कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
सखुबाई को लगता, उसके पुत्र से भी अधिक जघन्य अपराध आनंदी की संतान ने किया
था। ऐसी संत निरीह जननी को कैसे यहाँ एकदम अनजान परिवेश में ढकेल दिया! चार
वर्षों में कुल दो बार उसकी बेटियाँ उससे मिलने आयी थीं-अलबत्ता चिट्ठियाँ और
नववर्ष के कार्ड आ जाते। होली के दिन पत्ता भी हिलता तो आनंदी चौकन्नी हो
जाती। उस दिन 'आश्रय' के कई भाग्यशाली बुजुर्गों के आत्मीय स्वजन उन्हें
अबीर-गुलाल का टीका लगाने आते। आनंदी की बेटियाँ पिछली तीन होलियों से माँ से
मिलने नहीं आयी थीं। फिर भी कहीं-न-कहीं आशा की टिमटिमाती ज्योति को आनंदी
हथेली की ओट से बचाए सेंत रही थी।
“डोकरी, चल घूमने, इतनी सुबह तो तेरी बेटियाँ आने से रहीं!"
उस दिन फागुनी बयार ने मौसम में सुबह से ही गुलाबी मिठास घोल कर रख दी थी।
नित्य की भाँति दोनों सखियाँ उँगली थामे अपनी प्रिय चट्टान पर जाकर बैठ गईं।
सखुबाई ने स्वभाववश आनंदी को फिर छेड़ दिया, “क्यों री! क्यों मुँह लटकाए
बैठी है? बेटे-बहू याद आ रहे हैं या बेटियाँ?"
आनंदी चुप रही। उसके निरर्थक प्रश्नों का वह कभी उत्तर नहीं देती थी।
“अरी कुछ तो बोल, आज होली का दिन है। आज के दिन तो लोग कुत्ते-बिल्लियों को
भी रंग देते हैं।"
"हमें अब कौन रँगेगा, मास्टरनी?" "क्यों? मैं क्या मर गई हूँ?"
और फिर सखुबाई ने न जाने कहाँ से छिपाई गई अबीर-गुलाल की पुड़िया निकाली और
आनंदी के गोरे चेहरे को लाल बना दिया। गालों पर, ललाट पर, सफेद बालों पर रंग
पोतती वह हँस-हँसकर चीखने लगी, “होली है! होली है!"
आनंदी इस रंगीन हमले के लिए प्रस्तुत नहीं थी। अचकचाकर वह पानी में लगभग
गिरने ही को थी कि सख ने थाम लिया।
“क्या करती है मास्टरनी!” आँचल से गाल पोंछती आनंदी ने सँभलते ही इस बार
सखुबाई के हाथ की पुड़िया छीन, मुट्ठी-भर रंग पोत सखुबाई को लंगूर बना दिया,
“ले, तू क्या समझती है, मैं रंग खेलना नहीं जानती? जरा अपनी सूरत तो देख!"
पोपले मुँह की हँसी ने आनंदी का चेहरा उद्भासित कर दिया।
"और अपनी? अपनी शक्ल देखी है तूने? हाँ-हाँ, कैसी लग रही है तू?" सखुबाई
जोर-जोर से हँसने लगी। बड़ी देर तक दोनों एक-दूसरी को रँगती, मजाक उड़ातीं,
हँसती-हँसती दोहरी हो गईं।
उनका चौथापन सहसा समुद्र बहा ले गया और एक-दूसरी को रंग से, गीली रेत से
भिगोती दो अल्हड़ किशोरियाँ ही एक-दूसरे से जूझ रही थीं।
"चल, हाथ-मुँह धो ले! 'आश्रय' वाले देखेंगे तो क्या कहेंगे।"
आनंदी ने खिसियाए स्वर में कहा, “जानती है, मास्टरनी, मैंने उनके जाने के बाद
कभी होली नहीं खेली..."
"तब क्या पहले खेली थी...बता न डोकरी!"
