जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अगले साल आमंत्रण पाकर मैं फ्रैंकफर्ट के पुस्तक-मेले में शामिल हुई। जर्मन लेखक पीटर पिंसली ने मुझ पर एक किताब लिखी थी। बहुत पहले से ही वे अपने कार्यक्रम में प्रधान-अतिथि बनने का आमंत्रण दे चुके थे। मैंने वादा किया था कि मैं जरूर आऊँगी, लेकिन उस दिन मैंने जिद पकड़ ली कि मुझे नहीं जाना। ऐसे में मुझे वादा न निभाने वाली, दूसरों के आवेग-मनोभाव को तुच्छ मानने वाली, अपनी मनमर्जी चलाने वाली बेअदव लडकी कहलाई। सखे स्वभाव वाली लडकी! इसके बजाय मैं अपने जर्मन फ्रांसीसी प्रकाशक मित्रों के साथ अड्डेबाजी करती रही। उस दिन दो बंगाली प्रकाशकों से भी भेंट हुई। उन लोगों से भी अरसे बाद भेंट हुई थी। इसलिए मुझे जैसे स्वर्ग मिल गया। पश्चिमी लेखक, दार्शनिकों के साथ मंच पर आयोजित अनिवार्य कार्यक्रमों में भी शामिल हुई। सिर्फ उन्हीं कार्यक्रमों में हिस्सा लिया और बस! मुझे जो मिला या मिल रहा था, उसके प्रति मेरा आकर्षण खत्म हो गया था। जो नहीं मिला था, जिन्हें देखा नहीं था, सब कुछ पीछे धकेलकर मैं उसी तरफ दौड़ पड़ी थी।
मैने अनगिनत कवि, लेखक, साहित्यकारों से बातें कीं। उन लोगों के साथ गप-शप की। गप-शप के दौरान मैंने महसूस किया, उन लोगों की कुछ-कुछ चीजें बंगालियों त मिलती हैं, कुछ नहीं मिलती। गप-शप का विपय था, बांग्लादेश के बंगालियों में राजनीति की मात्रा ज्यादा है, पश्चिम में उतनी नहीं है। पश्चिम में जब दार्शनिक, साहित्यकारों में गप-शप का दौर चलता है, तो वह साहित्य, संस्कृति के बारे में होता है। यहाँ भी ईर्ष्या, द्वंप मौजूद है, कुछ भी न जानने वाले मौजूद हैं। कोई जाहिर करता है, कोई छिपाये रखता है, लेकिन पश्चिम में एक बहुत बड़ा फर्क जरूर है। यहाँ लगभग सभी लोग प्रचार चाहते हैं और यह वात कबूल करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते कि वे लोग प्रचार चाहते हैं। वे लोग अलबत्ता चाहते हैं कि उनकी किताबें काफी बिकें, विक्री से जो धन अर्जित होता है, वे लोग वह धन-राशि भी चाहते हैं। वे लोग यह सब चाहते हैं। यह बताने में उन्हें कोई झिझक भी नहीं होती। उन लोगों के लिए किताबें लिखना, एक पेशा है। आदर्श यहाँ भी है, सभी लोग अपनी आस्था-विश्वास के वारे में ही लिखते हैं। लेकिन साथ ही उनकी किताबें विकें, इसके लिए भी हर तरह की कोशिश तदबीर करते हैं। पुस्तक-मेले में बड़े-बड़े लेखक अपनी किताब सामने रखकर बैठे रहते हैं। अपनी किताबों का प्रचार, वे लोग खुद ही करते हैं। यहाँ तक कि वे लोगों को बुला-बुलाकर अपनी किताब के बारे में बताते हैं, ताकि वे लोग उनकी किताब खरीदें। किताब को वे लोग 'सामग्री' समझते हैं और चाहते हैं कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उस सामग्री के खरीदार बनें। बांग्ला लेखक इन तमाम बातों की मन-ही-मन कामना तो करते हैं, लेकिन जुवान से जाहिर नहीं करते। अभी भी वे लोग किताबों को सामग्री की स्थूल कतार में नहीं शामिल करना। अभा भा वे लोग आदर्श के तौर पर लोभहीन होने की ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। इस तरह लोभहीन, त्यागी लोग, पश्चिम के बहुतेरे अंचलों के लोगों की नज़र में मूर्ख माने जाते हैं या ऐसे लोगों को नॉन-प्रोफेशनल कहा जाता है। यह नॉन-प्रोफेशनल का मतलब है, 'नॉन-सिन्सियर' होना! बेईमान होना! बोहेमियन और उदासीन होना। तुम्हारा विश्ववास नहीं किया जा सकता। तुम्हें अगर लिखने का 'डेडलाइन' दिया जाए तो तुम वह 'डेडलाइन' पूरा नहीं करोगे। अग्रिम रॉयल्टी लेकर हवा हो जाओगे। तुम्हारे साथ प्रोफेशनल तौर पर कोई बातचीत नहीं की जा सकती। तुम्हारे साथ काम करके खुशी नहीं मिलेगी। तुम अपना वचन पूरा नहीं करते। तुम अच्छा लिखते हो, लेकिन अच्छा लिखकर ही दुनिया को नहीं जीता जा सकता। देखा जाए तो लाखों-करोड़ों लोग अच्छा लिखते हैं। हमें इतनी फुर्सत नहीं है कि तुम्हारे पीछे लगे रहें, या तो तुम प्रोफेशनल बनो, या समझ लो कि यह व्यापार है। तुम्हें भी रुपए मिलेंगे और हमें भी! दोनों पक्षों को, दोनों पक्ष के भले के लिए काम करना होगा। अगर तुमने हमें अच्छी सेवा नहीं दी तो हम भी तुम्हें अच्छी सेवा नहीं दे सकेंगे। अगर तुमने हमें अच्छा काम करके नहीं दिया तो हम भी तुम्हें अच्छा काम नहीं दे सकेंगे। अगर तुम हमें परेशान करोगे तो हम परेशान होने के बजाय कोई और रास्ता देखेंगे। अच्छा काम, अच्छे काम का इनाम, प्रचार, ख्याति, यश, प्रतिष्ठा-इसके लिए मेहनत करना और इसकी उपलब्धि को पश्चिम में वेहद सम्मान की नजर से देखा जाता है।
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