जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैंने उससे दरयाफ्त किया, “इतने सारे रुपए खर्च करके, इतनी दूर से, कुल घंटे-भर के इंटरव्यू के लिए तुम आई हो?"
"हाँ!" एलिजावेथ ने जवाब दिया।
''क्यों?"
“क्यों, क्या मतलब?” एलिजावेथ की आँखें अचरज से गोल हो आईं।
"मेरा मतलब है, यह खास जरूरी तो नहीं था।"
“क्या बात करती हो? तुम जैसी साहसी और सच्ची लेखिका, दुनिया-भर के साहित्य-जगत में बहुत ज्यादा नहीं हैं, तसलीमा! तुम नहीं जानतीं कि तुम क्या हो!"
"धत!"
"इतना विनयशील होने की कोई जरूरत नहीं है। तुमने विलक्षण काम किया है। हजारों-हजार मेरुदंडहीन लेखकों की भीड़ में तुम्हें अलग से पहचाना जा सकता है।"
‘ऐसी वात मत करो। मैं बेहद मामूली इंसान हूँ। कितने-कितने लोग, कितन-कितने तरीकों से साहसिक काम करते हैं। मैंने जो किया, मुझे नहीं लगता कि वह खास साहस का काम है। जो करना उचित था, मैंने वही किया।"
"उचित काम ही दुनिया में कितने लोग करते हैं?"
“नहीं-नहीं, ऐसी बातें मत करो! यह मेरो विनयशीलता नहीं है। मैं सच कह रही हूँ, मैंने ऐसा खास कुछ भी नहीं किया।"
मैंने यह बात कही जरूर, लेकिन एलिजावेथ इसे मानने को किसी शनं पर भी तैयार नहीं हुई। वह घंटे-भर मुझस बातें करती रही और फ्रांस लौट गई।
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