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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


दिन गुज़र गया। अगला दिन, मेरे समझने से पहले ही मेरे सिरहाने आ बैठा। मेरा समूचा कमरा धूप में नहा उठा। हालाँकि मेरी घड़ी भोर होने का पता दे रही थी। स्वीडन में रात जैसे उतरती ही नहीं। यह देश, आधी रात को भी सूरज का देश होता है। गर्मी के मौसम में, आधी रात के सिर पर भी सूरज जगमगाता रहता है। रात के दो बजे हैं या दिन के, वहाँ यह समझने का कोई उपाय नहीं। दुनिया के उत्तरी मेरु तक पहुँचकर किसी लड़की ने लंगर डाला है। कुछेक पल सुस्तान के वाद वह यहाँ का चलचित्र और अनिवार्य रूप से सव कुछ का स्वभाव-चरित्र समझने की कोशिश करे।

मैं सूखा-सूखा चेहरा लिए ख़ामोश बैठी रही। ङ आकर मेर विस्तर पर एक किनारे बैठ गए। छुटपुट विषयों पर हमारी बातचीत में खाने-पीन, भूख-प्यास और गैबी का भी जिक्र छिड़ गया। किसी भी वात का समाधान हमारे हाथ में नहीं था। हम दोनों असहाय थे, लेकिन अपनी असहाय स्थिति पर भरोसा करने में मुझे परेशानी हुई। ऊ की भी यही हालत थी। ङ बीच-बीच में अबूझ-निगाहों से चारों तरफ देखते रहे, लेकिन जैसे ही वे होश में आए, बेहद बूझदार निगाहों से, जहाँ देखना चाहिए, उस तरफ नज़रें टिकाए रहे।

ऊ ने मेरी तरफ बूझदार आँखों और होंठों में मंद-मंद मुस्कान समेटे हुए कहा, "सुनो, कवि शम्सुर रहमान ने बहुतेरी औरतों से प्यार किया। उनकी इतनी उम्र हो गयी, उनका प्रेमी मन अभी भी नहीं भरा। शम्सुर रहमान की तरह मेरी शायद उतनी सारी प्रेमिका नहीं हैं, लेकिन मेरी कभी, कोई प्रेमिका नहीं थी, ऐसा नहीं है।"

प्रेम और प्रेमिका के बारे में वे और भी बहुत कुछ बकते रहे, लेकिन वह सब सुनने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। मुझे ङ पर बुरी तरह गुस्सा आता रहा। मुझे यह भी अहसास होता रहा कि वे मुझसे सटकर बैठने की कोशिश कर रहे हैं। बूढ़ी उम्र में उन्हें प्रेम का शौक चर्राया है। शायद इसी इरादे से वे ढाका से इतनी दूर स्टॉकहोम तक चले आए। मैं अंदर-ही-अंदर पत्थर हो उठी। किसी के छूते ही मैं आग हो आती। बेहतर होता, अगर ङ मुझसे सुरक्षित दूरी बनाए रखें।

अगली सुबह मैंने घोषणा कर दी, मुझे बाहर जाना है। लगे हाथ मैं फटाफट तैयार भी हो गयी, लेकिन महज मेरे तैयार हो जाने से पुलिस फौज तो तैयार नहीं हो जाती। पुलिस का जत्था तो भावहीन चेहरा बनाए, सिर्फ सुनता रहा कि मैं बाहर जा रही हूँ। मेरे बाहर जाने के बारे में उन लोगों को कोई सिरदर्द नहीं था। वे लोग मेरे साथ बाहर नहीं जाने वाले। घर की पुलिस घर का ही पहरा देगी। वे लोग तो बस, इस बात की निगरानी रखेंगे कि घर के अंदर कोई कहीं बम तो नहीं बिछा गया या चारदीवारी लाँघकर किसी कमरे में घुसकर मुझे मारने के लिए कहीं घात लगाए तो नहीं बैठा है! मेरी मीठी-मीठी बातों से यह पुलिस नामक चिउड़ा नहीं पसीजेगा। हाँ, मुझे बाहर निकलना ही होगा। डॉलर भुनाना होगा, लेकिन मुश्किल यह थी कि मैं कहाँ जाऊँ या न जाऊँ, यह गैबी तय करेगा। गैबी अगर हुक्म देगा, तो पलिस साथ जाएगी। मेरे हक्म देने की बात तो दर. अगर मैं सादर अनरोध भी करूँ, तो पुलिस हिलने का भी नाम नहीं लेगी। मेरा अभिभावक स्वीडिश पेन क्लब है और चूँकि गैरी ग्लेइसमैन उस क्लब का प्रेसीडेंट है, इसलिए अपने बारे में जितना मैं नहीं समझेंगी, उससे कहीं गैबी ग्लेइसमैन को मेरी समझ है।

मुझे बेहद गुस्सा आया।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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