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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


“अच्छा जा कल तेरी सीट बुक करवा देते हैं।" तब सखु को क्या पता था कि साक्षात् काल ही उसकी जीभ पर बैठा बोल रहा है।

"घूमने नहीं चलेगी?"

"नहीं मास्टरनी, तू चली जा। मेरा सिर भारी लग रहा है।"

सखु निकल ही रही थी कि आनंदी ने पुकारा, “मेरा एक काम करेगी मास्टरनी?" “अब कौन-सा काम अटक गया? लाख बार समझाया कि चलते वक्त मुझे मत टोका कर!"

सखुबाई को चलते-चलते किसी का भी टोकना अच्छा नहीं लगता था। जब-जब टोकी गई तब-तब कुछ-न-कुछ अनिष्ट अवश्य होता था।

आनंदी ने तकिये के नीचे से एक मखमली थैला सखु को थमा दिया। “यह क्या है? तेरा एयर टिकट?"

आनंदी ने थैली की डोरी सरकायी और सोने के दो भारी गोखरू और एक पन्ना की हीरे-जड़ी अंगूठी उसके हाथ पर रख दिए।

“यह क्या, ऐसे भारी गहने तू सिरहाने रखकर सोती है! अरी, कोई चुरा लेता तो!"

"नहीं, इन्हें चुराये ऐसा चोर अभी पैदा नहीं हुआ। मेरी उस नानी के हैं जिसने गंगा में पैर डुबोकर स्वेच्छा से प्राण त्याग दिए थे। इच्छा-मृत्यु ही हुई थी नानी की। मुझे कभी कुछ हो जाये तो इनमें एक-एक गोखरू राधा-रुकमन को दे देना। उन्होंने तो ये कभी देखे भी नहीं हैं। नहीं तो क्या आज तक बच पाते।"

“अपने ही पास रख डोकरी, मैं क्या कोई लॉकर हूँ जो तेरी यह अमानत धरूँ?

"नहीं मास्टरनी, तुझे मेरा कहना मानना ही होगा।"

"और इस अंगूठी का क्या करना है? तेरी बहू को देनी है न? उसकी काली उँगलियों में यह पन्ना खूब फबेगा!"

“नहीं, यह तू पहनेगी," बड़े प्यार से उसने फिर वह अँगूठी सखु की उँगली में पहना दी थी।

"मैं इतनी दामी अँगूठी नहीं ले सकती। फिर मैं कब यह सब पहनती हूँ?"

"इसे पहनेगी तू। जब मैं नहीं रहूँगी और यह अंगूठी तेरी उँगली में रहेगी तो मुझे हमेशा यही लगेगा-मैं तेरी उँगली थामे तेरे साथ-साथ चल रही हूँ मास्टरनी।"

उस दिन सखुबाई का मन घूमने में भी नहीं लगा। दस कदम चलकर वह बड़ी देर तक 'आश्रय' की ही बेंच पर बैठी रही। फिर उठकर मेस से दो प्याले चाय के लिए कमरे में गई, आनंदी जैसे घोड़ा वेचकर सो रही थी-चलो सोती रहे कुछ देर, सिर भी भारी है बेचारी का।

उसने अखबार उठा लिया। चाय पी। एक-एक खबर पढ़ी। आनंदी अभी उसी गहरी नींद में सो रही थी-दोनों हाथ छाती पर धरे। यही उसकी प्रिय मुद्रा थी।

“अरे डोकरी उठ। रामायण के कुंभकरण की छूत लग गई है क्या? बजाऊँ नगाड़े, चला दूं हाथी?"

पर आनंदी न हिली, न डुली। हाथ का प्याला धर, चिंतातुरा सखु उस पर झुकी। हाथ थामा तो कटी डाल-सा फत्त पलँग पर ही गिर गया।

वह भागकर सबको बुला लाई-“आह, कैसी मौत पायी भाग्यवान ने!" सब झुक-झुक उन निष्प्राण गौर चरणों पर माथा टेक रहे थे। पर सखु एकदम बुत बनी उस शांत भव्य चेहरे को एकटक देख रही थी। कैसी अशुभ वाणी · निकली थी उसके मुँह से। उसकी प्राणप्रिया सखी ने क्या कभी उसका कोई आदेश टाला था?

जहाँ समवेत सिसकियाँ कमरे में सन्नाटे को चीर अगरबत्ती के धुएँ के साथ मँडरा रही थीं, वहीं सखु की निष्प्रभ आँखों की पलकों का एक पक्ष्म भी गीला नहीं हुआ। वह पत्थर बन गई थी। “तू रोना नहीं, मास्टरनी," उसने एक दिन कहा था, “मुझे बड़ा दुःख होगा।"

वह नहीं रोई, पर सपने की एक-एक बात उसने पूरी की। सिरहाने तुलसी का गमला, गमले पर लड्डू गोपाल, मुख में तुलसीदल और फिर कानों के पास मुँह सटाकर स्थिर निष्कम्प कंठ से उसने कहा, 'ओं नमो वासुदेवाय, ओं नमो वासुदेवाय।' चौकीदार को शहर भेज उसने वैसा मोटा पुष्पहार मँगाकर आनंदी के गले में डाल दिया।

