जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
रात को सरकारी डिनर था। विशाल राजप्रासाद में मैं विशेष अतिथि थी। उँगली पर गिने जाने लायक चंद लेखकों को आमंत्रित किया गया था। मैं मामली कपडे पहनने वाली मामूली इंसान हूँ। मैं चेहरे पर रंग-रोगन पीते, नाज़-नखरे के साथ किसी से नहीं मिलती। मैं अपने को जितना हटाए रखना चाहती हूँ, आड़ में छिपाए रखना चाहती हूँ, जितना कम-से-कम अहमियत पाना चाहती हूँ, मैं देखती हूँ कि मुझे बीच में खींच लाया जाता है, तमाम आँख-कान मेरी ही तरफ लगे होते हैं। मुझे बेतरह उलझन होती है। मेरी तरफ निशाना साधे सैकड़ों कैमरे चमक उठते हैं। मुझे बेतरह संकोच हो आता है। वहाँ मेज़ पर शराव के तीन-तीन गिलास सजे हुए थे। साथ में बड़ी-सी थाली! थाली के बाईं तरफ दो छोटे-बड़े काँटे-चम्मच और दाहिनी तरफ छोटी-बड़ी दो छुरियाँ! थाली के सामने भी दो चम्मच। बगल में सफ़ेद रंग का नैपकिन ! हर थाली के सामने छोटी-जी चिट में नाम छपा हुआ! जिस कुर्सी के सामने, जिसका नाम लिखा हआ हो, वह वहीं बैठेगा। मुझे अपना नाम नहीं खोजना पड़ा। मंत्री लोग ही मेरे प्रति सादर अभ्यर्थना जाहिर करते हुए, मुझे मेरे नाम की कुर्सी तक ले गए। मेज़ पर मेरा नाम लिखी चिट! मेरी दाहिनी तरफ प्रधानमंत्री, बाईं तरफ विदेश मंत्री! आस-पास ही कई अन्य मंत्री। मेज़ के बीचोंबीच ताज़ा फूलों की बहती हुई आंकी-बांकी नदी जैसी सजावट। प्रधानमंत्री थीं ग्रो हार्लेम बॅन्डलान्ड! विदेश मंत्री कारी नॅरड्हेइम! संस्कृति मंत्री आसे क्लेवलान्ड! सभी औरतें! नॉर्वे संसद में पचास प्रतिशत औरतें हैं। मुझे यह सोचकर बेहद भला लगा कि इस दुनिया में कहीं कोई ऐसा समाज है. जिसमें नारी-अधिकार सप्रतिष्ठित है। देश में समाज में घर-बाहर. हर जगह औरत, इंसान के रूप में सम्मानित है। स्त्रियाँ निम्नवर्गीय जीव, या दासी या यौन-वस्तु के रूप में चिह्नित नहीं हैं। औरतें, औरत होने के नाते दवाई-कुचली नहीं जातीं। यह नॉर्वे, मानो सपनों जैसा देश है। यहाँ की समाज-व्यवस्था ऐसी है, कहीं कोई दरिद्र नहीं है। ऐसे वेदाग़-स्वच्छ देश में बैठी हुई, मैं उसी देश की सरकार से बातें कर रही थी। मैंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई। औरत-मर्द सभी लोग, खाते-खाते, बीच-बीच में शराब की छूट भर रहे थे। सभी लोग धीमी-धीमी आवाज़ में बातें करते हए! यहाँ कोई फिजूल भौंक नहीं रहा था। कोई मर्द, किसी औरत पर ढलका नहीं पड़ रहा था। मुझे अहसास हुआ कि कोई किसी के प्रति असम्मानजनक मंतव्य नहीं कर रहा था। 'असम्मान' शब्द यहाँ सापेक्ष है, जो बात भारतीय उपमहादेश में असम्मानजनक नहीं है, वह बात यहाँ शायद चरम असम्मानजनक है।
विदेश मंत्री ने वही पुराना प्रसंग छेड़ दिया। पिछले दिनों के वही पुराने प्रसंग, जब मैं ढाका में छिपती फिर रही थी, जब समूचे देश के कट्टरवादी मेरी हत्या की कसम खाए बैठे थे। यह बात भी जाहिर हुई कि उन दिनों नॉर्वे सरकार ने कैसे मुझे बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था। मंत्री महोदय की बातें में थोड़ा-बहुत मन से और थोड़ा-बहुत बेमन से सुनती रही।
“बांग्लादेश के मामले में आपके ख़याल से, हमें क्या फैसला लेना चाहिए?" विदेश मंत्री ने अचानक सवाल किया।
मैं ज़रा चौंक गई! ज़रा हँस भी पड़ी।
मैंने थोड़ा-सा पानी पीया, उसके बाद जवाब दिया, “फैसला आप लोगों को लेना है। मैं क्या बताऊँ कि आप क्या फैसला लें।"
"हमने एक फैसला लिया था। सरकार आप पर कोई जल्म न करे, इस वारे में! आप जानती हैं, हमने क्या फैसला लिया था?"
