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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


कहाँ का, कौन गैवी, जिसे मैं अच्छी तरह जानती भी नहीं; वह क्या करता है। कहाँ रहता है। उसके आदर्श क्या हैं, मुझे तो यह भी नहीं मालूम, अचानक वह मेरा सर्वेसर्वा वन गया? वह भी इस विदेश-भुंई में? खैर उसके राग-रंग समझने में शायद अभी थोड़ा और वक़्त लगेगा, यह बात और कोई-कोई कहता है, लेकिन मैं नहीं मानती। वैसे राग-रंग समझने जैसा कुछ भी नहीं है।

पुलिस ने गैबी ग्लेइसमैन को सूचना दी कि मैं बाहर जाना चाहती हूँ।

मैंने कहा न, अगर मैं बाहर जाना भी चाहूँ, तो बात नहीं बनेगी। गैबी की अनुमति बिना, घर से बाहर, एक क़दम भी बढ़ाना मेरे लिए संभव नहीं है।

बहरहाल अभिभावक महोदय ने मुझसे बात करनी चाही।
 
उस अभिभावक नामक चीज़ को मैंने निहायत नाखुश लहजे में बताया, “मुझे बाहर जाना है।"

"क्यों? बाहर क्यों?" गैबी ने पूछा।
 
"बाहर मुझे काम है।"

"काम? कैसा काम? कौन-सा काम?"

"डॉलर भुनाना है।"

"क्यों?"

"खाना खाना है।"

“खाना तो फ्रिज में पड़ा है।"

"वह खाना नहीं खाया जा सकता।"

"ठीक है! रुपए-पैसों की ज़रूरत तो पड़ ही सकती है। मैं पुलिस से कह देता हूँ।"

हमारी बातचीत खत्म होते ही गैबी हवा की तरह यहाँ भागता हुआ आ पहुंचा। मगरमच्छ का छौना, क्यों बाहर जाना चाहती है? कहाँ जाएगी? शायद यही सब करीब से देखने-समझने आया था। गैबी से बातचीत होने के दस मिनट बाद पुलिस की कई-कई गाड़ियाँ मकान के सामने सड़क पर आ खड़ी हुईं। वर्दीधारी पुलिस हर वक्त ही राइफल ताने, मकान के बाहर खड़ी रहती है, यह देखकर ही मेरा तन-बदन काँप उठता है। गाड़ी-भर पुलिस आ पहुँचने का मतलब है, पुलिस-फौज में तैयारी की अफरातफरी मच गयी। पुलिस के बड़े अधिकारियों को भी तार द्वारा सचित कर दिया गया कि मैं घर से बाहर निकल रही हूँ। आखिरकार मैं निकल पडी। परे शहर को कँपाती हुई। पुलिस फौज आगे बढ़ने लगी। सड़क के राहगीर अचरज से मुँह बाए, फौज का नज़ारा करते रहे। मैं मारे संकोच के सिर झुकाए रही। मुझ जैसी मामूली लड़की के लिए कैसी हलचल मच गयी है। सड़क पर, दुकान पर, जो भी मुझे देखता, झट पहचान जाता। मीठी मुस्कान के साथ, मेरा अभिनंदन करता था, हाथ हिलाने लगता था। अखबारों के पहले पन्ने पर मेरी तस्वीर समेत ख़बर! हर दीवार पर पत्रिकाओं के पोस्टर चिपके हुए! बड़े-बड़े अक्षरों में मेरी ख़बर समेत मेरी तस्वीर! मैं वह विचित्र भाषा पढ़ नहीं पाती थी, सिर्फ अपनी तस्वीर पहचान लेती थी। प्रकाशित तस्वीर को गिरफ्तार करा दो या इसका स्वागत! अभिनंदन! भाषा भले न समझती होऊँ, लेकिन काफी कुछ यही संदेश!

रुपए भुनाकर, सबसे पहले जो काम करने का मन हुआ, वह था किसी रेस्तरां में जाकर खाना खाना।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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