जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
विपन्न, खून में नहाई हुई, मैं चीख-चीखकर उन लोगों को आवाजें देती हूँ, ताकि वे लोग सुन लें, मेरी वात सुनें! लेकिन कोई मेरी आवाज़ नहीं सुनता! वांग्लादेश नामक मेरा देश भी, मेरी आवाज़ नहीं सुनता! मैं अकंले विल्कुल अकेले बड़बड़ाती रहती हूँ। मेरा उठकर भाग जाने का मन होता है।
बड़ी इच्छा करती है एक वार भागने की
वर्च, बीच और चीड़ों के खूबसूरत अरण्य
और शीतल शांत बाल्टिक से घिरे इस सजे-धजे नगर से-
मगर भागूंगी कहाँ, और कौन नगर है इस पृथ्वी पर जो कर रहा है
मेरी प्रतीक्षा?
मेरा सर्वांग ये लोग ढंककर रखते हैं गर्म चादर से
हाथ बढ़ाने से पूर्व खुद आ जाते हैं हाथ में प्रेम से भरे असंख्य हृदय,
इन सबको छोड़कर मन करता है कहीं और भागने को।
मगर भागकर जाऊँगी कहाँ? इस दुनिया में और कहाँ हैं ऐसे लोग
जो कर रहे हों मेरी प्रतीक्षा।
कितने-कितने शहरों में जाती हूँ, घूमती-फिरती हूँ, सैर करती हूँ! कितने-कितने शहरों में कितना कुछ देखती हूँ, लेकिन असल में क्या कुछ देखती हूँ? हाँ, देखती हूँ, लेकिन उस देखने में भी कोई और ही आँखें होती हैं, कुछ और ही देखने के लिए!
रात भर तुमने कितना कुछ दिखाया-
पिकाडली सर्कस, बकिंघम पैलेस, ट्रैफलगर स्क्वायर,
दरअसल मुझे घास और उसके फूल के अलावा
कुछ भी नजर नहीं आता।
रात भर दिखाया मुझे टावर ब्रिज, चायना टाउन, हाउस ऑफ
कामन्स-
निःसंग आसमान के अलावा
दरअसल मैंने कुछ भी नहीं देखा।
सो जाता है शहर, जगी रहती हूँ मैं सारी रात
उत्तर के सागर ओर की अंधड़, बारिश, कंधे पर लगती है
तेज हवा
और रात भर पागल लड़की की तरह भीगती हूँ टेम्स के जल में,
दरअसल, कोई नहीं जानता, मन ही मन भीगती हूँ मैं,
बहुत दूर छोड़ आए गहन ब्रह्मपुत्र में।
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