"नहीं, मैं नहीं जानती! क्या फैसला लिया था?"
"बांग्लादेश को हम हर साल लगभग तीन सौ मिलियन नॉर्वेजियन क्राउन देते हैं। हमने सोचा है कि हम यह फंड देना बंद कर देंगे।"
"क्यों?"
"क्यों नहीं?"
"बांग्लादेश गरीब मुल्क है। अस्सी प्रतिशत इंसान मानवेतर जिंदगी गुज़ारते हैं! आप लोग अगर यह दान बंद कर देंगे तो वांग्लादेश सरकार को तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तो पड़ेगा वहाँ के गरीव-दरिद्र लोगों को! वहाँ के एन.जी.ओ. के जरिए, थोड़ा-बहुत ही सही, वहाँ की दीन-दुःखी औरतों का कम-से-कम कुछ तो भला होता है। यह मदद बंद कर दी जाए, मैं इस पक्ष में विल्कुल नहीं हूँ।"
"लेकिन आपके प्रति वहाँ की सरकार का जो आचरण है! कट्टरवादियों को जिस ढंग से प्रश्रय दिया जा रहा है, देश की उन्नति क्या इस ढंग से संभव है? हम दाता देश, सहायता बंद करने की बात कहकर या सामयिक रूप में सहायता बंद करके हम उन पर दवाव डाल सकते हैं।"
"हाँ, दबाव तो डाल सकते हैं, लेकिन इससे क्या सरकार सुधर जाएगी? कोई भी पार्टी ऐसा कछ भी नहीं करेगी. जो करने से. सत्ता में टिके रहने में असविधा हो! तमाम राजनैतिक पार्टियाँ आम लोगों की भलाई के बारे में नहीं सोचतीं, वे लोग तो अपना-अपना घर भरने में व्यस्त हैं, लेकिन, मुझे मोहताज-दुःखी लोगों की फिक्र है। उन लोगों को क्यों वंचित कर रहे हैं? उन लोगों का क्या कसूर है? एक गलत देश में पैदा होने की वजह से आज वे लोग शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित हैं। सवको मामूली रोटी-कपड़ा और मकान तक की सुरक्षा नसीब नहीं होती।"
विदेश मंत्री खामोश हो गईं। प्रधानमंत्री भी चुप हो गईं। सिर्फ दूसरी-दूसरी मेज़ों से बातचीत की हल्की-हल्की आवाजें! इसके अलावा और कहीं कोई आवाज़ नहीं। काँटे-छुरी की टन्न-टुन्न की आवाजें सिर्फ मेरी ही थाली से आ रही थीं और किसी की भी थाली से नहीं। इस थाली पर काँटा-छुरी थामे हुए अनाड़ी हाथ! हाथ से खाना खाने वाली, गरीब देश की लड़की, आज अमीर देश के दरबार में थी। वह अमीर देश के लोगों की तरह रच-रचकर बातें करना नहीं जानती। उन लोगों की तरह उसे सजना-सँवरना नहीं आता, न खाना आता है।
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