही हुआ था उसका! पुरोहित पिता ने यथासाध्य दहेज भी दिया था, वैसे तब पहाड़ की शादियों में दिया ही क्या जाता था! दामाद को जरीदार लाल दुशाला, रेशमी शॉल, बहुत हुआ तो एक घड़ी और एक अंगूठी! केशव पण्डित ने पहली बार पहाड़ के नियमों को तोड़ वर के पिता के लिए भी एक दामी पश्मीना रख दिया। उसके समृद्ध यजमानों ने, उन्हें विवाह, जन्मोत्सव, उपनयन आदि अनुष्ठानों में बहुत कुछ दिया था, जिसे उन्होंने जन्मकृपण की निष्ठा से आज तक दाँतों तले दबा, इसी पुत्री के विवाह के लिए सेंतकर धरा था। तब पहाड़ के सम्पन्न गृहों में बाल-विधवाओं का अभाव नहीं था, पूजापाठ, व्रत-अनुष्ठानों में ही उनका अभिशप्त जीवन व्यतीत होता था। ऐसे अनुष्ठानों में वे मुक्तहस्त से दानपुण्य किया करती थीं और केशव पण्डित ही थे उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय पुरोहित। उनका भव्य व्यक्तित्व, तेजोमय चेहरा, सुस्पष्ट संस्कृत का उच्चारण, निर्लोभी स्वभाव उन्हें एक-एक लक्षवर्तिका में ही प्रचुर सुवर्णदान से मण्डित कर जाता। पुत्री के विवाह में केशव पण्डित ने अपना यही संचित सुवर्ण कोष लुटाकर रख दिया था। किन्तु फिर भी समधियाने में अपनी विजयपताका नहीं फहरा पाए। भाड़ में जाए समधी, दामाद तो लाखों में एक मिला था। किन्तु वह जो एक दिन स्वयं उनके द्वार पर उनकी पुत्री का हाथ माँगने दीनहीन याचक बना गिड़गिड़ा उठा था, वह भी अचानक ऐसे पैंतरा बदल लेगा, इसका उन्हें स्वप्न में भी आभास नहीं था। विवाह को पाँच महीने बीत गए और बेटी एक बार भी मायके नहीं आई। पर नहीं आई इसका अर्थ ही था वह अपने नए घर में सुखी है और अपने नए सुख में पिता को भूल-बिसर गई है। इससे बड़ा सुख और किसी पिता के लिए हो ही क्या सकता था!

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