जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
लिलियाना भी दो दिन मेरे यहाँ आई थी। एक दिन अपने दो दोस्तों के साथ कॉफी पीने भी आई। खाने की मेज़ पर कॉफी और कुकी लिए, पूरे दो घंटों तक गपशप चलती रही। मैंने देखा, इस देश में लोग-वाग दिन-भर की बातचीत खाने की मेज़ पर ही निवटा लेते हैं। मेज़ के सामने बैठे-बैठे, खाना खाते-खाते, कॉफी पीते-पीते, लंबी-लंवी अड्डेबाज़ी चलती है, जैसे हम सब सोफे या विस्तर पर बैठे-बैठे या लेटे-लेटे अड्डा देते हैं। इन लोगों का अड्डा खाने की मेज़ पर चलता है। इन लोगों के मुकावले, हमारे यहाँ, खाने की संस्कृति काफी ऊँचे स्तर की होती है, लेकिन, हम खाने की मेज़ के सामने बैठे-बैठे अड्डेवाज़ी नहीं करते। मेरा ख़याल है इसकी एक वजह है, हम सव हाथ से खाते हैं। अगर इन लोगों की तरह काँटा-छुरी से खाते तो खाना लेकर देर-देर तक बैठे रहते। इसके अलावा, हम लोगों को गर्मा-गर्म खाना गरम-गरम खा लेने की आदत है। खाना खाकर, जूठे हाथ लिए वैठे रहना, आरामदेह नहीं होता शायद इसी वजह से हमारे यहाँ खाने की मेज़ पर अड्डा देने की संस्कृति कायम नहीं हुई, वरना खाने की शौकीन, ऐसी जाति के साथ खाने की मेज़ का ऐसा हल्का-फुल्का रिश्ता क्यों होता? कभी मैं सोचा करती थी कि हम सब गरीब देश के इंसान हैं, शायद इसीलिए खाने को लेकर इतना सिर खपाते हैं। इसीलिए बचपन से ही यह आदत पड़ चुकी है। जैसा देखती आई, वही सीखती रही। अपना निजी विश्वास, न हो अपनी बुद्धि, विवेक, चेतना के बल पर काटकर अलग किया भी जा सकता है, मगर संस्कृति का सवक, हम छोटी उम्र में ही सीख लेते हैं। आचार-व्यवहार हमारे खून की बूँद-बूँद में घुलमिल जाते हैं। पुराने दिनों की औरतों की तरह में भी 'प्यार' शब्द जुबान से जाहिर न करके, इंसान को खिला-पिलाकर समझाना चाहती हूँ कि मैं प्यार करती हूँ। एक दिन डायना को खिलाया था. सिर्फ यही जाहिर करने के लिए न, कि मैं उसे प्यार करती हूँ। इयान, लार्स, इयर्गन, रोनाल्ड को भी द्वीप वाले घर में खिलाया था, क्योंकि वे खाना पकाकर, लगभग कुछ भी नहीं खा रहे थे। जान कैसी तो रोटी, पनीर, मक्खन और फल खाकर काम चला रहे थे। रोटी पर कच्चा गोश्त विछाकर खाया करते थे। मैंने दूर से ही उनके खाने की एक झलक-भर देखी थी और उन लोगों पर बहुत अधिक तरस आया था। बस, मैंने उसी पल उन लोगों को निमंत्रण दे डाला। दोपहर को खाना खाया? रात को खाया? वैसे किसी भी देश का इंसान, किसी से इस ढंग से नहीं पूछता, लेकिन बंगाली मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोगों के जीवन में यह संस्कृति खूटा गाड़कर वैठी हुई है। इसका उत्स दरिद्रता है। दरिद्र देश का इंसान, किसी मोटे-मुटल्ले आदमी को देखकर उसे वेहद स्वस्थ और तंदुरुस्त समझ लेता है। उस आदमी के पास दौलत है, अच्छा खाता-पीता है, इस बात का लक्षण यही है कि उसके बदन पर काफी चर्वी चढ़ी हुई है। चर्वीहीन, दबले-पतले इंसान को 'रोगी' कहा जाता है, मानो उन लोगों का रोग से रिश्ता हो। यह कहा जाता है कि ऐसे लोगों का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। लोग स्वास्थ्य का मतलब समझते हैं-चर्बी चढ़ा हुआ स्वास्थ्य ! लेकिन स्वास्थ्य विल्कुल अलग ही चीज़ है। ठीक इसका उलटा। अब तक मैं तो यही जानती थी कि चूँकि मैंने गरीब देश में जन्म लिया है, इसलिए खाने-पीने की कुछ ज़्यादा ही सुध लेती हूँ।
किसी फ्रांसीसी नृत्तत्त्वविद ने मेरी भूल-सुधार करते हुए कहा-“गरीबों की वात करें तो अफ्रीका के अनगिनत देश गरीब हैं। लेकिन वे लोग तो भाँति-भाँति का पकवान पका-खिलाकर अपना प्यार प्रकट नहीं करते।" मेरी आँख से आँख मिलाते हुए उन्होंने धीरे-धीरे कहा- "इसकी वजह यह है कि तुम लोगों की खाद्य-संस्कृति काफी उन्नत है, इसमें काफी नज़ाकत शामिल है, लगभग पूरी-की-पूरी कला है। तुम लोग इस कला की चर्चा करते हो, यही कला तुम लोग परोसते हो। तुम लोग क्या सिर्फ पेट भरने के लिए खाते हो? तो फिर इतने मसाले वगैरह डालकर इतना लज़ीज़ खाना क्यों पकाते हो? पाक-विद्या में इतना रिसर्च क्यों करते हो? अरे, किसी तरह उवालकर खा लो। पेट भर जाए, किस्सा खत्म! लेकिन, तम लोग ऐसा नहीं करते।"
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