अर्थी उठी तब भी वह बड़ी देर तक वहीं बैठी रही। फिर अपने कमरे में चली गई। कर्मचारी आकर कमरा धो गए। पलँग हटा दी गई। न जाने कौन संस्कारी बुजुर्ग देहरी पर एक दीया भी जलाकर धर गया, जिससे आनंदी का प्रेत अपने नवीन मार्ग में न भटके! एक गुजराती आश्रयवासिनी ने आकर उसके कंधे पर हाथ धरा, "कहो तो बेन, मैं आज तुम्हारे कमरे में सो जाऊँ?"

"नहीं," कुछ रूखे स्वर में उसने कहा था। अब जीवन भर कोई उसके कमरे में नहीं सोयेगी। रात-भर वह खाली कमरा उसे हड़के कुत्ते-सा काट खाने को दौड़ता रहा। लगता था अभी आकर पुकारेगी, 'मास्टरनी, सो गई क्या?'

धीरे-धीरे तीन महीने बीत गए। आनंदी की पुत्रियों को खबर दे दी गई। पर वे दोनों परिवार सहित बैंकाक घूमने गई थीं-"हमारी माँ का बक्सा सँभालकर रख दें-हम लौटने पर ले लेंगी।"

एक सखुबाई ही जानती थी उस सूटकेस में क्या है-चार सूती इकलाई धोतियाँ, तीन पेटीकोट, चार कुर्तियाँ, दो चादर, एक टूटा चश्मा, वर्षों से बंद पड़ी एक अलार्म घड़ी और बैंक की पासबुक, जिसमें कुल जमा थे सत्ताईस रुपये बावन पैसे!

यह उस बेटे की माँ की विरासत थी जिसे महीने में बीस हजार का वेतन मिलता था, जिसका अपना अपार्टमेंट था, स्विमिंग पूल था, तीन-तीन गाड़ियाँ थीं। उन दामादों की सास की विरासत थी जिनके घरों में कुबेर का छत्र बड़ी गहराई तक धंसा था।

बेटियाँ आईं। सखुबाई बरामदे में बैठी चाय पी रही थी। दोनों ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, जैसे पहचानती ही न हों-जबकि दोनों जानती थीं कि वही उनकी निर्वासिता अम्माँ की एकमात्र अंतरंग सखी है!

एक बार भी उन्होंने आकर उससे माँ की अंतिम यात्रा का वृत्तांत पूछा होता तो शायद वह तत्क्षण उनकी माँ की धरोहर उन्हें थमा देती। पर उनकी अवज्ञा से उसका खून खौल गया। ले जाओ सूटकेस और पहनो चार साड़ियाँ, तीन पेटीकोट! वह मन-ही-मन ठहाके लगा रही थी।

संध्या को वह घूमने गई तो उसकी मुट्ठी में आनंदी की मखमली थैली बन्द थी। काँटेदार चूहादती गोखरू थैली में बन्द होने पर उसकी मुट्ठी में गड़ रहे थे। वह जाकर अपनी उसी चट्टान पर बैठी। थोड़ी देर तक आँखें बन्द किये बैठी ही रही। फिर उसने एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर दोनों गोखरुओं के साथ मूंद दिया। पत्थर रहेगा तो थैली नहीं लौटेगी नहीं तो गुरुविंदर की लाश की भाँति समुद्र फिर तट पर पटक जाएगा! पूरी शक्ति से उसने थैली को जोर से समुद्र में उछाल दिया। एक क्षण को वह लाल थैली लहरों में उठी-गिरी अगाध जलराशि के अतल तल में विलीन हो गई। सखुबाई देर तक खड़ी देखती रही। थैली नहीं लौटी।

बड़ी श्रद्धा से उसने अपने दोनों सींक-से पतले हाथ आकाश की ओर उठाकर अपनी दिवंगता सखी को प्रणाम किया, 'माफ करना डोकरी, तेरी अमानत तुझे ही लौटा रही हूँ। जिन हाथों ने तुझे ऐसी बेरहमी से अपने घरों से बाहर ढकेला, उन हाथों में मैं ये गोखरू नहीं पहना सकती। अँगूठी मेरी उँगली में है। पर यह तो तेरी उँगली है न, कैसे इसे छुड़ा हूँ। माफ करना डोकरी!'

फिर जो लौह-स्तंभ-सी मास्टरनी अपनी सखी की अर्थी उठने पर भी नहीं रोयी थी, सहसा टूट गई उसका चेहरा रुदन की असंख्य झुर्रियों में सिकुड़ा, ओंठ काँपे और फिर झर-झर कर बहते आँसू उसके काँपते चिबुक से ढलकते उसकी सपाट छाती को भिगो गए-जैसे किसी कठिन शिलाखंड को भेद सहसा किसी पहाड़ी झरने का स्रोत फूट गया था!

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