क्या गौने के बाद की उस पहली होली को वह कभी भूल सकती थी? चौदहवाँ लगते ही तो
गौना हुआ था उसका। पर गौना होने पर भी तो महीनों तक पति की झलक भी उसे देखने
को नहीं मिली थी। सास कहती थी, बहू अभी लरकौनी है, मेरे पास सोएगी। रातें सास
के साथ बीततीं और दिन में कई जोड़ी तइया, चचिया सास, ननद, देवरों के बीच। वह
पति से दोटूक बात भी नहीं कर सकती थी। फिर होली आयी और वह तड़के ही कुएँ पर
पानी भरने गई तो वे जंगली बिल्ले-से ताक लगाए बैठे थे-“मुझे देखते ही झपटे और
रंग की पूरी बाल्टी उड़ेल दी!”
“और फिर क्या री, डोकरी? बड़ी छिपी रुस्तम निकली तू!"
"चल परे हट!" आनंदी के गोरे चेहरे की जिन झुर्रियों की दरारें सखु के अबीर से
अछूती रह गई थीं, वे भी सहसा अदृश्य अबीर से अबीरी हो उठी-पूरे छप्पन वर्ष
बीत गए थे उस होली को, पर सत्तर वर्ष की होने पर भी आनंदी आज भी वह दिन नहीं
भूली थी।
स्वयं सखुबाई की स्मृतियाँ उसका कलेजा मरोड़ रही थीं, “चल, अब चलें...शायद
तेरी बेटियाँ आईं हों..."
पर कोई नहीं आया।
उसी रात को आनंदी सहसा उठकर बैठ गई।
"क्या हुआ, डोकरी? सपने में क्यों गोंगिया रही थी...सपना देख रही थी क्या?"
"हाँ मास्टरनी, अजीब सपना था..."
"क्या देखा?"
"अभी नहीं, सुबह सुनाऊँगी-सूरत उगने से पहले किसी ब्राह्मण को शुभ सपना सुनाओ
तो सच होता है...।"
"मार गोली ब्राह्मण को। इस जमाने में ब्राह्मण को सुनाए गए सपने सच नहीं
होते...शूद्र को सुनाए गए सपने ही फलते हैं।"
"नहीं, कल सुनाऊँगी।"
सुबह नहा-धोकर आनंदी उसके पास खड़ी हो गई थी, “कल मैंने देखा-मैं जमीन पर
लेटी हूँ। मेरे सिरहाने तुलसी का गमला है, उस पर मेरे लड्डू गोपाल बैठे हैं।
मेरे मुँह में तू तुलसीदल डालकर मेरे कानों में कह रही है, ओं नमो वासुदेवाय,
ओं नमो वासुदेवाय, अचानक मेरी देह ऊपर उठने लगी है और मैं जमीन पर पड़ी अपनी
देह को भी देख पा रही हूँ। तभी आकाश से एक सोने का रथ उतरा मास्टरनी-ठीक जैसा
टी.वी. की रामायण में उतरता है।"
“यह सब तेरे टी. वी. का ही प्रताप है। वही भूत तेरे सिर पर चढ़ गया है।"
सखुबाई ने उसे भुनभुनाकर बीच में ही टोक दिया।
"नहीं मास्टरनी, मेरे गले में अजगर-सी मोटी वैसी ही पुष्पमाला है जैसे कभी
प्रधानमंत्री के गले में रहती है और फिर मुझे कोई विमान में ठेलकर चढ़ा देता
है। मैं तुम सबको हाथ हिला-हिलाकर विदा ले रही हूँ।"
“ठीक जैसे प्रधानमंत्री हाथ हिलाते हैं, क्यों?"
“नहीं मास्टरनी, यह सपना सच होगा। मेरे सपने कभी झूठ नहीं होते-कब से तो मौत
को बुला रही थी!"
“अरी जाहिल औरत, बुढ़ापे में दो ही चीजें तो बुलाने से नहीं आतीं-मौत और
नींद। आया कुछ समझ में?"
छः महीने बीत गए, बेचारी आनंदी कहाँ बैठ पायी विमान में! पर सखुबाई ने उसका
उठना-बैठना दूभर कर दिया।
"क्यों डोकरी, कब आ रहा है विमान, आज या कल?"
आनंदी रुआंसी हो जाती।
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